पहाड़ी भाषा दी नौई चेतना .

Monday, November 28, 2022

हिमाचली पहाड़ी चर्चा

 


दो दिन पैह्लें दिव्य हिमाचल टीवी नै चौंह् लेखकां दी चर्चा कराई भई नौइंया सरकारा ते हिमाचल दी कुण देह्यी भाषा मंगणी।  गणेश गनी, कृष्ण महादेविया कनै आशुतोष गुलेरी  होरां अपणे अपणे वचार रखे। कुलदीप चंदेल होरां कनेक्ट नीं होई सके। चर्चा च गिरह फिरी होह्थी आई नै पयी गई भई कुण कदेही भाषा। चर्चा ते परंत आशुतोष गुलेरी कनै यतिन शर्मा होरां अपणे वचार फेसबुक पर रखे। असां जो लगा इन्हां दूंई दे वचारां जो एह्थी रखी देइए ता गल्ला दे दो लग-लग बक्ख इक्की जगह आई जाह्ंगे। उम्मीद रखिए एह् बक्ख गांंह् चल्ली नै कट्ठे होई जाह्ंगे या इक्की दरयाए दे दो कनारे बणी नै बगदे रैंह्गे। आखर च दिव्य हिमाचल दी चर्चा दा लिंक भी है। 


हिमाचले जो अपणी इक भासा मिलणा चाहिदी  

आशुतोष गुलेरी 

सोह्णा बांका देश आसांदा सोह्णे बांके माह्णू

प्हाड़ां दी क्या गल्ल सुणा मैं जिह्यां सुच्चे माह्णू।।

प्हाड़ कनैं माह्णू? हाँ-जी, आसांरे प्हाड़ माह्णुआं सैंह्यी तां ह्न। सुरजे दिआ पैह्लिआ किरणा-ने उठदे। अपणा रूप सुआरदे। घाटियां घुआरदे। घरे दे बड्डे बुजुर्गे सैंह्यी लौह्के माह्णुआं ठुआंदे, कम्मे करने दी परेर्णा देई करी, जिह्यां बुजुर्ग बेह्यी करी होण-गुजारी दिखदा रैंह्दा, पैह्रा दिंदा, तिह्यां-ई साःह्ड़े प्हाड़ टिकी ने बैठेओ कनैं म्हारा पैह्रा करा करदे।

सांझकिआ बतरा सुरजे दे रंगा ने संगरोइओ छैळ पळोढ ओढी करी नेह्रे पेई चानणियां दी लोई फेरी पैह्रे बेह्यी जांदे।

पहाड़े दा जीणा, सच्च सुर्गे दा जीण है। कुह्ण हुंगा जेह्ड़ा पहाड़े दा जीण नीं जीणा चांह्गा!

देःदेह्यी राखी करने दे बदले पहाड़ आसां ते क्या मंगा करदा? किछ नीं। बुजुर्गां दी एह्यी पणछाण है। दिल भी बड्डा कनैं जिगरा भी बड्डा। पहाड़ जागेओ। अपण अहां खबनीं कुसा निंदरा सुत्तेओ!

आसांरी बोली बखरी, जीणा-लाणा बखरा। एह्यी कारण बणेआ था कि लोकां रौळा रप्पा पाया कनें सूबा बखरा करी-नै अपणा इक्क राज्य मंगेआ। इतणे साल होई बीती गै, राज्य बणेआ, भाषा नीं बणी सकी। राखिआ व्हाळा बुजुर्ग बैठेआ, दिखा करदा। क्या कुछ हुंदा। क्या किछ करदे अपके माह्णू। माह्णू सुत्तेओ।

कल दिव्य म्हाचल टीवी व्हाळेआं इक चर्चा करुआई। पहाड़ी बणनी चाइये क नीं?

मैं सोचदा, एह् सुआल ही कैह्जो? जदूं सबनां दा सुपना ही एह्यिओ है कि म्हाचले-जो पहाड़े सैंह्यी अपणी इक भाषा भी मिलणी चाइये, तां अजेहा सुआल पुच्छी करी आसांरा बसुआस कःजो कीलणा! बसुआसे पर ही तां सुपनेआं दा प्हाड़ कैम है।

सुआल उठेआ तां गल्ल भी होणी थी। मितरें गलाया पह्ई भाषा बणना तां चाइदी, पर सोध करने दी जरूरत है। 32 ते ज्यादा बोलिआं ह्न म्हाचले मंह्ज। इन्हां बोलिआं मंह्ज कुःण देई बोली भाषा बणगी? तिसा भाषारा सरूप कजेहा हुंगा।

मैं सोचा करदा... पह्ई 32 छड्डी 64 बोलिआं होन, भाषा कने बोलियां-दा तां आपसी कोई घमचोळ ही नीं है।

जेकर ऐसा हुंदा तां मराठी भाषा नीं बणदी, न फेरी बांग्ला हुंदी। भलेओ बड़ी दूर कैह्जो जाणा, जेकर बोलिआं कनैं भाषा मंह्ज कोई आपसी चौह्दर हुंदी तां डोगरी भी भाषा नीं बणनी थी। मगर एह सारिआं भाषा बणिआं। कनैं इन्हां दे भाषा बणने बाद भी बोलिआं दी सेह्ता पर कोई फर्क नीं पेआ। विदर्भे व्हाळा अज्ज भी अपणे सुरे-च बोला करदा कनैं कोकण व्हाळें अपणी बखरी मिठड़ी तान छेड़िओ।

जेह्ड़ी बोली आसां बोलदे, सेह्यी भाषा बणी जाएं। मगर ऐसा होणे ताईं पैह्ले अपणे बोलेओ पर बसुआस होणा बड़ा जरूरी। भाषा बणाणे ताईं कोई इक्क ही बोली चुकणा मजबूरी नह्यीं। जेकर ऐसा है तां म्हारे मितर होरां दा सुआल जैज था - 'भाषा दा सरूप क्या हुंगा? तिसा भाषा रे शब्द क्या हुंगे?'

मैं जेह्ड़ा सोची करदा, सैह्यी मैं इस स्क्रीना पर लिखा करदा। एह्यी मेरे सोचणे दा सरूप है। एह्यी मेरे जीणे-बोलणे दी बोली है। कनैं जेकर इस लिखेओ जो तुहां भाषा बोलदे, तां एह्यी मेरिआ भाषा दा सरूप समझा। कनैं जे किछ मैं लिखेआ, इस लिखेओ जो जेकर तुहां पढ़ी स:कादे होन, तां एह्यी मेरिआ भाषा दे शब्द ह्न।

जो जिसा बोलिआ मंह्ज सोचा करदा कनैं देवनागरिआ मंह्ज लिखणे दी हिमता करा करदा, सैह्यी भाषा म्हाचली है। इस सोचा पर कुस जो बसुआस नीं है? कनैं जेकर नीं है, तां फीः रौळा एह् नीं है कि कुह्ण जेही बोली भाषा बणगी; खप्प किछ होर ही ब:ह्झोआ करदी।

म्हारी बोलिआंरी जुबान मिठड़ी। म्हारे लोकां दा सुभा मिठड़ा। म्हारी खड्डां, नाळुआं, सोत्तेआं कनैं कुःह्लां-रा पाणी मिठड़ा। म्हारे प्हाड़ां-री हौआ ठंडड़ी। फेरी भाषा बणाणे दी रांह्यी कौड़पण कनैं गर्मौस कःह्जो?

जिसा बोलिआ-च तुहां गला करदे, तिस गलाए जो देवनागरिआ मंह्ज लिखणे जो कुह्ण हत्थ पकड़ा करदा? मेःह्तैं कोई पुछगा कि एह् केह्ड़ी भाषा लिखी मारी तैं, मैं पूरे सुआभिमानेनैं दसगा - “एह् भाषा मेरी जान, मेरा प्राण, मेरे जीणे-मरणे दा सुभा, मेरी आन कनैं मेरे होणे दा सुआभिमान - म्हाचली प्हाड़ी भाषा है।”

हुण कुशंका कि बोलिआं दा क्या हुंगा? बोलिआं जेकर तुहां बोलगे तां बोलिआं चलदिआ रैह्णिआं। जे तुहां बोलणा छडी दिंगे तां टैमें लंह्गदेआं सारे बोलिआं पर विलुप्त होणे ता खतरा बःह्झोणा लगदा। कुल्लू जाई करी दिखा-ला, कितणे-क लोक अज्ज कुलुई बोला करदे? बोलगे तांःह्यी लिखगे।

आशुतोष गुलेरी

मेरी सोच अज्ज भी पक्की है, जे आसां संबाद-सैःह्मति-सौग बणाई करी चल्लण तां म्हाचले जो अपणी भाषा मिलणे-ते कोई रोकी नीं सकदा।

मेरी एह् सोच तितणी पक्की है जितणा पक्का म्हारी राक्खी करने व्हाळा बुजुर्ग प्हाड़ है। इस प्हाड़े-जो आसां एत्थी धौळाधार कुआंदे। कुल्लुआ व्हाळे किछ होर, तां चम्बे व्हाळे कुसी होर नौएं ने इस प्हाड़े दी पणछाण दस्दे। किछ भी कुआ, प्हाड़ प्हाड़ ही रैंह्दा।

तिह्यांई कुलुई गला कि कांगड़ी, म्हास्वी, चम्ब्याळी, कह्लूरी, पंगुआळी, भोटी, कनैं होर किछ भी कुआई लेआ, म्हाचली म्हाचली ही रैह्णी। अस्तित्व भी सैह्यी रैह्णा कनैं सन्मान बद्धणा ही है, घटणे दा तां सुआल ही पैदा नीं हुंदा।

पुखरां कनैं कुआळां लौंःह्गे तां दुनिआ दा नजारा सुजगा। अपणे-अपणे घरां बैठी करी अपणे पांःह्डे टींडेआं दी ठूसां कदूं तिकर सुणाई चलिए।

बैह्सारी गल्ल नीं, प्हाड़ कनैं प्हाड़िआं दी अस्मिता दा सुआल है एह्। आसांरे जीणे-मरने दा कारण, म्हारी मिट्टी कनैं म्हारे प्हाड़ां-रे सुआभिमाने दा सुआल है। जेकर पड़ेसी अपणे पाणिए दे सुआले पर ठा करीने जुआब देई सकदे, तां क्या असां अपणी भाषा नीं मंगी सकदे?

