नौंईया भासा नीति दे साह्बें बच्चयां दी प्राथमिक शिक्षा दा माध्यम मातरीभासा होणा चाही दी। पर इस बारे च हिमाचल शिक्षा बोर्ड दे चैयरमेन होरां दसया कि हर जिले दी भासा लग होणे दे कारण हिमाचली पहाड़ी च पढ़ाई नीं होई सकदी। इस पर कुशल कुमार होरां दी वीडियो टिप्पणी पहाडि़या कनैं हिंदिया च लेख रूप च पेश है।
हिमाचली पहाड़ी च पढ़ाई नीं होई सकदी।
नौंईया भासा नीति दे
साह्बें बच्चयां दी प्राथमिक शिक्षा मातरीभासा च होणा चाही दी। इस बारे च हिमाचल शिक्षा बोर्ड दे चैयरमेन होरां
दसया कि हर जिले दी भासा लग होणे दे कारण हिमाचली पहाड़ी च पढ़ाई नीं होई सकदी। इस
मामले च मिंजो लगदा। जे हिमाचले च किछ होर जिल्हे बणी जान ता होर नौईंया भासां जमी
सकदियां। हिमाचल दे मते सारे लोग ता मिंजो इस मामले च किछ होर ही गांह् पूजयो
लगदे। तिन्हां जो लगदा कि हर घरे दी भासा लग होंदी। इस ताईं सैह् घरे ते बाह्र
पहाड़ी बोलदे ही नीं। घरें क्या बोलदे सैह् गासला जाणे।
बैसे इस मामले च लोकां जो
दोष देणा ठीक नीं है। कमोवेश सारे देशे च ही अपणियां भासां जो लई ने असां च
जागरूकता कने चेतना बड़ी घट है। असां दी सोच एह् है कि भई, भासा सैह जिसा ने कम चली जाए। मिंजो कनैं मेरया याण्यां जो
होरनां ते बधिया नोकरी कनैं माल मिली जाए। मरीका यूरोप दा टिकट मिली जाए ता होर क्या
चाही दा। असां जो एह् बी लगदा कि असां दियां भासां ता अपणियां ही हन इन्हां
कतांह् जाणा। पर असां जो ऐह् नीं सुझा दा कि असां दिया भासा जो असां दे याणे पढ़ना
ता दूर बोला दे भी नीं। जे एही हाल रिह्या ता असां दियां भासां असां कनैं ही मुकी
जाणा। असां जो इसा गला दी कोई फिकर नीं है। कल मरे अज दुआ ध्याड़ा।
जित्थू तिकर स्कूलां च मातरीभासा च पढ़ाईया दी गल है। एह्
सच है कि हिमाचले च मतियां सारियां बोलियां हन। ऊंच्चईयां ऊंच्चईयां रिडि़यां
हन। तिन्हां दियां होर बी ऊच्चईयां चूंडियां बरफे नें डकोई रैंह्दियां। घाटियां
च डुगियां डुगियां खडा़ं कनै नदियां बग दियां। इस ताईं माह्णुआं कनै भासां दा
कठेवा मुश्कल था नीं बणी सकया।
माह्णु ता फिह्री बी पतणा लंघी जांदा था पर लगदा भासां
पतणां नी लंघी सकईयां। हुण ता पुळ बी बणी गै सुरंगा भी खणोई गईंया। इन्हां दे
बणने ने असां दिया भासां बधणे दे बजाए होर जकड़ोदियां कनै संगड़ोदियां गईयां।
खडडां पर त पुळ बाद च बणे पर भासां च पुळ पैह्लें ही पेई गियो थे। ऊड़दु, पंजाबी
कनै पिछलिया सदी च हिंदिया दा बडा कनै पक्का पुळ पेई गिया।
असां इन्हां पुळां च ही लंघदे ओआ दे। पहाड़ीया च पैरां
सैड़णे दी जरुरत न महसूस होई न असां समझी। हुण ता असां जो हिंदिया कनै पंजाबिया दे
पुळां दी इतणी आदत होई गईयो कि असां जो इन्हां ते उतरयां ही जमाना होई गिया। जे
