पहाड़ी भाषा दी नौई चेतना .

Monday, January 4, 2021

यादां फौजा दियां

 



फौजियां दियां जिंदगियां दे बारे च असां जितणा जाणदे, तिसते जादा जाणने दी तांह्ग असां जो रैंह्दी है। रिटैर फौजी भगत राम मंडोत्रा होरां फौजा दियां अपणियां यादां हिंदिया च लिखा दे थे। असां तिन्हां गैं अर्जी लाई भई अपणिया बोलिया च लिखा। तिन्हां स्हाड़ी अर्जी मन्नी लई। हुण असां यादां दी एह् लड़ी सुरू कीती है, दूंई जबानां च। पेश है इसा लड़िया दा त्रीआ मणका।  

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शहीदां दियां समाधियां दे प्रदेशे च


हैलीकॉप्टर दे अंदर लद्दोयो ईंधण दे बैरल बड़िया पक्याइया नै बंधोयो थे।  तित्थु बैठणे तांईं कोई सीट नीं थी।  मैं कनै मेरा साथी जुआन बैरलां कन्नै खड़ोई गै। असां जो पहले ते ही बस कनै ट्रैन च खड़ोई करी सफर करने दी आदत जे थी।  इतणे च ही इक-इक करी नै  हैलीकॉप्टर दे चालक दल दे मेंबर उप्पर चढ़े कनै केबिन दा दरवाजा खोली करी सारे अंदर चली गै पर असां दोयो तित्थु दे तित्थु ही खड़ोई रैह। थोड़िया कि देरा परंत केबिन दा दरवाजा अंदरा ते फिरी खुल्लेया कनै हैलीकॉप्टर दे कमांड़र होरां असां जो अंदर औणे दा इशारा कित्ता।  दरअसल सैह् असां दे अंदर ओणे जो निहागा दे थे पर जाह्लु असां अपणे आप अंदर नीं गै तां तिन्हां जो असां जो सदणा पिया। 

अंदर जाई करी असां दिखेया हैलीकॉप्टर दा पायलट केबिन इक खासे-भले कमरे जितणा था कनै एयर कंडिशन्ड भी था। जुलाई महीने दी तेजपुर (असम) दिया चिपचिपी गर्मिया ते अराम मिल्लेया।  केबिन च वायु सेना दे दो पायलट, इक नेविगेटर कनै इक फ्लाइट इंजीनियर अपणे-अपणे कम्मे च मगन थे। एम आई-26 दुनिया दा अज्ज तिकर बणेह्या सब ते बड्डा हैलीकॉप्टर है।  असां दे मुल्खें तद्कणे सोवियत यूनियन ते 1986-1989 दे दौरान चार एमआई-26 हैलिकॉप्टर खरीदे थे। 20,000 किलो ग्राम भार चुक्की नै उड़णे दी ताकत रखणे वाळे एह् हैलीकॉप्टर  माड़े वक़्तां च देश दे बड़े कम्म औंदे रैह्।  1999 दे कारगिल जंग च म्हारे तोपखाने दियां बोफ़ोर तोपां इक अहम रोल नभाया था। तिन्हां तोपां जो तोड़-तड़ाक उच्चे-उच्चे पहाड़ां च लड़ाइया दी जगह पजाणे दा कम्म इन्हां हैलीकॉप्टरां ही कित्ता था।  इन्हां ते इक हैलीकॉप्टर 2010 च क्रैश होई गिया था कनैं बाकी दे तिन्न हुण उड़णे जोगी नीं रैह्यो। सैह् ओवरहॉल तांईं रूस भेजे जाणे दिया निहाळा च हन।  इन्हां दी जगह भारत दी वायुसेना च अमरीका ते 2019 च आयो 15 'चिनूक' हैलीकॉप्टर शामिल कित्ते गै थे।  'चिनूक' एमआई-26 दे मुकाबलें बड़ा फुर्तीला कनै घट खर्चीला है पर तिस दी भार चुक्कणे दी ताकत एमआई-26 ते तकरीबन अद्धी है। 'चिनूक' एमआई-26 सांहीं भारी तोपां, ट्रक, बुलडोज़र बगैरा नीं चुक्की सकदा। 