अठवीं अनुसूची कनैं प्हाड़िआ दे बिचकार जेह्ड़ी दूरी है, तिसा दूरिआ जो मुकाणे ताईं साःह्रेआं जो सौगी चलणा ही पौणा।

जय हिमाचल, जय हिमाचली।


किसी एक बोली को भाषा चुना तो शेेेष बोलियों के अस्तित्व पर खतरा  

यतीन शर्मा

पहाड़ी भाषा पर कल दिव्य हिमाचल टीवी में एक चर्चा सुनी। मेरा मत इस बारे कुछ ऐसा है :-

पहाड़ों में बोली जाने वाली बोलियों के समूह को पहाड़ी भाषा कहते हैं। साधारण सी बात है। जबरन इस विषय को जटिल बनाया जा रहा है। एक व्यापक विविधता वाले समूह को सामूहिक रूप से भाषा क्यों नहीं चुन सकते ? ग्रियर्सन, बेली इत्यादि पहले भी ऐसा कर चुके हैं, अब क्या समस्या है ?

इस विषय पर टकराव की स्थिति क्षेत्रीयता के कारण उत्पन्न होती है। यह वैसा ही है जैसे देश की भाषा हिंदी को क्षेत्रीयता के आधार पर बहुत जगह नकारा जाता है। इससे हिंदी का महत्व कम तो नहीं हो जाता! इस कालखण्ड में भारत मे हिंदी मूल भाषा है और देवनागरी इसकी मूल लिपि है। अतः पहाड़ी भाषा की लिपि देवनागरी ही रहनी चाहिए।

पहाड़ी बोलियों को टाकरी में निःसंदेह किसी समय लिखा जाता था, परंतु अब व्यवहारिक रूप से ऐसा सम्भव नही है। मैं बेशक टांकरी पढ़ता सिखाता हूँ। इसे बचाने का प्रयास भी कर रहे हैं। परंतु इसका मतलब यह नहीं कि टांकरी को किसी प्रचलित लिपि पर प्रतिस्थापित किया जाए। इस तरह तो टांकरी से पूर्व की लिपियाँ भी इस दौड़ में आ जाएगी। दूसरा अधिकतर जनता अभी टाकरी नही जानती। पहले व्यापक स्तर पर लोगों को इससे अवगत करवाना होगा। उसके बाद ही इसे दूसरी वैकल्पिक लिपि के रूप में किसी हद तक प्रयोग किया जा सकता है। वह भी तब, जब इसमे बहुत से संशोधन होंगे। निरन्तर प्रयासरत रहने पर इसे अपने 200 साल पहले वाले रूप में आने के लिए अभी लगभग 50 से 100 वर्ष का समय और लगेगा। अतः टांकरी वैकल्पिक लिपि के रूप में पहाड़ों में प्रयोग की जा सकती है। देवनागरी मूल लिपि रहे तो बेहतर।

किसी एक बोली को परिवर्तित रूप में पहाड़ी भाषा के रूप में चुनने से दूसरी बोलियों के अस्तित्व समाप्त होने का ख़तरा बन जाएगा। जैसे ही किसी एक भाषा को पूरे क्षेत्र की भाषा घोषित किया जाएगा तो वह सबके लिए महत्वपूर्ण हो जाएगी और भावी पीढ़ी उसी भाषा को अधिमान देगी। ऐसे में कनाषी जैसी विलुप्तप्राय बोलियां एकदम से समाप्त हो जाएंगी।

हम अपनी पहाड़ी बोलियों को एक बनाने के लिए पंजाब का उदाहरण लेते है या अन्य राज्यों का उदाहरण लेते हैं। क्यों ?

हमारा अपना अस्तित्व और इतिहास है। पंजाब को नहीं पता 'चोरा' क्या होता है, 'बाहुड़' क्या होता है, 'माहुरा-मटोषळ' क्या होता है? हमें पता है, या हमारी पर्वत श्रृंखला साझा करने वाले लोगों को पता है। कटु क्या है, इसका पता लाहौल वालों को, लाहुली जानने वालों को है या चित्राल वालों को। इसलिए बाकी राज्यों का उदाहरण पहाड़ी के साथ देने की आवश्यकता नहीं। अरुणाचल से लेकर पामीर के पहाड़ों में जो भी बोली प्रयुक्त होती है, वह पहाड़ी है। उसका वर्गीकरण राज्य के आधार पर नाम देकर किया जा सकता है। जैसे उत्तराखंडी पहाड़ी, हिमाचली पहाड़ी इत्यादि।

यतिन शर्मा  

लाहुली, किन्नौरी के बाद कुलुवी सबसे जटिल बोली है। इसमे बहुत सी ऊपरी हिमालय की बोलियों के साथ-साथ पर्शियन से लेकर तिब्बती शब्द भी हैं। मैदानी बोलियों में या कहें पंजाबी-मराठी में तिब्बती शब्द नहीं। परंतु इन सब बोलियों की अपनी ख़ूबसूरती अपनी विशेषता है।

अंडे के लिए प्रयुक्त होने वाला डाना शब्द या तो कुल्वी में है या फिर चीन की बोलियों में। बाकी राज्यों का भौगोलिक परिवेश और इतिहास अलग है हमारा अलग।

सर्वप्रथम पहाड़ी बोलियों का व्याकरण बनाने की आवश्यकता है। वह है नहीं, पहले वह तो बनाइये। बाद में व्याकरण में साम्य होने से दो भिन्न मानी जाने वाली बोलियों को एक समूह में रखने में सुविधा ही होगी। 20-25 साल सभी क्षेत्रों के भाषाविद इस मामले पर शोध कर लें, बाकी काम उसके बाद होगा।

मेरे अनुसार पहाड़ी बोलियों का सम्मिलित स्वरूप ही पहाड़ी भाषा है। इन्हें एक करने की आवश्यकता नहीं। बोलियों की अपनी मौलिकता समाप्त होने से बोली समाप्त हो जाएगी।

इन सब बिंदुओं पर आगे बहुत विचार दिए जा सकते हैं। हर बिंदु के कारकों-कारणों पर और भी अधिक विस्तार से लिख सकता हूँ। परंतु अभी इतना ही।

अलख निरंजन 

दिव्य हिमाचल की भाषा चर्चा       

Wednesday, November 16, 2022

इक ब्राजीली कविता

 


मारियो द अंदरेदे

Mario de Andrade (1893-1945)


मारियो इ अंदरेदे ब्राजील दे कविउपन्यासकारआलोचककला इतिहासकारसंगीतशास्त्री और छायाचित्रकार हन । 1922 च छपया  Hallucinated City इन्हां दा बड़ा जरूरी कविता संग्रह है ।  मारियो दा ब्राजील दे आधुनिक साहित्य पर गैह्री छाप है। संगीत च इन्हां दे योगदान ताईं भी इन्हां जो याद कीता जांदा है । एह्थी इन्हां दी इक कविता दे अंग्रेजी अनुवाद सौगी पहाड़ीपंजाबी कनै हिंदी अनुवाद पेश है । कविता दा नां है Valuable time of Maturity । पहाड़ी अनुवाद तेज कुमार सेठी, पंजाबी अनुवाद अमरजीत कोंके कनै हिन्दी अनुवाद अनूप सेठी नै कीतेया है।

पहाड़ी 

पकिया उमरा दा कीमती वक्त

मैं गिणे अपणीयां जिन्दड़ीया दे साल

तां पता लग्गा

बौह्ती बीती

थोड़ी जेह्यी रह्यी

 

अतीत लम्मा है कनै भविक्ख छोटा

 

लग्गेया जिह्ञ्यां सैः बच्चा जिस्जो मिल्ली डळू भर चेरी

पैह्ल्लैं खान्दा गेया

फिरी जाह्लु जे बझोया भई थोड़ी जेह्यी बची यैय्यी

तां लगा ठुंगणा सुआद लेई लेई नै

 

हुण मेरे व्हल वकत बचेया नी है औसत दरजे दीयां चीजां कनै निब्बड़ने दा

 

ऐसियां मैहफलां च नी जाणा चाहन्दा जित्थू जे सड़ेह्यो भुज्जेह्यो फिरा दे होन अकंहार

 

डाह्ये नै भरोह्यां ते परेशान रैह्न्दा

जेह्ड़े सब्भना ते काबल लोकां जो बदनाम करी देणा चाह्न्दे

तिन्हां दी जगह हड़पी लैणा चाह्न्दे

तिन्हां जो लळचान्दा उन्हां दा औह्दा, लियाकत कनै किस्मत

 

फजूले दींयां गल्लां ताईं मेरे गैं वकत नी है

जो मेरिया जिन्दगिया दा हिस्सा ई नी

उन्हां दींयां जिन्दगानियां पर चरचा करना बेकार है

 

ऐसेयां लोक्कां देयां नखरेयां झलणे दा वकत नी है मैंह्  गैं

सैः जे उमरां च तां बड्डे अपर अन्दरे ते बौणे

मुज्जो घृणा है देह्-देह्यां दे मुँह्यैं लगणे ते जेह्ड़े सत्ता ताईं भिड़दे रैह्न्दे

सैः जे कम्मे दीया गल्ला पर नी सिरफ बिल्लेयां दे नां पर बैह्सां करदे

 

बिल्लेयां पर बैह्सणे जो नी बचेह्या वकत मुन्जो व्हला

मुन्ज्जो सार चाहिदा

मेरी रूह काहळी पय्यीयो

 

मेरे डून्ने च चेरी ज्यादा नी है बचियो,

 

मैं एह्देयां लोक्कां गेड्डैं रैह्णा चाहन्दा जेह्ड़े इन्सान हन, ज्यादा इन्सान

सैः जे ठोकरां जो हास्से च ई उड़ाईन्दे,

कनै उन्हां ते दूर  जिन्हां यो जित्ता घमण्डी बणाई त्तेह्या

उन्हां ते दूर जो अपणे सुआरथे नै भरोह्यो

 

जरूरी तां सैः है जिस्ते जीवन हुन्दा सारथक

कनै मेरे ताईं काफी हन जरूरतां

 

हां मैं काह्ळिया च है

मैं जल्दबाजीया च है तिस सिद्दता नै जीणे यो जेह्ड़ी पक्कपणे ते औन्दी

 