काह्ली कुत्थी उतरना पई जाए ता पहाडि़या दिया जमीना पर पैर ही नीं टिकदे। असां
सैह्रां साही स्काई-वाक बणाई लेयो। असां इन्हां हंडोळयां च ही रैह् दे।
सोचया जाए ता इस ते बचकाना तर्क क्या होई सकदा। हर जिले दी
भासा लग है जे इक होंदी ता पढ़ां दे। ऐत्थु एह् सुआल पैदा होआ दा कि भासां मतियां
कनै लग लग हन ता क्या इन्हां जो पढ़ाणे कनै गांह् बधाणे दी जरुरत नीं है। इन्हां
जो अपणे हाले पर मरने ताईं छडी देणा चाही दा। ऐह् नीति ठीक है।
सारयां ते बडी गल। एह् जेह्ड़ीयां लग-लग हन। एह् हन क्या।
इन्हां दा असां दिया नजरां च मुल क्या है।
एह असां दी वरासत हन, बुजुर्गां दा अनमोल जखीरा हन। असां दी पच्छेण,
ताकत, शान, कनैं सिरे दा
ताज हन। या फिह्री पिछले जमाने दा कूड़ा कनैं सिरे दा बोझ हन।
जे वरासत हन ता इन्हां
जो कठेरी नें सहेजी नें बच्चयां जो पढ़ाणे कनै सखाणे दी जरुरत है। इकी जिले दे
बच्चयां जो दुअे जिले देयां भासा जो पढाणे कनै सखाणे दी बी जरुरत है। इकी दुअे दी
पहाड़ी गलांगे तां ही असां दियां भासां दा मेल होणा कनै कठेवा भी बणना। मिंजो पक्का
वसवास है कि असां जो अपणी सैह् मानक हिमाचली पहाड़ी भासा शायद इस रस्ते पर चली
नें ही मिली सकदी। जिसा ताईं हर जिल्है आळे जो लगदा कि तिसदी भासा मानक बणी सकदी।
हाली तिकर ता असां दा इस मामले च तिस तारुअे आळा हाल है। जैह्ड़ा कनारे बही नें
कताबा पढ़ी तरना सिखी जा दा कनैं पाणीए ते डरी भी जा दा।
जे लगदा ऐह् भासां बोझा कनै पराणे जमाने दा कूड़ा हन ता कजो
मारनी डुबकी। सटा परांह् हिमाचले च भतेरियां खाईयां, गत कनैं कूणां हन। इस
साह्बे हिंदिया दे पुळे पर बी कितणे की झूटणा। एह् बी ता देसी ही है। सिधी गरेजीया
दी फलाईट ही ठीक रेह्णी।
एह् पुळ, सुरंगा, फलाईटां सब
ठीक हन। पर क्या असां जो एह नीं लगदा कि इसा दुनिया च असां दी भी इक भासा है कनै
तिसा जो भी सैह मान-सम्मान मिलना चाही दा जिस दी सैह् हकदार है। एह् मान सम्मान
असां ही देई सकदे। तिसा जो बोली नें कनैं बच्चयां जो पढ़ाई ने। भले ही इस ताईं
सरकारा ने ही लड़ना पई जाए। सरकारा बी कतांह जाणा जे असां बोलन ता सरकार जो असां
दी भासा बोलणा ही पोणी।
कुशल कुमार
नई भाषा नीति के
हिसाब से बच्चों की प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में होना चाहिए। इस बारे में हिमाचल
शिक्षा बोर्ड के चेयरमैन साहब ने बताया कि हर जिले की भाषा अलग-अलग होने के कारण
हिमाचली पहाड़ी में पढ़ाई नहीं हो सकती है। मुझे लगता है यदि हिमाचल में कुछ और
जिले बन जाएं तो कुछ और नई भाषाएं जन्म ले सकती हैं। हिमाचल के बहुत से लोग इस
