पहाड़ी भाषा दी नौई चेतना .

Monday, November 28, 2022

हिमाचली पहाड़ी चर्चा

 


दो दिन पैह्लें दिव्य हिमाचल टीवी नै चौंह् लेखकां दी चर्चा कराई भई नौइंया सरकारा ते हिमाचल दी कुण देह्यी भाषा मंगणी।  गणेश गनी, कृष्ण महादेविया कनै आशुतोष गुलेरी  होरां अपणे अपणे वचार रखे। कुलदीप चंदेल होरां कनेक्ट नीं होई सके। चर्चा च गिरह फिरी होह्थी आई नै पयी गई भई कुण कदेही भाषा। चर्चा ते परंत आशुतोष गुलेरी कनै यतिन शर्मा होरां अपणे वचार फेसबुक पर रखे। असां जो लगा इन्हां दूंई दे वचारां जो एह्थी रखी देइए ता गल्ला दे दो लग-लग बक्ख इक्की जगह आई जाह्ंगे। उम्मीद रखिए एह् बक्ख गांंह् चल्ली नै कट्ठे होई जाह्ंगे या इक्की दरयाए दे दो कनारे बणी नै बगदे रैंह्गे। आखर च दिव्य हिमाचल दी चर्चा दा लिंक भी है। 


हिमाचले जो अपणी इक भासा मिलणा चाहिदी  

आशुतोष गुलेरी 

सोह्णा बांका देश आसांदा सोह्णे बांके माह्णू

प्हाड़ां दी क्या गल्ल सुणा मैं जिह्यां सुच्चे माह्णू।।

प्हाड़ कनैं माह्णू? हाँ-जी, आसांरे प्हाड़ माह्णुआं सैंह्यी तां ह्न। सुरजे दिआ पैह्लिआ किरणा-ने उठदे। अपणा रूप सुआरदे। घाटियां घुआरदे। घरे दे बड्डे बुजुर्गे सैंह्यी लौह्के माह्णुआं ठुआंदे, कम्मे करने दी परेर्णा देई करी, जिह्यां बुजुर्ग बेह्यी करी होण-गुजारी दिखदा रैंह्दा, पैह्रा दिंदा, तिह्यां-ई साःह्ड़े प्हाड़ टिकी ने बैठेओ कनैं म्हारा पैह्रा करा करदे।

सांझकिआ बतरा सुरजे दे रंगा ने संगरोइओ छैळ पळोढ ओढी करी नेह्रे पेई चानणियां दी लोई फेरी पैह्रे बेह्यी जांदे।

पहाड़े दा जीणा, सच्च सुर्गे दा जीण है। कुह्ण हुंगा जेह्ड़ा पहाड़े दा जीण नीं जीणा चांह्गा!

देःदेह्यी राखी करने दे बदले पहाड़ आसां ते क्या मंगा करदा? किछ नीं। बुजुर्गां दी एह्यी पणछाण है। दिल भी बड्डा कनैं जिगरा भी बड्डा। पहाड़ जागेओ। अपण अहां खबनीं कुसा निंदरा सुत्तेओ!

आसांरी बोली बखरी, जीणा-लाणा बखरा। एह्यी कारण बणेआ था कि लोकां रौळा रप्पा पाया कनें सूबा बखरा करी-नै अपणा इक्क राज्य मंगेआ। इतणे साल होई बीती गै, राज्य बणेआ, भाषा नीं बणी सकी। राखिआ व्हाळा बुजुर्ग बैठेआ, दिखा करदा। क्या कुछ हुंदा। क्या किछ करदे अपके माह्णू। माह्णू सुत्तेओ।

कल दिव्य म्हाचल टीवी व्हाळेआं इक चर्चा करुआई। पहाड़ी बणनी चाइये क नीं?