बचीयां चेरियां बरबाद करने दा मेरा इरादा नी है

 

मुन्ज्जो बुसुआस है सैः बड़ियां बद्धिया हुंगिंयां हाल्ली तिक्कर  खाह्दीयाँ ते भी ज्यादा

मेरा मकसद है पौंह्चणा धुरे तिक्कर सन्तुष्ट

कनै मौज्जा नै अपणे प्यारेयां सौग्गी कनै अपणीया जमीरा सौग्गी

 

कन्फ्यूशियस बोल्दा : 'असां दींयां हैन दो जिन्दगियाँ

कनै दूईय्या दी सुरुआत हुन्दी जाह्लू तुसां जो अन्तर्गियान औन्दा

है तुसां व्हाल सिरफ इक्को जीवन'

पंंजाबी

ਪੱਕੀ ਉਮਰ ਦਾ ਕੀਮਤੀ ਸਮਾਂ

ਮੈਂ ਗਿਣੇ ਆਪਣੀ ਜਿੰਦਗੀ ਸੇ ਸਾਲ

ਤੇ ਪਤਾ ਲੱਗਿਆ

ਬਹੁਤ ਬੀਤੀ

ਥੋੜੀ ਜਿਹੀ ਬਚੀ

 

ਅਤੀਤ ਲੰਬਾ ਤੇ ਭਵਿੱਖ ਛੋਟਾ ਹੈ

ਲੱਗਿਆ ਜਿਵੇਂ ਉਹ ਬੱਚਾ ਜਿਸਨੂੰ ਮਿਲੀਆਂ

ਕੌਲੀ ਭਰ ਚੈਰੀਆਂ

ਪਹਿਲਾਂ ਤਾਂ ਖਾਂਦਾ ਗਿਆ

ਫਿਰ ਜਦੋਂ ਲੱਗਿਆ ਕਿ ਥੋੜੀ ਜਿਹੀਆਂ ਰਹਿ ਗਈਆਂ

ਤਾਂ ਟੁੱਕਣ ਲੱਗਿਆ ਸਵਾਦ ਲੈ ਲੈ ਕੇ

 

ਹੁਣ ਮੇਰੇ ਕੋਲ ਵਕਤ ਤੱਕ ਨਹੀਂ ਬਚਿਆ

ਔਸਤ ਦਰਜੇ ਦੀਆਂ ਚੀਜ਼ਾਂ ਨਾਲ ਨਿਪਟਣ ਦਾ

 

ਅਜਿਹੀਆਂ ਮਹਿਫਲਾਂ ਵਿਚ ਨਹੀਂ ਜਾਣਾ ਚਾਹੁੰਦਾ

ਜਿੱਥੇ ਸੜੇ ਭੁੱਜੇ ਫਿਰ ਰਹੇ ਨੇ ਹੰਕਾਰ

ਗਰੂਰ ਭਰਿਆਂ ਤੋਂ ਪਰੇਸ਼ਾਨ ਰਹਿੰਦਾ ਹਾਂ

ਜੋ ਸਭ ਤੋਂ ਕਾਬਿਲ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ

ਬਦਨਾਮ ਕਰ ਦੇਣਾ ਚਾਹੁੰਦੇ ਹਨ

 

 ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਥਾਂ ਹੜਪ ਲੈਣਾ ਚਾਹੁੰਦੇ ਨੇ

ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਲਲਚਾਉਂਦਾ ਹੈ

ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਅਹੁਦਾ ਲਿਆਕਤ ਤੇ ਕਿਸਮਤ

 

ਫਿਜੂਲ ਦੀਆਂ ਗੱਲਾਂ ਲਈ ਮੇਰੇ ਕੋਲ ਵਕਤ ਨਹੀਂ ਹੈ

ਜੋ ਮੇਰੀ ਜਿੰਦਗੀ ਦਾ ਹਿੱਸਾ ਨਹੀਂ

ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀਆਂ ਜੀਵਨੀਆਂ ਤੇ ਚਰਚਾ ਕਰਨੀ ਬੇਕਾਰ ਹੈ

ਐਸੇ ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਨਖਰੇ ਝੱਲਣ ਦਾ ਵਕਤ ਨਹੀਂ ਹੈ ਮੇਰੇ ਕੋਲ

ਜੋ ਉਮਰ ਵਿਚ ਤਾਂ ਵੱਡੇ ਪਰ ਅੰਦਰੋਂ ਬੌਣੇ

ਮੈਨੂੰ ਨਫ਼ਰਤ ਹੈ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਮੂੰਹ ਲੱਗਣੋ

ਜੋ ਸੱਤਾ ਹਥਿਆਉਣ ਲਈ ਭਿੜਦੇ ਹਨ

ਜੋ ਕੰਮ ਦੀ ਗੱਲ ਤੇ ਨਹੀਂ

ਸਿਰਫ ਠੱਪਿਆਂ ਦੇ ਨਾਂ ਤੇ ਬਹਿਸ ਕਰਦੇ ਹਨ

 

ਠੱਪਿਆਂ ਤੇ ਬਹਿਸ ਲਈ ਵਕਤ ਨਹੀਂ ਮੇਰੇ ਕੋਲ

ਮੈਨੂੰ ਸਾਰ ਚਾਹਿਦਾ ਹੈ

ਮੇਰੀ ਰੂਹ ਜਲਦੀ ਵਿਚ ਹੈ

ਮੇਰੀ ਜੇਬ ਵਿਚ ਚੈਰੀਆਂ ਜ਼ਿਆਦਾ ਨਹੀਂ

ਮੈਂ ਐਸੇ ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਕਰੀਬ ਰਹਿਣਾ ਚਾਹੁੰਦਾ ਹਾਂ

ਜੋ ਇਨਸਾਨ ਹੋਣ, ਜ਼ਿਆਦਾ ਇਨਸਾਨ

ਜੋ ਆਪਣੀਆਂ ਠੋਕਰਾਂ

ਹਾਸਿਆਂ ਵਿਚ ਉਡਾ ਦਿੰਦੇ ਨੇ

ਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਤੋਂ ਦੂਰ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਜਿੱਤ ਨੇ

ਦੰਭੀ ਬਣਾ ਦਿੱਤਾ ਹੈ

ਉਨ੍ਹਾਂ ਤੋਂ ਦੂਰ ਜੋ ਖ਼ੁਦ ਆਪਣੇ ਨਾਲ ਹੀ ਭਰੇ ਨੇ

 

ਜ਼ਰੂਰੀ ਉਹ ਹੈ ਜਿਸ ਨਾਲ ਜੀਵਨ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਸਾਰਥਕ

ਤੇ ਮੇਰੇ ਲਈ ਕਾਫ਼ੀ ਹੈ ਜ਼ਰੂਰਤ

 

ਹਾਂ ਮੈਂ ਜਲਦੀ ਵਿਚ ਹਾਂ

ਮੈਂ ਜਲਦਬਾਜੀ ਵਿਚ ਹਾਂ ਉਸ ਸ਼ਿੱਦਤ ਨਾਲ ਜਿਉਣ ਲਈ

ਜੋ ਸਿਰਫ਼ ਪਰਿਪੱਕਤਾ ਵਿਚੋਂ ਆਉਂਦੀ ਹੈ

 

ਬਚੀਆਂ ਹੋਈਆਂ ਚੈਰੀਆਂ ਬਰਬਾਦ ਕਰਨ ਦਾ

ਮੇਰਾ ਕੋਈ ਇਰਾਦਾ ਨਹੀਂ

 

ਮੈਨੂੰ ਯਕੀਨ ਹੈ ਉਹ ਬਹੁਤ ਵਧੀਆ ਹੋਣਗੀਆਂ

ਹੁਣ ਤੱਕ ਜੋ ਖਾਧੀਆਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਤੋਂ ਜ਼ਿਆਦਾ

ਮੇਰਾ ਮਕਸਦ ਹੈ ਪਹੁੰਚਣਾ ਅੰਤ ਤੱਕ

ਸੰਤੁਸ਼ਟ ਅਤੇ ਮਜ਼ੇ ਨਾਲ

ਆਪਣੇ ਪਿਆਰਿਆਂ ਦੇ ਨਾਲ ਤੇ

ਆਪਣੀ ਜ਼ਮੀਰ ਦੇ ਨਾਲ

 

ਕਨਫਿਊਸ਼ਿਅਸ ਕਹਿੰਦਾ ਹੈ ਨਾ

‘ਸਾਡੀਆਂ ਨੇ ਦੋ ਜ਼ਿੰਦਗੀਆਂ

ਤੇ ਦੂਜੀ ਦਾ ਆਗਾਜ਼ ਹੁੰਦਾ ਹੈ

ਜਦੋਂ ਤੁਹਾਨੂੰ ਇਹ ਇਲਹਾਮ ਹੁੰਦਾ ਹੈ

ਕਿ ਹੈ ਤੁਹਾਡੇ ਕੋਲ ਸਿਰਫ਼ ਇੱਕ ਹੀ ਜੀਵਨ’


हिन्दी 

पकी उमर का कीमती वक्त

मैंने गिने अपनी जिंदगी के साल

और इलहाम हुआ कि

बहुत बीती

थोड़ी बची

 

अतीत लंबा भविष्य छोटा है

 

लगा जैसे वो बच्चा जिसे मिली डलिया भर चेरी

पहले तो गटकता गया

फिर जब लगा थोड़ी ही बची हैं

टूंगने लगा स्वाद ले ले कर

 

अब मेरे पास वक्त बचा नहीं है औसत दर्जे की चीज़ों से निबटने के लिए

 

ऐसी बैठकों में जाना नहीं चाहता

जहां सूजे-भूंजे फिर रहे हों अहंकार

 

डाह भरों से परेशान रहता हूं

जो सबसे काबिल लोगों को बदनाम कर देना चाहते हैं

उनकी जगह हड़प लेना चाहते हैं

उन्हें ललचाता है उनका औहदा, लियाकत और किस्मत

 

फिजूल की बातों के लिए मेरे पास वक्त नहीं है

जो मेरी जिंदगी का हिस्सा नहीं

उनकी जिंदगियों पर चर्चा करना बेकार है

 

ऐसे लोगों की नजाकतों को संभालने का वक्त नहीं है मेरे पास

जो उमर में तो बढ़े पर नहीं कढ़े

मुझे नफरत है उनके मुंह लगने से

जो सत्ता के लिए भिड़ते रहते हैं

जो काम की बात पर नहीं सिर्फ बिल्लों के नाम पर बहस करते हैं 

 

बिल्लों पर बहस के लिए बचा नहीं वक्त मेरे पास

मुझे सार चाहिए।

 

मेरी रूह जल्दी में है ...