मामले में कुछ और ही आगे पहुंचे हुए लगते हैं। उन्हें लगता है कि हर घर की भाषा
अलग होती है इसलिए वे घर से बाहर पहाड़ी बोलते ही नहीं है। घर में क्या बोलते हैं
ऊपरवाला जाने।
वैसे इस मामले में
लोगों को दोष देना ठीक नहीं है। कमोवेश सारे देश में ही अपनी भाषाओं को लेकर हम
में जागरूकता और चेतना का बहुत ही आभाव है। हमारी सोच यह है कि भाषा वह जिससे काम चल जाए। मुझे और मेरे बच्चों को बढ़िया नौकरी और माल मिल
जाए। अमेरिका यूरोप का टिकट मिल जाए तो और चाहिए ही क्या। हमको यह भी लगता है की
हमारी भाषाएं तो अपनी हैं। हमें आती हैं और यह कहां जाएंगी। परंतु हमें यह नहीं दिख रहा है कि हमारी भाषाओं
को हमारे बच्चे पढ़ना तो दूर बोल तक नहीं रहे हैं। यदि यही हाल रहा तो हमारी
भाषाएं हमारे साथ ही खत्म हो जाएंगे। हमें इस बात की कोई फिक्र नहीं है। आज मरे कल
दूसरा दिन।
जहां तक स्कूलों
में मातृभाषा में पढ़ाई की बात है। यह सच है कि हिमाचल में बहुत सारी बोलियां हैं।
ऊंची-ऊंची चोटियां और उनसे भी ऊंचे उनके शिखर हैं। जिन पर बर्फ जमी रहती है। गहरी खड्डें
और नदियां हैं इसलिए इंसानों और भाषाओं दोनों का जादा मिलाप नहीं हो सका। इंसान तो
फिर भी नदियां लांघ जाता था पर भाषाएं नहीं लांघ सकीं। अब तो पुल भी बन गए हैं और
सुरंगे भी खुद गई हैं। इनके बनने से हमारी भाषाएं बढ़ने के बजाय और संकुचित और
सिकुड़ती गई। नदियों पर तो पुल बाद में बने भाषाओं पर पुल पहले ही बन गए थे। उर्दू, पंजाबी का और पिछली सदी में हिंदी का बहुत बड़ा और पक्का
पुल बन गया।
हम इन पुलों से
नदियां लांघते आ रहे हैं। पहाड़ी में पैर भिगोने की जरूरत ही महसूस नहीं हुई और ना
हमने समझी। अब तो हमें हिंदी और पंजाबी के पुलों की इतनी आदत हो गई है कि कभी इनसे
उतरता पड़ जाए तो पहाड़ी की जमीन पर पैर टिकते ही नहीं है। शहरों की तरह हमने स्काईवॉक बना लिए हैं। हम
उनमें ही झूलते रहते हैं।
सोचा जाए तो इससे
बचकाना तर्क क्या हो सकता है कि हर जिले की भाषा अलग-अलग है। यदि एक होती तो
पढ़ाते। यहां यह सवाल पैदा होता है कि भाषाएं बहुत और अलग-अलग हैं तो क्या इन्हें
पढ़ाने और आगे बढ़ाने की जरूरत ही नहीं है। इन्हें अपने हाल पर मरने के लिए छोड़
देना चाहिए। क्या यह नीति ठीक है। सबसे बड़ी बात यह है कि यह जो भी अलग-अलग हैं।
यह दरअसल हैं क्या। हमारी नजरों में इनका मूल्य क्या है। यह हमारी विरासत हैं।
बुजुर्गों का अनमोल जखीरा हैं, हमारी पहचान, शक्ति, शान और सिर का
ताज हैं या फिर पिछले जमाने का कूड़ा और सिर का बोझ हैं।
यदि विरासत और
धरोहर हैं तो इन्हें सहेजने बच्चों को पढ़ाने और सिखाने की जरूरत है। एक जिले के बच्चों को दूसरे जिले के भाषा को पढ़ाने और सिखाने