एमआई-26, जिस च असां सुआर थे, अरुणाचल प्रदेश देयां पहाड़ां पासें हौळें-हौळें बद्धदा जाह्दा था।  उचे-उचे पहाड़ां दियां चोटियां गास उड़णे दी गल्ल सोची करी बदनैं च खुशिया नै झुरमुरी औआ दी थी। हालांकि मिंजो उचाइया ते डर लगदा पर पता नीं तैह्डी मेरे मनै जो किञा विसुआस होई गिया था भइ कि तिस हैलीकॉप्टर च कोई खतरा नीं था।  उचाइया दा डर मनै दी कमज़ोरी होंदा पर मैं अज्ज तिकर इसा कमजोरिया ते पार नीं पाई सकेया। असां दा उड़ण-खटोळा (एमआई-26) तौळा ही अरुणाचल प्रदेश दे इक पहाड़ी नाळे च जाई बड्डेया।  दूंहीं पासें उचे-उचे पहाड़ां दे विच डुग्घी संगड़ी खाई च उड़ण-खटोळा घरघर्रांदा होया कनै बड्डे-बड्डे सपड़ां ते बचदा-बचांदा, हौआ च सरकदा अग्गें बद्धदा जाह्दा था। मिंजो पहली बरी मलूम होया था कि आमतौर पर उड़न-खटोले पहाड़ां दियां चूंडियां पर उड़णे दे बजाय नदी-नाळेयां दे सहारें चलदे हन।  अद्धे-पौणे कि घण्टे परंत उड़न-खटोला धरती पर उतरेया। हाँ जी, सैह् मेरी मंजल 'रूपा' ही था। 

थल्लें उतरदे ही मिंजो हल्की-हल्की ठंड लगणा लगी पई थी।  मेरे साथी जुआन जो 'रूपा' ही जाणा था पर मिंजो 'वीरपुर'  जाणे दा हुक्म मिलेह्या था। मैं खड़ोई नैं चोंह् पासें नज़र मारी करी तिसा जगह दा जायजा लिया था।  'रूपा' टेंगा-चु नदिया दे कंह्डे दो उच्चियां-उच्चियां तंग धारां दे विच बसाइयो इक निक्की जेही फौजी छाऊणी था।  तिसदे सामणे नदिया पार सिविलियन बसदी सुज्झा दी थी।  नदिया पर इक पुळ था।  तित्थु मेरी नज़र थोड़ी दूर उप्पर टेंगा-चु दे कनारें इक सफेद समाधिया पर पई।  ये 1962 दी  भारत-चीन जंग च शहीद होए ब्रिगेडियर होशियार सिंह दी समाधि थी।  तिन्हां चीनियां कन्नैं  लड़दे-लड़दे रूपा दे नेड़ें अपणे प्राणा दी औह्त दित्ती थी। ताह्लू मेरियां हाखीं च गोरमिंट हाई स्कूल सरी-मोलग दी सन् 1966 दी छटी क्लास दे कमरे दिया कंधां पर लगेयो 1962 दी जंग दे शहीदां दे फोटू तरी गै थे। तिन्हां च ब्रिगेडियर होशियार सिंह दा फोटू भी था। तिन्हां फोटुआं उप्पर छप्पोया था, "वह मरे कि भारत जीये"  मैं बड़िया सरधा कनै सावधान होई करी तिन्हां जो सलूट कित्तेया कनै फिरी 'वीरपुर' जाणे तांईं फौजी गड्डिया दिया तलाशा च अक्खें-बक्खें दिक्खणा लगी पिया था।  उन्हां वक़्तां च तिन्हां जगहां च प्राइवेट गड्डियां नीं सुझदियां थियां। तित्थु  चाणचक इन्फैंट्री यूनिट दी इक जीप आई नै रुकी।  मैं जीप डरैवर जो दस्सेया कि मिंजो 'वीरपुर' जाणा था कनै मिंजो पता नीं की 'वीरपुर' कुस पासें पोंदा था, उप्परा वखी कि थल्ले वखी। जीप डरैवरें मिंजो दस्सेया भई कि तिन्नी 'टेंगा' जाणा था कनै 'वीरपुर' 'निचलें पासें  टेंगा दे रस्ते च पोंदा था। मैं जीपा च बैठी गिया था।  'रूपा' च उस टैमें 5 पर्वतीय तोपखाना ब्रिगेड दा हैडकुआटर होंदा था कनै बॉर्डर पर तैनात मेरी यूनिट तिसदे अंडर औंदी थी।  मैं 'रूपा' , अपणे उप-कमान अफसर दे हुक्म दे मुताबिक, अपणा नां कुसी जो नीं दस्सेया था। 

जीप टेंगा-चू दे कंह्डे-कंह्डे टेढ़िया-मेढ़या सड़का पर दौड़दी जाह्दी थी।

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शहीदों की समाधियों के प्रदेश में