 

मेरी डलिया में चेरियां ज्यादा नहीं

 

मैं ऐसे लोगों के करीब रहना चाहता हूं जो इंसान हैं, ज्यादा इंसान

जो अपनी ठोकरों को हंसी में उड़ा देते हैं

और उनसे दूर जिन्हें उनकी जीत ने दंभी बना दिया है

उनसे दूर जो खुद-ही-खुद से भरे हैं

 

जरूरी वह है जिससे जीवन होता है सार्थक

और मेरे लिए काफी हैं जरूरियात !

 

हां मैं जल्दी में हूं

मैं जल्दबाजी में हूं उस सघनता से जीने में

जो सिर्फ परिपक्वता से आती है

 

बची हुई चेरियां बर्बाद करने का मेरा इरादा नहीं

 

मुझे यकीन है वे बहुत बढ़िया होंगी

अब तक जो खाईं उनसे ज्यादा

मेरा मकसद है पहुंचना अंत तक

संतुष्ट और मजे में

अपने प्यारों के साथ और अपनी जमीर के साथ

 

कन्फ्यूशियस कहता है न –

‘‘हमारी हैं दो जिंदगियां

और दूसरी का आगाज होता है

जब आपको इलहाम होता है

है आपके पास सिर्फ एक जीवन।’’


अंग्रेजी 

Valuable time of maturity

 I counted my years

and realized that

I have less time to live by,

than I have lived so far.

 

I have more past than future.

 

I feel like that boy who got a bowl of cherries.

At first, he gobbled them,

but when he realized there were only few left,

he began to taste them intensely.

 

I no longer have time to deal with mediocrity.

 

I do not want to be in meetings where flamed egos parade.

 

I am bothered by the envious,

who seek to discredit the most able,

to usurp their places, coveting their seats,

talent, achievements and luck.

 

I do not have time for endless conversations,

useless to discuss about the lives of others

who are not part of mine.

 

I no longer have the time to manage

sensitivities of people who despite their chronological age, are immature.

I hate to confront those that struggle for power,

those that ‘do not debate content, just the labels’.

 

My time has become scarce to debate labels,

I want the essence.

 

My soul is in a hurry …

 

Not many cherries in my bowl,

 

I want to live close to human people, very human,

who laugh off their own stumbles,

and away from those turned smug

and overconfident with their triumphs,

away from those filled with self-importance.

 

The essential is what makes life worthwhile.

And for me, the essentials are enough!

 

Yes, I’m in a hurry.

I’m in a hurry to live with the intensity that only maturity can give.

 

I do not intend to waste any of the remaining cherries.

 

I am sure they will be exquisite, much more than those eaten so far.

My goal is to reach the end satisfied

and at peace with my loved ones and my conscience.

 

And per Confucius “We have two lives

and the second begins when you realize you only have one.”    

अनुवादक 

तेज कुमार सेठी (पहाड़ी) अमरजीत कोंके (पंजाबी) अनूप सेठी (हिन्दी) 


Sunday, November 6, 2022

यादां फौजा दियां

 

फौजियां दियां जिंदगियां दे बारे च असां जितणा जाणदेतिसते जादा जाणने दी तांह्ग असां जो रैंह्दी है। रिटैर फौजी भगत राम मंडोत्रा होरां फौजा दियां अपणियां यादां हिंदिया च लिखा दे थे। असां तिन्हां गैं अर्जी लाई भई अपणिया बोलिया च लिखा। तिन्हां स्हाड़ी अर्जी मन्नी लई। हुण असां यादां दी एह् लड़ी सुरू कीती हैदूंई जबानां च। पेश है इसा लड़िया दा पचीह्मां मणका।

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समाधियाँ दे परदेस   

सन् 1989 दा साल था।  अरुणाचल प्रदेश दे तवाँग ते अग्गैं भारत-चीन सरहद दे नेड़ैं पोणे वाळे लुम्पो च मेरे ओणे दे परंत पहली बर्फ पोआ दी थी। तित्थू ठंड ते बचाओ ताँईं होर कपड़ेयाँ  कन्नै  फौजियाँ जो पैह्नणे ताँईं कोट पार्का दित्या जाँदा था। कोट पार्का दे दो हिस्से होंदे हन्न आउटर कनै इन्नर। मिंजो नोंआँ कोट चाहिदा था। नोंआँ  इन्नर ताँ मिंजो मिली गिह्या था अपर नोंआँ आउटर नीं मिल्लेह्या था इस ताँईं मैं आउटर लिह्या ही नीं था। आउटर वाटर प्रूफ होंदा है कनै इन्नर ऊन समेत भेड़ दी खल्ल साँह्ईं सुझदा है कनै गर्म होंदा है। आउटर ताँ इन्नर दे बगैर पहनेयाँ जाई सकदा अपर इन्नर जो आउटर दे बगैर पहनणा सही नीं लगदा। इस करी नै मेरा इन्नर सरहाणे दे हेठ रक्खेया रैंह्दा था। 

मिंजो व्ह्ली इक दूजा कोट था जेह्ड़ा मिंजो फौज च  भर्ती होणे दे शुरुआती दिनाँ च मिल्लेह्या था।  सैह् कोट मैदानी ठंड ते बचाओ ताँईं काफी था अपर बर्फ़ानी ठंड ताँईं कोट पार्का जितणा निग्घा नीं था। तिसदा आउटर  कोट पार्का साँह्ईं वाटर प्रूफ था अपर डिजैन कोट पार्का दे आउटर ते थोड़ा लग्ग था। जदकि इन्नर मैरून रंग दे ऊन मिक्स मोटे धागे नै बुणे कपड़े दा बणेह्या था।   मैं तिस कोट जो ही पहना दा था। 

तित्थू मैं सीओ कनै टूआईसी साहब दे पीए दा रोल भी निभा दा था।  इक दिन दोपहराँ परंत मिंजो सीओ साहब होराँ इक फाइल लई करी अपणे शेल्टरनुमा रेजिडेंस च सद्देया।  तिन्हाँ दा रेजिडेंस म्हारे दफ्तर ते तकरीबन पंजाह मीटर निचले पासैं पसरियो ढलाण पर था।  मैं तित्थू जाई करी दिक्खेया कि सीओ साहब कन्नै मेजर रैंक दे इक होर अफसर भी बैठेह्यो थे।  सैह् हिमाचल प्रदेश दे हमीरपुर ते थे। मैं सीओ साहब जो सल्यूट कित्ता। अंदर जाँदे बग्त मिंजों तिन्हाँ ठंडी नै कंबदे दिक्खी लिह्या था। सीओ साहब होराँ मिंजो दिक्खदेयाँ  ही सुआल कित्ता, "ओए भगत, तेरे कोळ कोट पार्का नीं है?" 

"नहीं सर, इन्नर है आउटर नीं है," मेरा जवाब था। 

"ओए शादी राम, भगत राम ताँईं इक ब्राँडी दा लार्ज पेग लेके आ," तिन्हाँ अपणे सहायक जो उआज लगाई थी। 

लाँस नायक शादी राम इक शीशे दे गिलास च ब्राँडी पाई नै ट्रे च रखी करी लई आये। "गर्म पाणी मिलाया न," सीओ साहब होराँ शादी राम ते पुच्छेया।  तिन्हाँ हाँ च सिर हिलाया। सीओ साहब फिरी मिंजो वक्खी दिक्खी करी ऑर्डर देणे दे लहजे च बोले, "काके, इह्नु इक ही साह च गटक जा, तेरी ठंड फुर हो जाबेगी।" 

जिंञा ही मैं ब्राँडी खत्म करी नै मुड़ेया, सीओ साहब होराँ, बुखारी दे दूजे पासैं बैठे, मेजर साहब जो दिक्खी नै ग्लाया, "दिक्खेया कबीर, तेरे ग्राँईं दे कोळ कोट पार्का नीं है, क्या फायदा यार!" 

मेजर सुंदर दास कबीर तिस यूनिट दे कुआटर मास्टर थे। तिन्हाँ मिंजो ग्लाया, "मुन्नू, मेरे कमरे च जाह्, तित्थू कंधा कन्नै हेंगर च इक नौआँ आउटर टंगोह्या है, तिसते रैंक उतारी करी मेजे पर रखी दे कनै तिसजो अपणे कोट दे ऊपर पहनी करी आई जा।" 

मिंजो पता नीं था कि क्वार्टर मास्टर होराँ दा रेजिडेंस  कुत्थू है। मैं इशारे नै लाँस नायक शादी राम जो बाहर सद्दी नै पुच्छेया ताँ पता चल्लेया कि तिन्हाँ दा रेजिडेंस निचले पासैं जाँदी सीढ़ीदार बत्त दे खब्बे पासैं, तित्थू ते तकरीबन पच्चीस-तीस मीटर दूर इक शेल्टर च था।  मैं तिस पासैं चली पिया।  शेल्टर दे दरवाजे दे खब्बे पासैं बाहर क्वार्टर मास्टर साहब होराँ दी नेमप्लेट लगिह्यो  थी।  दरवाजा बाहर ते खुला था।  मैं दरवाजा हौळैं कि धकेली करी अंदर जाणा लगा ताँ सज्जे पासैं मिंजो यूनिट दे मेडिकल अफसर कैप्टन रेड्डी होराँ सुज्झे।  सैह् कुर्सिया पर बैठी करी किछ पढ़ा दे थे कनै मेजे पर शराबे दा गिलास रक्खोया था।  मैं दबे पैर बाहर निकळी आया। क्वार्टर मास्टर साहब दी नेम प्लेट जो इक बरी फिरी पढ़ेया। ताह्लू मेरी नजर दरवाजे दे सज्जे पासैं लगिह्यो डॉक्टर साहब होराँ दिया नेम प्लेटा पर पई।  समझा च आई गिया कि तिस शेल्टर च दो कमरे थे जिन्हाँ दा दरवाजा इक्को ही था। 