की और भी ज्यादा जरूरत है। एक दूसरे की पहाड़ी बोलेंगे तो हमारी भाषाओं का मेल
होगा और हमें जिसकी तलाश है। वह हमारी मानक हिमाचली पहाड़ी भाषा शायद इस रास्ते पर
चलकर ही मिलेगी। जिसके लिए हर जिले वाले को यह लगता है कि उनकी भाषा ही मानक भाषा
बनने की हकदार है। अभी तक तो इस मामले में हमारा हाल उस तैराक जैसा है। जो किनारे
पर बैठकर किताब पढ़ कर तैरना सीख रहा है और पानी से डर भी रहा है।
हमें यदि यह लगता
है कि यह भाषाएं बोझ और पुराने जमाने का कबाड़ हैं। तो हिमाचल में बहुत सारी
खाईयां और गड्ढे हैं। फेंक दो किसी कोने में। इस हिसाब से हिंदी के पुल पर भी कितना झूलना सीधी अंग्रेजी
वाली फ्लाइट ही ठीक रहेगी।
यह पुल, सुरंगें फ्लाईट सब ठीक हैं। पर क्या हमको यह नहीं लगता है
कि इस दुनिया में हमारी यह जो भाषा है। इसको भी वह मान सम्मान मिलना चाहिए। जिसकी हर
भाषा हकदार होती है और यह हमारी है इसलिए इसे यह मान सम्मान हम ही दे सकते हैं।
इसे बोल कर बच्चों को सिखा और पढ़ा कर। भले ही इसके लिए सरकार से लड़ना पड़ जाए। सरकार भी कहां जाएगी अगर हम बोलेंगे तो सरकार को
भी हमारी भाषा बोलना ही पड़ेगी।
कुशल कुमार
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बड़ा जबरजङ्ग बाण बर्खा करीत्ती है।
मात भासा दीयाँ हिक्का ते उट्ठीयाँ
डूड्डां कनै कीरने सुण्होणा लगी पैये।
धौलाधारा दीया हिक्का दी पीड़ कळाई पैयी।
म्हाचले दे उच्चेयाँ शिखरां दे हियूँयें तोदे बोल्ली
पैये।
म्हाचले दी धरतीया दा हिल्लण म्हसूस होआ दा।
हिन्दी तां पैह्लैं ई पैह्र सवेला दी
सड़कां च रुळदी सुज्झा दी थी,
कार्पोरेट जगत दीयाँ सीह्स्से दीयाँ विल्डिन्गां दे
अन्दर हिन्दीया जो जाणे दी इज़ाजत नी है।
हिन्दी भाषा दी तौहीन कुनी नी दिक्खी हुँगी।
आजाद भारत माता दींयाँ हाक्खीं ते परल परल अथरूआँ दी
जेह्ड़ी धार बःगीयो सैः अज्ज कुसी जो नी सुज्झा करदी।
मुम्बई ते अज्ज जेह्ड़ा कुशलकुमार होरां म्हाचलीया दा
वेदना गीत गाया है, तिनी हाक्खीं ते
पाणी कड्ढी ता है।
कुशल कुमार जी दे प्हाड़ी प्रैमे जो लक्ख -लक्ख वन्दे।
तेज कुमार सेठी
Aapki soch se main
sehmat hoon...agar hum apne traditions ko follow nahi karenge toh woh hamari
peedhi tak hi seemit reh jayegi....bhasha har tradition ki mul pehchaan hoti
aur ek dharohar hai jo hamare bujurgon se mili hai aur humne ise bachane ki
nahi sochi toh woh ek din lupt ho jayegi....Punjab main bhi har district main
alag boli boli jati hai magar punjabi literature ek standard banaya gaya
hai...toh yeh ek chhota topic nai hai....agar hum wakai is disha main kuchh