मैं सोचदा, एह् सुआल ही कैह्जो? जदूं सबनां दा सुपना ही एह्यिओ है कि म्हाचले-जो पहाड़े सैंह्यी अपणी इक भाषा भी मिलणी चाइये, तां अजेहा सुआल पुच्छी करी आसांरा बसुआस कःजो कीलणा! बसुआसे पर ही तां सुपनेआं दा प्हाड़ कैम है।

सुआल उठेआ तां गल्ल भी होणी थी। मितरें गलाया पह्ई भाषा बणना तां चाइदी, पर सोध करने दी जरूरत है। 32 ते ज्यादा बोलिआं ह्न म्हाचले मंह्ज। इन्हां बोलिआं मंह्ज कुःण देई बोली भाषा बणगी? तिसा भाषारा सरूप कजेहा हुंगा।

मैं सोचा करदा... पह्ई 32 छड्डी 64 बोलिआं होन, भाषा कने बोलियां-दा तां आपसी कोई घमचोळ ही नीं है।

जेकर ऐसा हुंदा तां मराठी भाषा नीं बणदी, न फेरी बांग्ला हुंदी। भलेओ बड़ी दूर कैह्जो जाणा, जेकर बोलिआं कनैं भाषा मंह्ज कोई आपसी चौह्दर हुंदी तां डोगरी भी भाषा नीं बणनी थी। मगर एह सारिआं भाषा बणिआं। कनैं इन्हां दे भाषा बणने बाद भी बोलिआं दी सेह्ता पर कोई फर्क नीं पेआ। विदर्भे व्हाळा अज्ज भी अपणे सुरे-च बोला करदा कनैं कोकण व्हाळें अपणी बखरी मिठड़ी तान छेड़िओ।

जेह्ड़ी बोली आसां बोलदे, सेह्यी भाषा बणी जाएं। मगर ऐसा होणे ताईं पैह्ले अपणे बोलेओ पर बसुआस होणा बड़ा जरूरी। भाषा बणाणे ताईं कोई इक्क ही बोली चुकणा मजबूरी नह्यीं। जेकर ऐसा है तां म्हारे मितर होरां दा सुआल जैज था - 'भाषा दा सरूप क्या हुंगा? तिसा भाषा रे शब्द क्या हुंगे?'

मैं जेह्ड़ा सोची करदा, सैह्यी मैं इस स्क्रीना पर लिखा करदा। एह्यी मेरे सोचणे दा सरूप है। एह्यी मेरे जीणे-बोलणे दी बोली है। कनैं जेकर इस लिखेओ जो तुहां भाषा बोलदे, तां एह्यी मेरिआ भाषा दा सरूप समझा। कनैं जे किछ मैं लिखेआ, इस लिखेओ जो जेकर तुहां पढ़ी स:कादे होन, तां एह्यी मेरिआ भाषा दे शब्द ह्न।

जो जिसा बोलिआ मंह्ज सोचा करदा कनैं देवनागरिआ मंह्ज लिखणे दी हिमता करा करदा, सैह्यी भाषा म्हाचली है। इस सोचा पर कुस जो बसुआस नीं है? कनैं जेकर नीं है, तां फीः रौळा एह् नीं है कि कुह्ण जेही बोली भाषा बणगी; खप्प किछ होर ही ब:ह्झोआ करदी।

म्हारी बोलिआंरी जुबान मिठड़ी। म्हारे लोकां दा सुभा मिठड़ा। म्हारी खड्डां, नाळुआं, सोत्तेआं कनैं कुःह्लां-रा पाणी मिठड़ा। म्हारे प्हाड़ां-री हौआ ठंडड़ी। फेरी भाषा बणाणे दी रांह्यी कौड़पण कनैं गर्मौस कःह्जो?

जिसा बोलिआ-च तुहां गला करदे, तिस गलाए जो देवनागरिआ मंह्ज लिखणे जो कुह्ण हत्थ पकड़ा करदा? मेःह्तैं कोई पुछगा कि एह् केह्ड़ी भाषा लिखी मारी तैं, मैं पूरे सुआभिमानेनैं दसगा - “एह् भाषा मेरी जान, मेरा प्राण, मेरे जीणे-मरणे दा सुभा, मेरी आन कनैं मेरे होणे दा सुआभिमान - म्हाचली प्हाड़ी भाषा है।”

हुण कुशंका कि बोलिआं दा क्या हुंगा? बोलिआं जेकर तुहां बोलगे तां बोलिआं चलदिआ रैह्णिआं। जे तुहां बोलणा छडी दिंगे तां टैमें लंह्गदेआं सारे बोलिआं पर विलुप्त होणे ता खतरा बःह्झोणा लगदा। कुल्लू जाई करी दिखा-ला, कितणे-क लोक अज्ज कुलुई बोला करदे? बोलगे तांःह्यी लिखगे।