मैं दरवाजे पर खड़ोई नै, "मे आई कम इन, सर" बोली करी अंदर जाणे दी इजाजत मंग्गी।  डॉक्टर साहब होराँ मिंजो अंदर सद्दी लिया। मैं कैप्टन साहब जो सलूट मारेया। डॉक्टर साहब मिंजो जाणदे थे। "भगत, किंञा ओणा होया?" तिन्हाँ पुच्छेया। "सर, मिंजो कुआटर मास्टर साहब होराँ दा कोट लैणा है," मैं तिन्हाँ जो दस्सेया। "ठीक है, पहलैं एह् दस्सा क्या लैंह्गे व्हिस्की, ब्राँडी जाँ रम?" तिन्हाँ पुच्छेया।  "सर, इक पेग ब्राँडी, बस" मैं अपणी चॉइस दस्सी थी। तिन्हाँ इक पेग ते किछ ज्यादा ब्राँडी गिलास च पायी। मैं मेज पर रक्खोइयो थर्मोस बोतला ते तिस च गर्म पाणी मिलाया कनै इक्को ही साह च ब्राँडी पी गिया। कोट लई करी मैं डॉक्टर साहब होराँ ते जाणे दी इजाजत मंग्गी, "अच्छा सर, मैं चलदा" कनै तिन्हाँ जो सलूट कित्ता। 

बाहर बर्फ दे फाहे पौआ दे थे। मैं सीओ साहब दे रेजिडेंस पासैं चलदा जाह् दा था।  ब्राँडी अपणा असर तेजिया नै दसणा लगी पई थी।  मिंजो डर लग्गा दा था कि सीओ साहब मेरे डगमगांदे कदम दिक्खी कनै लड़खडांदी उआज सुणी करी क्या सोचह्गे।  सीओ साहब दे रेजिडेंस च आई करी मैं लाँस नायक शादी राम नै मिल्लेया कनै तिस्सेयो सीओ साहब जो मेरे औणे दी खबर देणे ताँईं ग्लाया।  किछ देर परंत शादी राम नै मिंजो सीओ साहब दा सुनेहा दित्ता जिसदे मुताबिक तिस फ़ाइल पर अगले दिन दफ्तर च कम्म होणा था कनै मैं वापस मुड़ी जाणा था। मिंजो राहत मिल्ली कनै मैं नशे च तेज कदमाँ नै अपणै रेजिडेंस दे पासैं चढ़णा शुरू करी दित्ता था। 

उप्परलिया घटना ते तकरीबन तिन्न महीने परंत इक दिन कुआटर मास्टर साहब होराँ मेरे दफ्तर ते होई नै  गुजरदे बग्त मिंजो उआज लगाई, "ओ मुन्नू, मेरी नौंईं विल (बसीयत) बणाई दे।" 

"सर, तुसाँ दी पहलकणी विल ताँ है, तिस च कोई चेंज है क्या?" मैं पुच्छेया था। 

"नहीं, कोई चेंज नीं। बस तू नौंईं विल बणाई दे कनै आर्मी हैडकुआटर भेजी दे। तिन्हाँ मिंजो ते मंगिह्यो है," तिन्हाँ दा जवाब था। 

आर्मी ऑर्डर दे मुताबिक फौजियाँ दी बसीयत नपे तुले अक्खराँ च इक ए-4 साइज़ दे पेपर जितणी होंदी है।  मिंजो व्ह्ली तिसदे फॉर्म पैह्लैं ही मुकी गैह्यो थे।  मैं टाइपराइटर कन्नै स्टेंसिल कट्टी रक्खियो थी अपर सायकलोस्टाइलिंग मशीन दी सियाही खत्म होणे दिया बजह ते तिस दियाँ कॉपियाँ नीं कड्ढी सकेह्या था।   गुवाहटी ते सियाही औणे च देर होआ दी थी।  मैं कुआटर मास्टर साहब होराँ दी बसीयत जो पेंडिंग कम्म च  रखी दित्तेह्या था। 

इक दिन संझकणे टैमें कुआटर मास्टर साहब जाह्लू अपणे रेजिडेंस ते अपणे दफतर च तकरीबन पचहत्तर-अस्सी मीटर दी सीढ़ीदार पगडंडी चढ़ी करी आये ताँ तिन्हाँ जो चाणचक ब्रेन स्ट्रोक पिया कनै सैह् अपणे दफतर दिया दरेहळी पर रिड़की करी बेहोश होई गै।  एह् बुरे भागाँ दा नतीजा था कि तिस बग्त यूनिट दे डॉक्टर कैप्टन रेड्डी लुम्पो च नीं थे। सैह् तैह्ड़ी भ्यागा ही अगलिया लैणी च तैनात इक इन्फैंट्री बटालियन च चली गैह्यो थे जिन्हाँ दे डॉक्टर कैजुअल लीव पर थे। लुम्पो च तिस बग्त तवाँग ते आह्यो इक डॉक्टर थे जेह्ड़े निस्बतन्  घट तजुर्बेकार थे। 

कैप्टन रेड्डी होराँ जो जाह्लू कुआटर मास्टर साहब दे बारे च  पता चल्लेया ताँ सैह् अपणे मित्र कनै गाइड दे प्राण बचाणे ताँईं बेचैन होयी उठे थे। तिन्हाँ लुम्पो ओणे दी इजाजत मंग्गी थी अपर तिस इलाके च बर्फबारी दे दौरान रात जो सफर करना सुरक्षित नीं था इस करी नै तिन्हाँ जो इजाजत नीं मिल्ली थी।  यूनिट दे सेकंड - इन - कमाँड, तैह्ड़ी तिकर पुराणे सीओ दा तबादला होई जाणे पर, कमाँडिंग अफसर बणी गैह्यो थे। तिन्हाँ कुआटर मास्टर साहब जो रात दे बग्त हेलीकॉप्टर दे जरिये तवाँग लई जाणे दी कोशिश कित्ती, अपर कामयाबी नीं मिल्ली थी। तिस रात लुम्पो दे उप्पर चीता हेलिकॉप्टर मंडराया अपर कई कोशिशां करने दे बाबजूद  हेलीपैड पर उतरने च नाकामयाब रिहा था। 

कैप्टन रेड्डी होराँ दे बोलणे पर, कुआटर मास्टर साहब दे बिस्तरे दे नेडैं, इक टेलीफोन दा इन्तजाम कित्ता गिया जिसते सैह् रात भर  लुम्पो च तैनात डॉक्टर जो हिदायताँ दई करी मेजर साहब दा हर मुमकिन इलाज करदे रैहे। अक्खे-बक्खे दियाँ पोस्टां ते ऑक्सीजन सिलेंडर कट्ठे करी नै काफी मात्रा च आक्सीजन दा इंतजाम कित्ता गिया। जाह्लू अगलिया भ्यागा  हेलीकॉप्टर लुम्पो हेलीपैड पर उतरेया ताँ सारी यूनिट नै कुआटर मास्टर साहब होराँ जो, तिन्हाँ दिया जिंदगिया दिया सलामतिया ताँईं प्रार्थना करदे होयाँ, भावभीनी विदाई दित्ती।  अफसराँ कनै जुआनाँ दियाँ हाखीं च आँसू छळका दे थे।  कुआटर मास्टर साहब होराँ जो तवाँग दे हस्पताल च छड्डी करी 'चीता' मुड़ी आया। तिस च  सीओ साहब कन्नै इक अफसर कनै इक जेसीओ भी तवाँग गै थे। 

नीलिया च तैनात अपणी फॉरवर्ड तोपखाना बैट्री कन्नै  मेजर सेमसन थे अपर लुम्पो च तैनात दो लड़ाकू बैट्रियां कनै इक हेडक्वार्टर बैट्री कन्नै सिर्फ इक अफसर ही बचेह्यो थे जेह्ड़े यूनिट दे एडजुटेंट भी थे।  मैं तिन्हाँ दे अंडर कम्म करदा था। तिन्ह् अफसर दा नाँ था मेजर मुश्ताक़ मोहम्मद हुसैन।  मेजर मुश्ताक़ बंगलुरू दे रैह्णे वाळे थे। तिन्हाँ मिंजो ग्लाया था, "भगत, जुआनाँ जो मैसेज दिया कि ब्रेकफास्ट दे परंत सारे मंदिर च जाई करी मेजर कबीर साहब दी जिंदगी ताँईं प्रार्थना करह्गे।"  तैह्ड़ी बहोत घट जुआनाँ ब्रेकफास्ट कित्ता था। 

सारे अहीर फौजी मंदिर च लग्न कन्नै कृष्ण भजन गा दे थे। ढोल, मंजीरे, चिमटे बज्जा दे थे। तैह्ड़ी मंदिर च हर कोई जोर लगाई नै भजन गा दा था। ताळियाँ दी तेज उआज तिन्हाँ बेदर्दी पहाडाँ च गूंजा दी थी।  मैं दिक्खेया  था मिंजो ते अग्गैं दरीया पर बैठेह्यो मेजर मुश्ताक़ भी जोरे-जोरे नै ताळियाँ बजा दे थे कनै जुआनाँ सोगी भजन गा दे थे। हर कोई कुआटर मास्टर साहब होराँ दी  सलामती ताँईं प्रार्थना करा दा था। 

तकरीबन इक घण्टे परंत तिस दिन दे 'डियूटी क्लर्क' दा 'रनर' मंदिर च आया कनै तिन्नी झुकी नै मेजर मुश्ताक़ होराँ दे कन्न च किछ ग्लाया।  मेजर मुश्ताक़ खड़ोई गै, मूर्तियाँ अग्गैं मत्था टेकेया कनै मंदिर ते बाहर चली गै।  किछ देर परंत 'रनर' मुड़ी आया कनै तिन्नी मेरे कन्न च ग्लाया कि एडजुटेंट साहब मिंजो दफ्तर च सद्दा दे।  मैं भी माथा टेकया कनै मंदिर ते बाहर चली गिया। भजन-कीर्तन चलदा रिहा। 