karna chahte hai toh isme bahut soch aur suj bhuj ki zarurat hai warna yeh ek
FB platform par argument ka topic bankar reh jayega....ek example aur den
chahungi ki Tullu bhasha ki koi lipi nai hai wah sirf boli jati hai toh hamein
kafi research ki bhi zarurat hai
अंजली शर्मा
ब्हौत बधिया आदरजोग जी
प्हाड़ी माता दे सब्बो न्याणे माऊ खातर म्हूरे औंगे तांई
किच्छ होणा।
Parshotam Thakur
Bahut badhiya log
apni bhasha bolne ko heenta ki bhabna ke shikar hote hai aur apne hi ghar samaj
se dur how jate hai MR SHARMA ji bahut ache
Parshotam Thakur
वीरेंद्र
शर्मा वीर सोळा आन्ने सच्च गलाया तुसां
कुशल भाई जी
वाह! कुशल जी, तुसां बड़िया कुशलता नै अपणियां जिर्हां
पेश कीतियां। इसा वार्ता च सिर्फ तर्कां दे तीर ही नीं हन, कविता दे सैले डाळू भी झुल्ला जे। व्यंग्य दे ठोह्लू ता तुसां लांदे ही हन
अनूप सेठी
पहाड़ां दी
फुक है पहाड़ी।इसा दा जिन्दा रैहणा़ बड़ा जरूरी है
OM Prakash Rana
Urmila sharam कुशलजी आपकी
बात बहुत सही है ,बोलियां ही विकसित हो भाषा बनती है पर
हम बोलियो का विकास कर ही नहीं पाते, ये हमारी
पीढ़ी की गलती है जो हम अपने बच्चो को अपनी बोलियां सीखाते ही नहीं है । अंग्रेजी
हम सब के सर चढ कर बोलती है ।
Deshraj Sharma भाई वडी वदिया सोच है तुसां दी, कनैं इस पर
जागरूकता लियौणे दी वडी जरूरत है
Jaggu Kondal छैल ग़ल्लाँ
गला़ दे भाई
Ranbir Chauhan Himachalia bina books padhate in 1950s text
books scandals se Yashqant Palace chnkyapuri bna diya congress ne
गौतम शर्मा व्यथित कुशल कुमार जी
तुसां दे नौईं शिक्षण नीति च प्रदेसक भाषां बोलियां च पढ़ाणे बारे हि.प्र स्कूल
शिक्षा बोर्ड दा फैसला जे हिमाचले च कोई इक बोली जां भाषा नी जिसजो म्हाचले च
शिक्षण माध्यम बणाया जाए ।जिदी तिक्कर मेरी जाणकारी है ,नौईंयां शिक्षण नीतिया च एह गलाया जे विद्यार्थियां जो
पढ़ाणे ताईं अध्यापक क्षेत्रीय भाषा बोलियां दा वि बरता करन तां जे विद्यार्थी गूढ़
जां कठन ज्ञाने सरलता ने समझी सकन ।
तित्थू एह नी लिख्या जे कुसी इकसी बोलिया जां क्षेत्रीय
भाषा रूप जो केन्द्र मन्नी ने तिसा जो पूरे प्रदेसे पर थोपया जाए ।
मेरिया समझा ऐह सोच वि समझा नी औआ दी जे बोर्ड दे अध्यक्ष
हन वि महाचले दे ,हन वि शिक्षा केडर दे विद्वान ,फिरी कैहं अदेआ निर्णय लिया ।इसच बड़ी काहल़ी जां जल्दवाजी
नी करणा चाहिदी थी ।
इसच दो मत नी जे कोई वि बदला जा परिवर्तन स्हांजो सौखा नी
लगदा । असां तिससजो समझणे सोचणे ते पहलैं ही तिलमलाणा लगी पौंदे ।असां बचारदे नी
जे इसा खौहदल़ा दा नतीजा क्या होणा । तुसां अप्पू बचार करा ..