आशुतोष गुलेरी

मेरी सोच अज्ज भी पक्की है, जे आसां संबाद-सैःह्मति-सौग बणाई करी चल्लण तां म्हाचले जो अपणी भाषा मिलणे-ते कोई रोकी नीं सकदा।

मेरी एह् सोच तितणी पक्की है जितणा पक्का म्हारी राक्खी करने व्हाळा बुजुर्ग प्हाड़ है। इस प्हाड़े-जो आसां एत्थी धौळाधार कुआंदे। कुल्लुआ व्हाळे किछ होर, तां चम्बे व्हाळे कुसी होर नौएं ने इस प्हाड़े दी पणछाण दस्दे। किछ भी कुआ, प्हाड़ प्हाड़ ही रैंह्दा।

तिह्यांई कुलुई गला कि कांगड़ी, म्हास्वी, चम्ब्याळी, कह्लूरी, पंगुआळी, भोटी, कनैं होर किछ भी कुआई लेआ, म्हाचली म्हाचली ही रैह्णी। अस्तित्व भी सैह्यी रैह्णा कनैं सन्मान बद्धणा ही है, घटणे दा तां सुआल ही पैदा नीं हुंदा।

पुखरां कनैं कुआळां लौंःह्गे तां दुनिआ दा नजारा सुजगा। अपणे-अपणे घरां बैठी करी अपणे पांःह्डे टींडेआं दी ठूसां कदूं तिकर सुणाई चलिए।

बैह्सारी गल्ल नीं, प्हाड़ कनैं प्हाड़िआं दी अस्मिता दा सुआल है एह्। आसांरे जीणे-मरने दा कारण, म्हारी मिट्टी कनैं म्हारे प्हाड़ां-रे सुआभिमाने दा सुआल है। जेकर पड़ेसी अपणे पाणिए दे सुआले पर ठा करीने जुआब देई सकदे, तां क्या असां अपणी भाषा नीं मंगी सकदे?

अठवीं अनुसूची कनैं प्हाड़िआ दे बिचकार जेह्ड़ी दूरी है, तिसा दूरिआ जो मुकाणे ताईं साःह्रेआं जो सौगी चलणा ही पौणा।

जय हिमाचल, जय हिमाचली।


किसी एक बोली को भाषा चुना तो शेेेष बोलियों के अस्तित्व पर खतरा  

यतीन शर्मा

पहाड़ी भाषा पर कल दिव्य हिमाचल टीवी में एक चर्चा सुनी। मेरा मत इस बारे कुछ ऐसा है :-

पहाड़ों में बोली जाने वाली बोलियों के समूह को पहाड़ी भाषा कहते हैं। साधारण सी बात है। जबरन इस विषय को जटिल बनाया जा रहा है। एक व्यापक विविधता वाले समूह को सामूहिक रूप से भाषा क्यों नहीं चुन सकते ? ग्रियर्सन, बेली इत्यादि पहले भी ऐसा कर चुके हैं, अब क्या समस्या है ?

इस विषय पर टकराव की स्थिति क्षेत्रीयता के कारण उत्पन्न होती है। यह वैसा ही है जैसे देश की भाषा हिंदी को क्षेत्रीयता के आधार पर बहुत जगह नकारा जाता है। इससे हिंदी का महत्व कम तो नहीं हो जाता! इस कालखण्ड में भारत मे हिंदी मूल भाषा है और देवनागरी इसकी मूल लिपि है। अतः पहाड़ी भाषा की लिपि देवनागरी ही रहनी चाहिए।