जिंञा ही मैं एडजुटेंट साहब दे ऑफिस च दाखिल होया, मैं दिक्खेया कि सैह् जोरे-जोरे नै रोआ दे थे। तिन्हाँ रोंदेयाँ-रोंदेयाँ मिंजो दस्सेया कि मिलिट्री हॉस्पिटल गुवाहटी ते फोन आह्या कि मेजर कबीर नीं रैह्। सुणी करी मिंजो भी रोणा आई गिया।  किछ देर परंत मेजर मुश्ताक़ शांत होये कनै तिन्हाँ मिंजो ते पुच्छेया, "हुण क्या करना है?" मैं तिन्हाँ जो दस्सेया कि इस पर इक स्पेशल आर्मी ऑर्डर है जिसदे मुताबिक असाँ अगली कार्रवाई करनी है।  मैं कन्नै ही लगदे अपणे ऑफिस ते सैह् आर्मी ऑर्डर कड्ढी करी तिन्हाँ साह्म्णे रखी दित्ता।  तिसते परंत असाँ आर्मी ऑर्डर दे मुताबिक रिपोर्टिंग कनै कार्रवाई शुरू करी दित्ती।  ताह्ली मैं मेजर मुश्ताक़ साहब जो दस्सेया कि मिंजो ते इक चूक होई गईह्यो थी  मिंजो कुआटर मास्टर साहब होराँ अपणी 'विल' बणाणे जो ग्लाह्या था जिस जो बणाणे च देरी होई गई हुण तिस पर साइन किंञा होंगे।  एडजुटेंट साहब बोले थे, "कोई गल्ल नीं, तुसाँ 'विल' लई औआ कनै मेजर कबीर दे साइनाँ वाळा कोई कागद भी।" मैं तदेहा ही कित्ता। मेजर मुश्ताक़ होराँ ट्रेस करी नै 'विल' गास हूवहू मेजर कबीर दे साइन करी दित्ते।  मेरे दिल ते इक बोझ उतरी गिया अपर मलाल रिहा कि मैं कुआटर मास्टर साहब होराँ दे जींदे जी 'विल' पर तिन्हाँ दे दस्तखत नीं लई पाया था। 

मेजर मुश्ताक़ होराँ कन्नै मैं लगभग तिन्न साल तिकर कम्म कित्ता।  तिन्हाँ दे यूनिट च रैह्देयाँ ही मैं नायब सूबेदार बणी गिया था।  कारगिल दी जंग च मेजर  मुश्ताक़ मोहम्मद हुसैन होराँ भारतीय सेना दे तोपखाने दे फॉरवर्ड ऑब्जरवेशन ऑफिसर दे तौर पर अपणे फर्ज जो निभाँदे होयाँ मुश्किल टारगेट रजिस्टर कित्ते कनै तोपाँ नै दुश्मणा पर बेहद कारगर फायर गिराया था।  जिस ताँईं  तिन्हाँ जो सेना मैडल (वीरता) कन्नै  सम्मानित कित्ता गिया था।  तिन्हाँ कन्नै मेरी अगली मुलाकात फिरी अरुणाचल प्रदेश च ही 2004-05 च होई थी।  तिस बग्त मैं सूबेदार मेजर दे तौर पर इक पर्वतीय तोपखाना ब्रिगेड मुख्यालय च तैनात था कनै सैह् तिस ब्रिगेड दे अंडर कर्नल दे रैंक च इक मध्यम तोपखाना यूनिट जो कमाँड करा दे थे। 

अपवाद ताँ हर जगह होंदे ही हन्न अपर आमतौर पर फौजियाँ च जातपात कनै धार्मिक कट्टरपन नीं पाया जाँदा है। मैं फौजियाँ जो हर धर्म दियाँ धार्मिक जगहाँ दे साह्म्णे सिर झुकाँदे दिक्खेह्या है। 

जद मैं फौज ते बत्ती साल दी सर्विस करने ते परंत रटैर होई करी असिस्टेंट सेंट्रल इंटेलिजेंस ऑफिसर दे तौर पर अमृतसर दे इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर 2011-13 दे दौरान इमीग्रेशन ऑफिसर दे रूप च कम्म करा दा था ताँ तिस बग्त मिंजो कन्नै इक मुस्लिम जूनियर इंटेलिजेंस ऑफिसर भी कम्म करदा था।  सैह् चौबी-पच्ची साल दा नौजुआन था कनै तिन्नी बी-टेक कित्तेह्या था।  सैह् सभ्य, हंसमुख कनै मेहनती लड़का था।   अमृतसर दे इंटरनेशनल एयरपोर्ट दे सज्जे पासैं इक गुरुद्वारा है।  रात दी शिफ्ट च कम्म करदे इमीग्रेशन अफसराँ च रोज भ्यागा कोई न कोई गुरुद्वारे च जाई नै गर्मागर्म हलुआ लई ओंदा था कनै सारी इमीग्रेशन टीम जो बंडदा था। मैं इक दो इमीग्रेशन अफसराँ जो ग्लाँदे सुणेह्या था कि सैह् लड़का कनै इक होर मुस्लिम लड़का, दोह्यो गुरुद्वारा साहब दा प्रसाद नीं खाँदे थे। मैं फौजी रिहा था इस ताँईं मैं कदी भी इसा गल्ला पर ज्यादा ध्यान नीं दित्ता। मैं सोचदा था शायद तिन्हाँ जो मिट्ठे ते परहेज होंगा। 

इक दिन शायद मैं शिफ्ट इंचार्ज था। इक अलर्ट था कि इक इंटरनेशनल फ्लाइट जेह्ड़ी जयपुर उतरने वाळी थी, कुन्हीं वजहाँ ते अमृतसर उतरी सकदी थी। असाँ तिसा जो निहाळा दे थे।  मैं किछ स्टाफ 'अराईवल'  पासैं छड्डी करी तिस मुस्लिम अफसर सोगी हवाई अड्डे ते बाहर निकळी आया कनै चहलकदमी करना लगी पिया।  इत्तफाकन असाँ गुरुद्वारे पासैं निकळी आये।  तित्थू कुसी पर्व दे मौके पर लंगर चलदा दिक्खी करी मैं तिस अफसर जो ग्लाया, "चला …., प्रशादा छक्की लैंदे।" 

"सर, एह् तुसाँ मिंजो नै ग्लाह् दे?" तिन्नी हैरान होई करी मिंजो ते पुच्छेया। 

"हाँ, मैं तुसाँ नै ही बोला दा, होर कुण है एत्थू?"  मैं तिस्सेयो दस्सेया। 

"सर, मैं इक मुसलमान है, आँइदा मिंजो नै देही गल्ल मत करदे," मैं एह् सुणी करी चुप्प जेहा रही गिया था। 

"कजो, असाँ सारे तुसाँ दियाँ सेबियाँ नीं खाँदे हन्न?" मैं किछ देर चुप रही करी पुच्छेया था। 

"सैह् तुसाँ खाँदे, असाँ नीं," तिसदे चेहरे पर अजीव जेहे भाव सुज्झा दे थे, जेह्ड़े मैं पहलैं कदी भी नीं दिक्खेह्यो थे। 

"अच्छा, तुसाँ एयरपोर्ट चला, जेकर सैह् फ्लाइट आई जाये ताँ मिंजो फोन करना, मैं प्रशादा छकी नै ही औणा है," मैं तिस्सेयो ग्लाया था। 

तैह्ड़ी सब्भ धर्माँ दा आदर करने वाळे इक भूतपूर्व फौजी दा मन बहोत व्याकुल होया था।  कई धारणां कनै मान्यतां खंडित होई गइयाँ थियाँ। 

जद सन् 1991 च यूनिट हाई एल्टीट्यूड ते थल्लैं उतरी ताँ सारी हाई एल्टीट्यूड क्लोदिंग जमा होई गयी थी।  मेरे कोट पार्का दे आउटर दा कुत्थी भी कोई रिकॉर्ड नीं था।  मने च आया कि तिस्सेयो रक्खी लियाँ।  एह् सोची नै कि जद-जद मिंजो सैह् सुझणा मिंजो मेरिया अंतरात्मा धिक्कारना, मैं तिस कोट जो जमा करी दित्ता था।  

 

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समाधियों के प्रदेश में (पच्चीसवीं कड़ी) 

सन् 1989 का वर्ष था।  अरुणाचल प्रदेश के तवाँग के आगे भारत-चीन सीमा के समीप स्थित लुम्पो में मेरे आने के बाद पहली बर्फ पड़ रह थी। वहाँ सर्दी से बचाव के लिए अन्य गर्म कपड़ों के साथ सैनिकों को पहनने के लिए कोट पार्का दिया जाता था। कोट पार्का के दो भाग होते हैं आउटर और इन्नर। मुझे नया कोट चाहिए था। नया इन्नर तो मुझे मिल गया था पर नया आउटर नहीं मिला था अतः मैंने आउटर लिया ही नहीं था। आउटर नमी निरोधक होता है और इन्नर ऊन समेत भेड़ की खाल जैसा दिखता है और गर्म होता है। आउटर तो इन्नर के बिना पहना जा सकता है परंतु इन्नर को आउटर के बिना पहनना सही नहीं रहता। अतः मेरा इन्नर सिरहाने के नीचे रखा रहता था।

मेरे पास एक दूसरा कोट था जो मुझे सेना में भर्ती होने के शुरुआती दिनों में मिला था।  वह कोट मैदानी सर्दी से बचाव के लिये पर्याप्त था परंतु बर्फ़ानी सर्दी के लिए कोट पार्का जितना सक्षम नहीं था। उसका आउटर  कोट पार्का की तरह जल निरोधक था लेकिन डिजाइन कोट पार्का के आउटर से थोड़ा अलग था। जबकि इन्नर मैरून रंग के ऊन मिश्रित मोटे धागे से बुने कपड़े से बना हुआ था।  मैं उस कोट को ही पहन रहा था। 

वहाँ मैं सीओ और टूआईसी साहब के पीए का रोल भी निभा रहा था।  एक दिन दोपहर बाद मुझे सीओ साहब ने एक फाइल ले कर अपने शेल्टरनुमा रेजिडेंस में बुलाया।  उनका रेजिडेंस हमारे दफ्तर से तकरीबन पचास मीटर नीचे की ओर पसरी ढलान पर स्थित था।  मैंने वहाँ जाकर देखा कि सीओ साहब के साथ मेजर रैंक के एक दूसरे अधिकारी भी बैठे थे। वह हिमाचल प्रदेश के हमीरपुर से संबंध रखते थे। मैंने सीओ साहब को सल्यूट किया। अंदर जाते समय मुझे उन्होंने सर्दी से काँपते देख लिया था। सीओ साहब ने मुझे देखते ही सवाल किया, "ओए भगत, तेरे कोळ कोट पार्का नीं है?" 