क्या तुसां हिमाचली नी हन ।क्या तुसां महाचले नी रैह्ंदे
।क्या तुसां दा प्रदेस भाषाई आधार पर पुनर्गठित होई ने विशाल हिमाचल नी बणेया
।क्या हिमाचले रे लोकां री सांस्कृतिक, भाषाई
बरासत नी है ।क्या तिसारा ज्ञान अजोकिया पीढ़िया जो अपणियां भाषा बोलिया च देणा
अनैतिक जां अपराध है ।
अगर हिमाचल शिक्षा बोर्ड दा चिंतन अदेआ है तां मेरा इक होर
सुआल है-- -
असां प्रदेस च भाषा ,कला ,संकृति साहित्य अकादमी कजो स्थापित कित्ती ,भाषा.विभाग कजो खडेरया । पिछले दिनां च
हि.प्र.विश्वविद्यालय च.डा यशवंत सिंह परमार विद्यपीठ कजो स्थापित कित्ता ।तित्थू
पहाड़ी महाचली संस्कृति -साहित्य दे सर्टिफिकेट कोर्स परीक्षा ंकजो शुरू कितियां।
प्रदेश भाषा संस्कृति अकादमी च सामान्य परिषद च क्षेत्रीय
भाषां सदस्यां दे मनोनयन दा क्या मतलब ,पहाड़ी
भाषा प्रतिनिधि सदस्य रे मनोनयन दा क्या औचित्य ।ऐह सारी प्रक्रिया नवम्बर 1966 ते लेईने अज्जे तिक्कर निरंतर चलियो फायलां.च ।
मैं ऐह सारे सच अपणे अनुभवे पर लिखा करदा ।जदूं ते अकादमी
बजूद आई तदीं ते जाहलू सरकारा ठीक समझेया मेरा अकादमिया क मनोनयन हुंदा रिहा ।हर
सरकारा दी अपणी रजकाज दी नीति हुंदी ,होणा
भी चाहिदी तां सैः कुछ हटी ने कम्म करै ।नौऐं कीर्तिमान स्थापित होन।पर प्रदेश री
भाषा नीति पर सरकार अज्जे तिक्कर कुछ नी बोली ,एह
चरजे दा विषय जां गल्ल जरूर है ।
मेरा निजि अनुभव है जे 1966--1990रा
समै था जिसच पहाड़ी म्हाचली च कवता ,क्हाणी
,उपन्यास, महाकाव्य
,खंडकाव्य ,नाटक,एकांकी,हर विधा.च
लखोया ,छपेया। तिसते परंत ऐह जोश होल़ैं -हौल़ैं मध्दम होआ
दा ।
इक सुआल होर,..
प्हाड़ी महाचली रा बरोध अजोकी मसला नी। इस विषय पर जाह्लू वि को गल सरैं चढ़ना लग्गी ताह्लू
ही सचिवालय रे गलियारे इसरी चर्चा रा विषय बणे। ग्याल़िया -पच्छयाल़िया ते सीगे दियोए कने भखियो
-मगियो अग्ग तित्थू दी तित्थू दबोंदी रही।
गल्ला दा मता बखूर पाणे दी सार्थकता तां लगदी जे कोई सुणे
तां। कदी -कदी एह वि सुणदे रैह सरकारा संबंधत अधिकारियां ते प्हाड़ी भाषा बारे राय
वि पुच्छी तां फायलां पर सायद इतड़ा क लखोया होणा जे इस विषय को अभी रहने दीजिये।
सरकारा तां सैह गल्ल मनणी जेह्ड़ी सचिवालय री प्रक्रिया ने
मुख्य मंत्री होरां बाहल पुजणी। इसते साफ जाहिर हुंदा जे पहाड़ी म्हाचली री पैरबी
धरातली महकमेआं ते नी होई।
खीरले सुआले ने इक निवेदन है जे अजोकिया जा वर्तमान सरकारा
जो बणेया काफी टैम होई गिया ।जित्थू होर मसले हल होआदे तित्थू इसा समस्या पर वि गल्ल