हैलीकॉप्टर के अंदर लदे ईंधन के बैरल अच्छी तरह बंधे हुए थे। वहां बैठने के लिए कोई सीट नहीं थी।  मैं और मेरा साथी सैनिक बैरलों के साथ खड़े हो गए।  हमें बस और ट्रेन में खड़े हो कर सफर करने की आदत जो थी।  इतने में ही एक-एक करके हैलीकॉप्टर के चालक दल के सदस्य ऊपर चढ़े और केबिन का दरवाज़ा खोल कर सभी अंदर चले गए।  हम दोनों वहां के वहां ही खड़े रहे। थोड़ी देर बाद अंदर से केबिन का दरवाजा खुला और हैलीकॉप्टर के कमांडर ने हमें अंदर आने का इशारा किया।  दरअसल वो हमारे अंदर आने का इंतज़ार कर रहे थे पर जब हम अपने आप अंदर न गए तो उन्हें हमें बुलाने आना पड़ा। 

अंदर जा कर हमने देखा हैलीकॉप्टर का पायलट केबिन एक अच्छे ख़ासे कमरे जितना था और वातानुकूलित था।  जुलाई महीने की तेजपुर (असम) की चिपचिपी गर्मी से राहत मिली। केबिन में वायु सेना के दो पायलट, एक नेविगेटर और एक फ्लाइट इंजीनियर अपने-अपने काम में मग्न थे। एमआई-26 को दुनिया का आज तक सबसे बड़ा हैलीकॉप्टर होने का गौरव प्राप्त है।  हमारे देश ने भूतपूर्व सोवियत यूनियन से 1986-1989 के दौरान चार एमआई-26 हेलीकाप्टर खरीदे थे।  20,000 किलोग्राम सामान उठा ले जाने की क्षमता वाले ये हैलीकाप्टर संकट के समय देश के बहुत काम आते रहे। 1999 के कारगिल युद्ध में हमारे तोपखाने की बोफ़ोर तोपों ने बड़ी अहम भूमिका निभाई थी।  उन तोपों को उठा कर हवाई मार्ग से आनन-फानन उस पर्वतीय युद्ध क्षेत्र में पहुंचाने वाले ये एमआई-26 हैलीकॉप्टर ही थे। उन चार हैलीकॉप्टरों में से एक 2010 में क्रैश हो गया था और बाकी के तीन अब उड़ान भरने के काबिल नहीं रहे। वो ओवरहॉल के लिए रूस जाने की प्रतीक्षा में हैं।  इनकी जगह भारतीय वायुसेना में अमरीका से 2019 में आए 15 चिनूक हैलीकॉप्टर शामिल हुए थे।  'चिनूक' एमआई-26 की तुलना में बड़ा फुर्तीला और कम खर्चीला है पर उसकी भार उठाने की क्षमता एमआई-26 से लगभग आधी है।  'चिनूक' एमआई-26 की तरह भारी तोपें, ट्रक, बुलडोज़र इत्यादि नहीं उठा सकता है। 

एम आई- 26 हैलीकॉप्टर, जिसमें हम बैठे थे, अरुणाचल प्रदेश के पहाड़ों की ओर मंथर गति से बढ़ता जा रहा था। ऊंचे-ऊंचे पर्वत शिखरों पर उड़ने की कल्पना से रोमांच की अनुभूति हो रही थी। हालांकि मुझे ऊंचाई से डर लगता है पर उस दिन पता नहीं कैसे मेरे मन को विश्वास हो गया था कि उस हैलीकॉप्टर में कोई खतरा नहीं था। ऊंचाई का डर मन की कमजोरी होता है पर मैं आज तक इस कमजोरी से छुटकारा नहीं पा सका। शीघ्र ही हमारा उड़न-खटोला असम के मैदानों को पार कर अरुणाचल प्रदेश के एक पहाड़ी नाले में प्रवेश कर गया। दोनों और ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों के बीच में गहरी संकरी खाई में उड़न-खटोला घरघर्राता हुआ चट्टानों से बचता-बचाता हुआ मानो हवा में रेंगता हुआ आगे बढ़ता जा रहा था। मुझे पहली बार पता चला था कि सामान्यत: उड़न-खटोले पर्वत शिखरों पर जाने के बजाय नदी-नालों के सहारे अपनी मंज़िल की ओर बढ़ते हैं। आधे-पौने घंटे के बाद उड़न-खटोला ज़मीन पर उतरा। जी हां, वो मेरी मंज़िलरूपाही था। 