पहाड़ी बोलियों को टाकरी में निःसंदेह किसी समय लिखा जाता था, परंतु अब व्यवहारिक रूप से ऐसा सम्भव नही है। मैं बेशक टांकरी पढ़ता सिखाता हूँ। इसे बचाने का प्रयास भी कर रहे हैं। परंतु इसका मतलब यह नहीं कि टांकरी को किसी प्रचलित लिपि पर प्रतिस्थापित किया जाए। इस तरह तो टांकरी से पूर्व की लिपियाँ भी इस दौड़ में आ जाएगी। दूसरा अधिकतर जनता अभी टाकरी नही जानती। पहले व्यापक स्तर पर लोगों को इससे अवगत करवाना होगा। उसके बाद ही इसे दूसरी वैकल्पिक लिपि के रूप में किसी हद तक प्रयोग किया जा सकता है। वह भी तब, जब इसमे बहुत से संशोधन होंगे। निरन्तर प्रयासरत रहने पर इसे अपने 200 साल पहले वाले रूप में आने के लिए अभी लगभग 50 से 100 वर्ष का समय और लगेगा। अतः टांकरी वैकल्पिक लिपि के रूप में पहाड़ों में प्रयोग की जा सकती है। देवनागरी मूल लिपि रहे तो बेहतर।

किसी एक बोली को परिवर्तित रूप में पहाड़ी भाषा के रूप में चुनने से दूसरी बोलियों के अस्तित्व समाप्त होने का ख़तरा बन जाएगा। जैसे ही किसी एक भाषा को पूरे क्षेत्र की भाषा घोषित किया जाएगा तो वह सबके लिए महत्वपूर्ण हो जाएगी और भावी पीढ़ी उसी भाषा को अधिमान देगी। ऐसे में कनाषी जैसी विलुप्तप्राय बोलियां एकदम से समाप्त हो जाएंगी।

हम अपनी पहाड़ी बोलियों को एक बनाने के लिए पंजाब का उदाहरण लेते है या अन्य राज्यों का उदाहरण लेते हैं। क्यों ?

हमारा अपना अस्तित्व और इतिहास है। पंजाब को नहीं पता 'चोरा' क्या होता है, 'बाहुड़' क्या होता है, 'माहुरा-मटोषळ' क्या होता है? हमें पता है, या हमारी पर्वत श्रृंखला साझा करने वाले लोगों को पता है। कटु क्या है, इसका पता लाहौल वालों को, लाहुली जानने वालों को है या चित्राल वालों को। इसलिए बाकी राज्यों का उदाहरण पहाड़ी के साथ देने की आवश्यकता नहीं। अरुणाचल से लेकर पामीर के पहाड़ों में जो भी बोली प्रयुक्त होती है, वह पहाड़ी है। उसका वर्गीकरण राज्य के आधार पर नाम देकर किया जा सकता है। जैसे उत्तराखंडी पहाड़ी, हिमाचली पहाड़ी इत्यादि।

यतिन शर्मा  

लाहुली, किन्नौरी के बाद कुलुवी सबसे जटिल बोली है। इसमे बहुत सी ऊपरी हिमालय की बोलियों के साथ-साथ पर्शियन से लेकर तिब्बती शब्द भी हैं। मैदानी बोलियों में या कहें पंजाबी-मराठी में तिब्बती शब्द नहीं। परंतु इन सब बोलियों की अपनी ख़ूबसूरती अपनी विशेषता है।

अंडे के लिए प्रयुक्त होने वाला डाना शब्द या तो कुल्वी में है या फिर चीन की बोलियों में। बाकी राज्यों का भौगोलिक परिवेश और इतिहास अलग है हमारा अलग।

सर्वप्रथम पहाड़ी बोलियों का व्याकरण बनाने की आवश्यकता है। वह है नहीं, पहले वह तो बनाइये। बाद में व्याकरण में साम्य होने से दो भिन्न मानी जाने वाली बोलियों को एक समूह में रखने में सुविधा ही होगी। 20-25 साल सभी क्षेत्रों के भाषाविद इस मामले पर शोध कर लें, बाकी काम उसके बाद होगा।

मेरे अनुसार पहाड़ी बोलियों का सम्मिलित स्वरूप ही पहाड़ी भाषा है। इन्हें एक करने की आवश्यकता नहीं। बोलियों की अपनी मौलिकता समाप्त होने से बोली समाप्त हो जाएगी।

इन सब बिंदुओं पर आगे बहुत विचार दिए जा सकते हैं। हर बिंदु के कारकों-कारणों पर और भी अधिक विस्तार से लिख सकता हूँ। परंतु अभी इतना ही।

अलख निरंजन 

दिव्य हिमाचल की भाषा चर्चा       

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