"नहीं सर, इनर है आउटर नहीं है," मेरा जवाब था। 

"ओए शादी राम, भगत राम के लिए एक ब्राँडी का लार्ज पेग लेके आ," उन्होंने अपने सहायक को आवाज लगाई थी। 

लाँस नायक शादी राम एक शीशे के गिलास में ब्राँडी डाल कर ट्रे में रख कर ले आये। "गर्म पानी मिलाया न," सीओ साहब ने शादी राम से पूछा।  उसने हाँ में सिर हिलाया। सीओ साहब फिर मेरी तरफ देख कर आदेशात्मक लहजे में बोले, "काके, इह्नु इक ही साह च गिटक जा, तेरी ठंड फुर हो जाबेगी।" 

जैसे ही मैं ब्राँडी समाप्त करके मुड़ा, सीओ साहब ने बुखारी के दूसरी ओर बैठे उन मेजर साहब की ओर देख कर कहा, "देखा कबीर, तेरे ग्राँईं दे कोळ कोट पार्का नीं है, क्या फायदा यार!" 

मेजर सुंदर दास कबीर उस यूनिट के क्वार्टर मास्टर थे। उन्होंने मुझे कहा, "मुन्नू, मेरे कमरे में जा, वहाँ दीवार के साथ हेंगर में एक नया आउटर लटका है, उससे रैंक उतार कर मेज पर रख दे और उसको अपने कोट के ऊपर पहन कर आ जा।" 

मुझे पता नहीं था कि क्वार्टर मास्टर का  रेजिडेंस  कहाँ है। मैंने इशारे से लाँस नायक शादी राम को बाहर बुला कर पूछा तो पता चला कि उनका रेजिडेंस नीचे की ओर जाती सीढ़ीदार पगडंडी के बायीं तरफ, वहाँ से तकरीबन पच्चीस-तीस मीटर की दूरी पर, एक शेल्टर में था।  मैं उस तरफ चल दिया।  शेल्टर के दरवाजे की बायीं ओर बाहर  क्वार्टर मास्टर साहब की नेमप्लेट लगी हुई थी।  दरवाजा बाहर से खुला था।  मैं दरवाजा धीरे से धकेल कर अंदर दाखिल हुआ तो दायीं ओर मुझे यूनिट के मेडिकल ऑफिसर कैप्टन रेड्डी दिखाई दिये।  वह कुर्सी पर बैठ कर कुछ पढ़ रहे थे और टेबल पर शराब का गिलास रखा हुआ था।  मैं दबे पाँव बाहर निकल आया। क्वार्टर मास्टर साहब की नेम प्लेट को एक बार फिर पढ़ा। तभी मेरी नज़र दरवाजे की दायीं तरफ डॉक्टर साहब की नेम प्लेट पर पड़ी।  समझ में आ गया कि उस शेल्टर में दो कमरे थे जिनका दरवाजा एक ही था।  

मैंने दरवाजे पर खड़े होकर, "मे आई कम इन, सर" कह कर अंदर जाने की आज्ञा माँगी।  डॉक्टर साहब ने मुझे अंदर बुला लिया। मैंने कैप्टन साहब को सेल्यूट किया। डॉक्टर साहब मुझे जानते थे। "भगत, कैसे आना हुआ?" उन्होंने पूछा। "सर, मुझे क्वार्टर मास्टर साहब का कोट लेना है," मैंने उन्हें बताया। "ठीक है, पहले यह बताओ क्या लोगे व्हिस्की, ब्राँडी या रम?" उन्होंने पूछा।  "सर, एक पेग ब्राँडी, बस" मैंने अपनी चॉइस बताई थी। उन्होंने एक पेग से कुछ अधिक ब्राँडी गिलास में डाली। मैंने टेबल पर रखी थर्मोस बोतल से उसमें पानी मिलाया और एक ही साँस में ब्राँडी को पी गया। कोट लेकर मैंने डॉक्टर साहब से जाने की आज्ञा माँगी, "अच्छा सर, चलता हूँ" और उन्हें सेल्यूट किया। 

बाहर बर्फ की फाहे पड़ रहे थे। मैं सीओ साहब के रेजिडेंस की तरफ तेजी से चले जा रहा था। ब्राँडी अपना असर तेजी से दिखाने लग पड़ी थी।  मुझे डर लग रहा था सीओ साहब मेरे डगमगाते कदम देख कर और लड़खड़ाती आवाज सुन कर क्या सोचेंगे।  सीओ साहब के रेजिडेंस में आकर मैं लाँस नायक शादी राम से मिला और उन्हें सीओ साहब को मेरे आने की सूचना देने को कहा।  कुछ देर के बाद शादी राम ने मुझे सीओ साहब का संदेश दिया जिसके अनुसार उस फ़ाइल पर अगले दिन दफ्तर में काम होना था और मुझे वापस लौट जाना था। मुझे राहत मिली और मैंने नशे में तेज कदमों से अपने रेजिडेंस की तरफ चढ़ना शुरू कर दिया था। 

उपरोक्त घटना के लगभग तीन महीने उपराँत एक दिन क्वार्टर मास्टर साहब ने मेरे दफ्तर से होकर गुजरते हुए मुझे आवाज लगाई, "ओ मुन्नू, मेरी नई विल (वसीयत) बना दे।" 

"सर, आपकी पहले की विल तो है, उसमें कोई चेंज है क्या?" मैंने पूछा था। 

"नहीं, कोई चेंज नहीं। बस तू नई विल बना दे और आर्मी हैडक्वार्टर भेज दे। उन्होंने मुझ से माँगी है।" उनका उत्तर था। 

आर्मी ऑर्डर के अनुसार सैनिकों की वसीयत नपे तुले शब्दों में एक ए-4 साइज़ के पेपर जितनी होती है।  मेरे पास उसके फॉर्म पहले ही समाप्त हो चुके थे।  मैंने टाइपराइटर से स्टेंसिल काट रखी थी लेकिन सायकलोस्टाइलिंग मशीन की स्याही खत्म होने के कारण उसकी प्रतियाँ नहीं निकाल पाया था।  गुवाहटी से स्याही आने में देर हो रही थी।  मैंने क्वार्टर मास्टर साहब की वसीयत को पेंडिंग काम में रख दिया था। 

एक दिन शाम को क्वार्टर मास्टर साहब जब अपने निवास स्थान से अपने कार्य स्थल में लगभग पचहत्तर मीटर की सीढ़ीदार पगडंडी चढ़ कर आये तो उन्हें अकस्मात ब्रेन स्ट्रोक हुआ और वह अपने ऑफिस की दहलीज पर गिर कर बेहोश हो गए।  दुर्भाग्य से उस समय यूनिट के डॉक्टर कैप्टन रेड्डी लुम्पो में नहीं थे। वह उस दिन सुवह ही अग्रिम पंक्ति पर तैनात एक इन्फैंट्री बटालियन से जा मिले थे जहाँ के डॉक्टर साहब आकस्मिक अवकाश पर घर गए हुए थे। लुम्पो में उस समय तवाँग से आए हुए एक डॉक्टर थे जो अपेक्षाकृत कम तजुर्बेकार थे।  

कैप्टन रेड्डी को जब क्वार्टर मास्टर साहब के बारे में पता चला तो वह अपने मित्र और मार्गदर्शक के प्राण बचाने के लिए बेचैन हो उठे थे। उन्होंने लुम्पो आने की आज्ञा माँगी थी लेकिन उस इलाके में बर्फबारी के दौरान रात को सफर करना सुरक्षित नहीं था अतः उन्हें आज्ञा नहीं मिली थी।  यूनिट के सेकंड-इन-कमाँड, तब तक पुराने सीओ का तबादला हो जाने पर, कमाँडिंग अफसर बन गए थे। उन्होंने क्वार्टर मास्टर साहब को रात को हेलीकॉप्टर से तवाँग ले जाने के प्रयास किये, परंतु सफलता नहीं मिली। उस रात लुम्पो के ऊपर चीता हेलिकॉप्टर मंडराया पर कई प्रयास करने के बाबजूद  हेलीपैड पर उतरने में असफल रहा। 

कैप्टन रेड्डी के कहने पर, क्वार्टर मास्टर साहब के बिस्तर के पास, एक टेलीफोन की व्यवस्था की गई जिससे वह रात भर  लुम्पो में तैनात डॉक्टर को निर्देश दे कर मेजर साहब का हर संभव उपचार करते रहे। आसपास की पोस्टों से ऑक्सीजन सिलेंडर इकट्ठे करके प्रचुर मात्रा में ऑक्सीजन की व्यवस्था की गई। जब अगली सुबह हेलीकॉप्टर लुम्पो हेलीपैड पर उतरा तो समस्त यूनिट ने क्वार्टर मास्टर साहब को, उनके जीवन की सलामती के लिए प्रार्थना करते हुए, भावभीनी विदाई दी। अफसरों और जवानों की आखों में आँसू छलक रहे थे। क्वार्टर मास्टर साहब को तवाँग के हस्पताल में पहुंचा कर 'चीता' वापस आया। उसमें सीओ साहब के साथ एक अफसर और एक जेसीओ भी तवाँग गये थे। 

नीलिया में स्थित अपनी अग्रिम तोपखाना बैट्री के साथ मेजर सेमसन थे परंतु लुम्पो में तैनात दो लड़ाकू बैट्रियों और एक हेडक्वार्टर बैट्री के साथ केवल एक अफसर ही बचे थे जो यूनिट के एडजुटेंट भी थे।  मैं उनके अधीन काम करता था। उन अफसर का नाम था मेजर मुश्ताक़ मोहम्मद हुसैन।  मेजर मुश्ताक़ बंगलुरू के रहने वाले थे।  उन्होंने मुझ से कहा, "भगत, जवानों को मैसेज दो कि ब्रेकफास्ट के बाद सभी मंदिर में चल कर मेजर कबीर साहब की जिंदगी के लिए प्रार्थना करेंगे।"  उस दिन बहुत कम जवानों ने ब्रेकफास्ट किया था। 