होणा चाहिदी।इस करी
अकादमिया रिया सामान्य परिषदा दी मीटिंग होणा चाहिदी। अकादमिया दे फैसले भी इकतरफा नी होई करी मनोनीत
सदस्यां साहमणे रखोणे कने तिन्हां री सर्वसमतिया ने मंजूरी होणा संविधानिक. है।
अकादमी रे सचिव डा कर्मसिंह भी इसरा प्रस्ताव माननीय
मुख्यमंत्री जो भेजन।
डा गौतम शर्मा व्यथित
पहाड़ी भाषा प्रतिनिधि सदस्य
हि.प्र भाषा ,कला ,संस्कृति अकादमी ,94181-30860
धन्यवाद डॉ
गौतम व्यथित जी। तुसां दा सुआल इकदम दरुस्त है। भासाँ दे मामले च सरकारां दा रविआ ढेंदा
पोंदा ही रिहया। मिंजो लगदा जे जनता चाहे ता सरकार नठठी नीं सकदी। सरकारां वाल ता
असां अर्जियां लांदे ही ओआ दे कनैं। नौई शिक्षा नीति इक आखरी मौका है असां दिया
हिमाचल पहाड़ी भासा जो याणयां दी शिक्षा च शामल करने कनैं पहाड़ी जो हिमाचल समाज
दी मुखधारा च अणने दा। समाज जेहड़ा अपणिया भसा जो भुलदा जा दा तिसजो भी इक ठोहलु
लाणे दी। पर सारयां जो जोर लाणा पौणा।
Anup Sharma मेरा एक सवाल है। हिमाचल वाले कहते
है।कि हिमाचल मे अलग अलग भाषाए है भाषाए तो हर राज्य मे अलग अलग ही होती है।जेसे
महाराष्ट्र मै भी भाषाए अलग अलग है।पर उन्होंने एक भाषा मराठी बनाई है।तो हम क्यों
नही बना सकते।
अजय शर्मा क्या हिमाचली बच्चे जो हक नी कि सैं पूरे देश
बीच रोजगार हासिल करण. पहाड़िया पढ़ी करी रोजगार कूथ्थू होणा।
बाहर रही करी उपदेश देना ठीक है। तूस्सा अपने बच्चे क्या पहाड़िया विच पढ़ाए। अगर नी
त क्यूँ। तुसां दे अपने
बच्चे जो अपना भविष्य बनाने दा हक है ता बाकी क्या मूर्ख समझ्यौ
अजय शर्मा जी इस सोचा नैं ही ता लड़ाई है। मुंबई रही नैं बी अंग्रेजी या
दे दौर च मैं अपणी मुन्नी हिंदिया च पढ़ाई। इस कारण तिसा जो हिमाचल तिकर गल्लां
सुणना पईआं। समाजे दी इसा सोच दे कारण इक मानसिक गठा नैं बी लड़ना पिया। पर सैह अज
देसे दी इक सबते बड्डी अंग्रेजी दां कंपनी टी सी एस च नौकरी करा दी। भासा इक संचार
कने संवाद दा माध्यम ता होंदी पर रोज़गार ने इतणा संबंध नीं है। जितणा असां बणाई
तिया। इसा सोच दे कारण हिंदिया समेत असां दियां सारियां भासाँ दी बेंड बजी गईयो।
इस मसले पर अगले विडिओ च गल करगे। इतणा कि गलाणा चाह्न्दा एत्थू मराठी, मलयालम, तमिल होर मतियाँ सारियां भासाँ बोलणे
कनैं पढ़ने ते बाबजूद सैह बच्चे हिंदिया कनैं अंग्रेजीया च असां दे पहाड़ी नीं
बोलणे कनैं पढ़ने वालयां बच्चयां ते गांह नीं होंगे ता पचांह बी नी हन। पर पता नीं
असां जो एह् कैंह् लगदा कि असां दे बच्चयां पहाड़ी बोली पढ़ी या हिदिया च पढ़ी नैं