नीचे उतरते ही मुझे ठंड का अहसास होने लगा। मेरे साथी सैनिक को रूपा ही जाना था पर मुझेवीरपुरजाने की हिदायत मिली थी। मैंने चारों ओर नज़र दौड़ा कर उस इलाके का जायजा लिया। रूपा टेंगा-चू नदी किनारे दो ऊंची-ऊंची तंग पर्वत श्रृंखलाओं के बीच बसाई गई एक छोटी सी सैनिक छावनी था। उसके सामने, नदी के उस पार, सिविलियन बस्ती दिख रही थी। बीच में नदी पर एक पुल था। तभी मेरी नज़र थोड़ी दूरी पर स्थित टेंगा-चु (नदी) के किनारे एक छोटे से धवल स्मारक पर पड़ी। ये 1962 भारत-चीन युद्ध में शहीद योद्धा ब्रिगेडियर होशियार सिंह की समाधि थी। उन्होंने चीनियों से लड़ते-लड़ते रूपा में अपने प्राणों की आहुति दी थी। मेरी आँखों में अपने राजकीय हाई स्कूल, सरी-मोलग की छटी कक्षा (1966) के कमरे की दीवार पर लगे 1962 के प्रमुख शहीदों के छाया चित्र तैर गये। उनमें ब्रिगेडियर होशियार सिंह का छाया चित्र भी था। उन छाया चित्रों पर लिखा था "वह मरे कि भारत जीये"। मैंने श्रद्धा से समाधि को विधिवत सेल्यूट किया और वीरपुर जाने के लिए किसी सैनिक वाहन की तलाश में इधर उधर नज़रें दौड़ाने लगा। उस समय उस क्षेत्र में प्राइवेट वाहन नज़र नहीं आते थे।  तभी संयोगवश वहां इन्फेंट्री यूनिट की एक जीप आकर रुकी। मैंने जीप चालक से कहा कि मुझे वीरपुर जाना था और मुझे पता नहीं वो किस तरफ पड़ता था ऊपर की ओर या नीचे की ओर। चालक के बताने पर कि वह टेंगा जा रहा था और वीरपुर रास्ते में पड़ता था, मैं जीप पर सवार हो गया। रूपा में उस समय 5 पर्वतीय तोपखाना ब्रिगेड का मुख्यालय हुआ करता था और अग्रिम पंक्ति में तैनात मेरी यूनिट उसी के अधीन थी। मैंने अपने उप-कमान अधिकारी के निर्देशानुसार अपना नाम रूपा में किसी को नहीं बताया था। 

जीप टेंगा चु के किनारे-किनारे सर्पाकार सड़क पर दौड़ती जा रही थी।

भगत राम मंडोत्रा हिमाचल प्रदेश दे जिला कांगड़ा दी तहसील जयसिंहपुर दे गरां चंबी दे रैहणे वाल़े फौज दे तोपखाने दे रटैर तोपची हन।  फौज च रही नैं बत्ती साल देश दी सियोआ करी सूबेदार मेजर (ऑनरेरी लेफ्टिनेंट) दे औद्धे ते घरे जो आए। फौजी सर्विस दे दौरान तकरीबन तरताल़ी साल दिया उम्रा च एम.. (अंग्रेजी साहित्य) दी डिग्री हासिल कित्ती। इस ते परंत सठ साल दी उम्र होणे तिकर तकरीबन पंज साल आई.बी. , 'असिस्टेन्ट सेंट्रल इंटेलिजेंस अफसर' दी जिम्मेबारी निभाई।

लिखणे दी सणक कालेज दे टैमें ते ही थी। फौज च ये लौ दबोई रही पर अंदरें-अंदरें अग्ग सिंजरदी रही।  आखिर च घरें आई सोशल मीडिया दे थ्रू ये लावा बाहर निकल़ेया।

हाली तिकर हिमाचली पहाड़ी च चार कवता संग्रह- जुड़दे पुल, रिहड़ू खोळू, चिह्ड़ू-मिह्ड़ू, फुल्ल खटनाळुये दे, छपी चुक्केयो। इक्क हिंदी काव्य कथा "परमवीर गाथा सेकंड लेफ्टिनेंट अरुण खेतरपाल - परमवीर चक्र विजेता" जो सर्वभाषा ट्रस्ट, नई दिल्ली ते 'सूर्यकांत त्रिपाठी निराला साहित्य सम्मान 2018' मिली चुकेया।

हुण फेस बुक दे ज़रिये 'ज़रा सुनिए तो' करी नैं कदी-कदी किछ न किछ सुणादे रैंहदे हन।