सभी अहीर सैनिक मंदिर में तन्मयता के साथ कृष्ण भजन गा रहे थे। ढोल, मंजीरे, चिमटे बज रहे थे। उस दिन मंदिर में हर कोई जोर लगा कर भजन गा रहा था। तालियों की तेज आवाज उन बेदर्दी पहाड़ों में गूंज रही थी।  मैंने देखा था मुझ से आगे दरी पर बैठे मेजर मुश्ताक़ भी जोर-जोर से तालियाँ बजा रहे थे और जवानों के साथ भजन गा रहे थे। हर कोई क्वार्टर मास्टर साहब की सलामती के लिए प्रार्थना कर रहा था। 

तकरीबन एक घण्टे के बाद उस दिन के 'डियूटी क्लर्क' का 'रनर' मंदिर में आया और उसने झुक कर मेजर मुश्ताक़ के कान में कुछ कहा।  मेजर मुश्ताक़ उठे, मूर्तियों को प्रणाम किया और मंदिर के बाहर चले गये।  कुछ देर बाद 'रनर' फिर आया और उसने मेरे कान में कहा कि एडजुटेंट साहब मुझे ऑफिस में बुला रहे हैं।  मैंने भी माथा टेका और मंदिर के बाहर चला गया। भजन-कीर्तन चलता रहा। 

जैसे ही मैंने एडजुटेंट साहब के ऑफिस में प्रवेश किया मैंने देखा कि वह बिलख-बिलख कर रो रहे थे।  उन्होंने रोते-रोते मुझे बताया कि मिलिट्री हॉस्पिटल गुवाहटी से फोन आया है कि मेजर कबीर नहीं रहे। सुन कर मुझे भी रोना आ गया।  कुछ देर बाद मेजर मुश्ताक़ शांत हुए और उन्होंने मुझ से पूछा, "अब क्या करना है?" मैंने उन्हें बताया कि इस पर एक स्पेशल आर्मी ऑर्डर है जिसके मुताबिक हमें अगली कार्रवाई करनी है।  मैंने साथ ही सटे अपने ऑफिस से वह आर्मी ऑर्डर निकाल कर उनके सामने रख दिया।  तदोपराँत हमने  आर्मी ऑर्डर के अनुसार रिपोर्टिंग और कार्रवाई शुरू कर दी।  तभी मैंने मेजर मुश्ताक़ साहब को बताया कि मुझ से एक चूक हो गयी थी मुझे क्वार्टर मास्टर साहब ने अपनी 'विल' बनाने के लिए कहा था जिसे बनाने में देरी हो गई अब उस पर साइन कैसे होंगे।  एडजुटेंट साहब ने कहा था, "कोई बात नहीं, आप विल ले आईए और मेजर कबीर द्वारा किये गये साइनों वाला कोई कागज़ भी।"  मैंने वैसे ही किया।  मेजर मुश्ताक़ ने ट्रेस करके 'विल' पर हूवहू मेजर कबीर के साइन कर दिए।  मेरे दिल से एक बोझ उतर गया परंतु मलाल रहा कि मैं क्वार्टर मास्टर साहब के जीवित रहते विल पर उनके हस्ताक्षर नहीं ले पाया था। 

मेजर मुश्ताक़ के साथ मैंने लगभग तीन वर्ष तक कार्य किया।  उनके यूनिट में रहते ही मैं नायब सूबेदार बन गया था।  कारगिल युद्ध में मेजर मुश्ताक़ मोहम्मद हुसैन ने भारतीय सेना के तोपखाने के फॉरवर्ड ऑब्जरवेशन ऑफिसर के तौर पर अपने कर्त्तव्य का निर्वहन करते हुए कठिन टारगेट रजिस्टर किये और तोपों से शत्रुओं पर बेहद कारगर फायर गिराया था।  जिसके लिए उन्हें सेना मैडल (वीरता) से सम्मानित किया गया था। उनसे मेरी अगली मुलाकात फिर अरुणाचल प्रदेश में ही 2004-05 में हुई थी।  उस समय मैं सूबेदार मेजर के रूप में एक पर्वतीय तोपखाना ब्रिगेड मुख्यालय में तैनात था और वह उसी ब्रिगेड के अधीन कर्नल के रैंक में एक मध्यम तोपखाना यूनिट को कमाँड कर रहे थे। 

अपवाद तो हर जगह होते ही हैं परंतु आमतौर पर सैनिकों में जातपात व धार्मिक कट्टरपन नहीं पाया जाता है। मैंने सैनिकों को हर धर्म के धार्मिक स्थलों के सामने सिर झुकाते देखा है। 

जब मैं सेना से बत्तीस वर्ष का कार्यकाल पूरा करने के उपराँत सेवानिवृत्त हो कर असिस्टेंट सेंट्रल इंटेलिजेंस ऑफिसर के तौर पर अमृतसर स्थित अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर 2011-13 के दौरान इमीग्रेशन ऑफिसर के रूप में कार्यरत था तो उस समय मेरे साथ एक मुस्लिम जूनियर इंटेलिजेंस ऑफिसर भी काम करता था।  वह चौबीस-पचीस वर्ष का नौजवान था और उसने बी-टेक किया हुआ था।  वह शालीन, हंसमुख और मेहनती लड़का था।  अमृतसर के अंतराष्ट्रीय हवाई अड्डे के दायीं ओर एक गुरुद्वारा है।  रात की शिफ्ट में काम कर रहे इमीग्रेशन अधिकारियों में से हर सुबह कोई न कोई गुरुद्वारे में जाकर गर्मागर्म हलवा ले आता था और सारी इमीग्रेशन टीम में बांटता था। मैंने एक दो इमीग्रेशन अधिकारियों को कहते सुना था कि वह लड़का और एक अन्य मुस्लिम लड़का दोनों गुरुद्वारा साहब का प्रसाद नहीं खाते थे। मैं फौजी रहा था अतः मैंने कभी इस बात पर अधिक ध्यान नहीं दिया। मैं सोचता था शायद उन्हें मीठे से परहेज हो। 

एक दिन सम्भवतः मैं शिफ्ट इंचार्ज था। एक अलर्ट था कि एक अंतरराष्ट्रीय उड़ान जो जयपुर में उतरने वाली थी, किन्हीं कारणों से अमृतसर उतर सकती थी। हम उसका इंतजार कर रहे थे।  मैं कुछ स्टाफ 'आगमन' की तरफ छोड़ कर उस मुस्लिम अधिकारी के साथ हवाई अड्डे के बाहर निकल आया और चहलकदमी करने लगा।  संयोगवश हम गुरुद्वारे की तरफ निकल आये।  वहाँ किसी पर्व के अवसर पर लंगर चलता देख कर मैंने उस अधिकारी से कहा, "चलो …., प्रशादा छकते  हैं।" 

"सर, यह आप मुझ से कह रहे हैं?" उसने आश्चर्य चकित हो कर मुझ से पूछा। 

"हाँ, मैं आप से ही कह रहा हूं, और कौन है इधर?"  

"सर, मैं एक मुस्लिम हूँ, आँइदा मुझ से ऐसी बात मत कीजिएगा," मैं यह सुन कर अवाक सा रह गया। 

"क्यों, हम लोग आप की सेवियाँ नहीं खाते हैं?" मैंने कुछ देर चुप रह कर पूछा। 

"वो आप खाते हैं, हम नहीं," उसके चेहरे पर अजीव से भाव दिख रहे थे जो मैंने पहले कभी नहीं देखे थे। 

"अच्छा, आप एयरपोर्ट चलो अगर वह फ्लाइट आ जाए तो मुझे फोन करना, मैं प्रशादा छक कर आऊंगा," मैंने उसे कहा था। 

उस दिन सभी धर्मों का आदर करने वाले एक भूतपूर्व सैनिक का मन बहुत उद्विग्न हुआ था।  कई धारणाएं और मान्यताएं खंडित हो गई थीं। 

जब सन् 1991 में यूनिट हाई एल्टीट्यूड से नीचे उतरी तो समस्त हाई एल्टीट्यूड क्लोदिंग जमा हो गयी थी।  मेरे कोट पार्का के आउटर का कहीं कोई रिकॉर्ड नहीं था।  मन में आया कि उसे रख लूं। यह सोच कर की जब-जब मुझे वह दिखाई देगा मुझे मेरी अंतरात्मा धिक्कारेगी, मैंने उस कोट को लौटा दिया था।

       भगत राम मंडोत्रा हिमाचल प्रदेश दे जिला कांगड़ा दी तहसील जयसिंहपुर दे गरां चंबी दे रैहणे वाल़े फौज दे तोपखाने दे रटैर तोपची हन।  फौज च रही नैं बत्ती साल देश दी सियोआ करी सूबेदार मेजर (ऑनरेरी लेफ्टिनेंटदे औद्धे ते घरे जो आए। फौजी सर्विस दे दौरान तकरीबन तरताल़ी साल दिया उम्रा च एम.. (अंग्रेजी साहित्यदी डिग्री हासिल कित्ती। इस ते परंत सठ साल दी उम्र होणे तिकर तकरीबन पंज साल आई.बी, 'असिस्टेन्ट सेंट्रल इंटेलिजेंस अफसरदी जिम्मेबारी निभाई।

      लिखणे दी सणक कालेज दे टैमें ते ही थी। फौज च ये लौ दबोई रही पर अंदरें-अंदरें अग्ग सिंजरदी रही।  आखिर च घरें आई सोशल मीडिया दे थ्रू ये लावा बाहर निकल़ेया।

     हाली तिकर हिमाचली पहाड़ी च चार कवता संग्रहजुड़दे पुलरिहड़ू खोळूचिह्ड़ू-मिह्ड़ूफुल्ल खटनाळुये देछपी चुक्केयो। इक्क हिंदी काव्य कथा "परमवीर गाथा सेकंड लेफ्टिनेंट अरुण खेतरपाल - परमवीर चक्र विजेताजो सर्वभाषा ट्रस्टनई दिल्ली ते 'सूर्यकांत त्रिपाठी निराला साहित्य सम्मान 2018' मिली चुकेया।

    हुण फेस बुक दे ज़रिये 'ज़रा सुनिए तोकरी नैं कदी-कदी किछ न किछ सुणादे रैंहदे हन।