पचांह रही जाणा। हालांकि एह् इक बेह्म कने फेसन ते जादा किच्छ नीं है। बेहेमां दा
कोई लाज नीं होंदा।
Anup sharma असल बात ऐसी है।कि अजय जी बात समझे नही
है।और कुशल कुमार समझा नही पा रहे है।बात ऐ नहीहै।बात हैं। कि आज कल हिमाचल मै ही
पहाड़ी नही बोली जा रही है। पहले मुंबई एक पहाड़िया दुसरे पहाड़ीए से मीलता था।तो
पहाडी मै बात करता था। लेकिन अब आज कल के नई पङी पहाडी मै बात नही करती।हिमाचल मै
तो बात अलग है वहा तो माता पिता ही हिंदी मै या अग्रेजी मै बात करते है।अपनी भाषा
को छोडते जा रहे है।कुशल जी सिर्फ अपनी भाषा सलामत रहे इसलिए बोल रहे है।उनका मतलब
ऐ नही है।कि बाकी विषय को छोड दो वो आपको पहाडी भाषा से कुछ बङी पोस्ट देना या
दीलाना नही चाहते।कि हमारी पहाडी बची रहे।वरना ऐक दिन ऐसा आयेगा हमारी पहाडी गायब
हो जायेगी और ईसके लिए हम जबाबदार होगे। बाकी जैसी जिसकी सोच।
अजय
शर्मा पढ़ाई पहाड़ी में होगी तो ग़लत है हाँ
बोलचाल की भाषा हो ये मुमकिन है
Anup sharma स्कुल मै जब पहाडी पढ़ाई जाएगी तभी तो
लोग समझेंगे और ऊसको महत्व देगे।जेसे हिमाचल मे संस्कृत हे उर्दू हे वेसेही पहाडी
शुरूआत करने से क्या फर्क पड़ता है
Madan Mohan sharma भाषा कंनैं बोलिया च फर्क तां है, --- कुशल जी तुहां
बिल्कुल ठीक गलाआ् करा दे, -- अपर सियाप्पा तां एह़् नां, जे "" घ़ंटिया तां सारे लेई औआ दे, - अपर तां बंह्ंन्नैं कुंण्ं--"" तुहां क्या बोलंणां, -- मैं तां इस कंम्में तांंईं , -- पिचलेंयां पंजांह्ं साल्लां ते ऐ पिच्छैं पेह़्या, --- ओ सणाई ई कोई नीं-- , हुंण्ं वी रंगाड़ पह़्या घ़ह़रैं---, मैंह्ंमीं तां सोच्ची लेह़्या, -- जे मर्जी सैह़् करै कोई, --- मैं वी नीं ईं
पचांह्ं ह़टंणां---
मदन मोहन जी। ठीक
गल्ला दे तुसां। रंगाड़ ही ऱगाड़ है कनैं अपणी-अपणी ढफळी है। मिंजो लगा दा एह् नौंई शिक्षा
नीति इक मौका है पर चौका नीं लगणा।
Bhatt
Hemantkumar आपकी चिंता वाजिब है कुशलजी। आप जैसे कवि , लेखक
, चिंतक
को अपनी मातृभाषा की उपेक्षा होने पर व्यथित होते देख हर बुद्धिजीवी के मन में एक
प्रश्न तो जरूर उठेगा। मैने कभी अपनी बोली में कविताएं लिखना प्रारम्भ किया था
लेकिन इसी बोली के प्रबुद्ध वर्ग ने मेरे प्रयास को दुत्कार दी। खैर, कविता
लिखना मेरा व्यक्तिगत मामला था लेकिन मुझे इस बात की चिंता थी कि मेरे अपने इलाके
के लोग जिन्होंने इसी बोली के साथ जन्म लिया वे इसे ही दुत्कारने लगे। अपनी
मातृभाषा अपनी संस्कृति का प्रतीक होती है। इसका विस्मरण स्वयं को खो देने जैसा है।