पहाड़ी भाषा दी नौई चेतना .

Saturday, March 27, 2021

कुशल कुमार दियां तिन कवतां

 


 पेश हन कुशल कुमार होरां दियां तिन्न पहाड़ी कवतां कनै तिन्हां दे हिन्दी अनुवाद। अनुवाद कुशल होरां अप्पू ही कीत्तयो। कुशल होरां तिन्हां हिमाचली पहाड़ी लेखकां चा ते हन जिन्हां दा जन्म हिमाचल ते बाह्र महाराष्ट्र मुंबई च होया कनै जीवन भी मुंबई च ई बीत्तेया। कुशल होरां मुंबई दे हिमाचलियां दियां संस्थां च कम्मैं लगी रैंह्दे। तुसां हिमाचल मित्र पत्रिका दे संपादक भी थे। मूह्रली तस्वीर द्विजेंद्र द्विज होरां ते मिल्लयो है।

 

।। पहाड़ी रचना ।।

1.  मिंजो नै नौंआ नीं होया

सबनां ने इह्यां ही हौंदा

होणे जीणे दियां मेंदा

मते सारे सुपने

चाही दी मती सारी तकदीर

एह् छत्तियां छींडयां वाळा घड़ा

कुछ भी करा

नीं भरोंदा

अणमिले दिक्‍खी मुंहें पाणी औंदा

नज़रां दा फेर है

दूरे ते लगदा

उप्पर जाई दिखा ता

उच्चे ते उच्चा पहाड़ भी

अँबरे ते बड़ी हेठ होंदा

कुस दी शकायत करिये

पड़ेसी हस्‍सा दा था

मैं भी हसया

इक रोज़ मिंजो रोणा आया

ता पड़ेसी मुस्कड़ाया

तिसदी एह् गल

मिन्जो बड़ी बुरी लगी

पर पता नीं क्या होया

इक रोज़ तिस जो भी रोण आया

मैं बड़ीया मुश्कला नें लबड़ां जिक्की

रोकया हासा

इह्यां ही पाळी झूठीयां मेदां

कई मरी गै

ठंडे पाणीये च सळोही

दिया वणी कुण बळै

असां भी न्हेरीयां कूणा पई रैह्णा

जियां सारे जिया दे

असां भी जी लैणा

फिरी भी कुछ ता है

असां होरना ते मेद करदे

असां हस्सन ता सैह् भी हस्सन

असां रोह्ण ता सैह् भी रोह्ण

पर इह्यां नी होंदा

रोंदयां कनैं कोई नी रोंदा


2.  हुण टार्चां दा रुआज  है

मसालां बुझी

मुकी गईयां

हुण टार्चां दा रुआज है

अपणी-अपणी टार्च

अपणी-अपणी लौ

अपणी-अपणी बत है

न्‍हेरा इक है

लग-लग टार्चां दा

लग-लग सच है

सच लग-लग सही

पर टार्चां दा दुख इक है

लोग पचांह् चलदे

ता नजारा ही

किछ होर होणा था

कजो कुसी अज

न्हेरें सौणा था

अपण्यिा ही लोई ने भ्‍याह्खियां

टार्चां जो कुण समझाये

टार्चां  पचांह् होणा

न्हेरें होणा है

न्हेरें गेंए् देणे ते पेह्लें

जमीन टोळ्णा पोंदी

जमीना टोळदे लोक

पिच्‍छें छुटी  गैए

टार्चां गांह लंह्गी गईयां

अपण्यां-अपण्यां

दुखां-सोचां मस्त टार्चां वाले

मसालां टोलदयां

लोकां जो टाळा दे

बचारे मजबूर हन

पेटे दा सवाल है

पुश्तां ते मसालां

चुल्हे बाळा दे

जायज-नाजायज बच्चयां पाळा दे

 

3. मता किछ नीं चाही दा

मुठ भर अंबर

बित भर जमीन

निंद भर सुपने

जग भर अपणे

मने जो मित्‍तर

तने जो कित्‍तर

पैरां जो छित्तर

हत्था जो सूतर

अपुं ते बड्डी तकदीर

 

चाही नै मिल्लै

बाह्ई नै लग्गै

घमरोई ने बरैह्

सरायी ने सरै

फुलाई ने फुल्लै

खिलाई ने खिल्‍लै

खोह्ड़ी ने खुड़ै

उड़ाई ने उड़ै

मोड़ी ने मुड़ै

जोड़ी ने जुड़ै

अप्पू ते बड्डी तदबीर

 

नचायी नै नच्चै

सचायी नै  सच्चै

सजायी नै सज्जै

बसायी ने बसै

हसायी ने हसै

रंगाई नै रंगोऐ

संगारी ने संगरोऐ

अप्पू ते बड्डी तस्वीर


।। हिन्‍दी पुनर्रचना ।।


1. मेरे साथ नया नहीं हुआ

 

सभी के साथ यों ही होता है

होने जीने की उम्मीदें

बहुत सारे सपने

चाहिए बहुत सारी तकदीर

यह छतीस सुराखों वाला घड़ा

कुछ भी करो

भरता नहीं है

अनमिले को देख मुंह में पानी आता है

नजरों का फेर है

दूर से लगता है

ऊपर जाकर देखो तो

ऊंचे से ऊंचा पहाड़ भी

आसमान से बहुत नीचे होता है

किसकी शिकायत करें

पड़ोसी हंस रहा था

मैं भी हंसा

एक रोज मुझे रोना आया

तो पड़ोसी मुस्कुराया

उसकी यह  बात

मुझे बहुत बुरी लगी

पर पता नहीं क्या हुआ

एक रोज उसे भी रोना आया

मैंने बड़ी मुश्किल से होंठों को दवा

रोकी हंसी

यूं ही पालकर झूठी उम्मीदें

कई मर गए

ठंडे पानी में ठंड से

दीपक बन कौन जले

हम भी अंधेरे कोने में पड़े रहेंगे

जैसे सब जीते हैं

हम भी जी लेंगे

फिर भी कुछ तो है

हम दूसरों से उम्मीद करते हैं

हम हंसे तो वह भी हंसे

हम रोए तो वह भी रोए

पर ऐसा नहीं होता है

रोतों के साथ कोई नहीं रोता है

 

2. अब टार्चों का रिवाज है

 

मशालें बुझ कर

खत्म हो गईं

अब टार्चों का रिवाज है

अपनी-अपनी टार्च

अपनी-अपनी रोशनी

अपना-अपना रास्ता है

अंधेरा एक है

अलग-अलग टार्चों का

अलग-अलग सच है

सच अलग सही

पर टार्चों का दुख एक है

लोग पीछे  चलते

तो नजारा ही

कुछ और होना था

क्यों किसी ने आज

अंधेरे में सोना था

अपनी ही रोशनी से चकाचौंध

टार्चों को कौन समझाए

टार्चों के पीछे होना

अंधेरे में होना है

अंधेरे में कदम उठाने से पहले

जमीन तलाशना पड़ती है

जमीन टटोलते लोग

पीछे छूट गये

और टार्चें आगे निकल गईं

अपने-अपने

दुखों-सोचों में मस्त टार्च वाले

मशाल ढूंढ़ते

लोगों को टाल रहे हैं

बेचारे मजबूर हैं

पेट का सवाल है

पुश्तों से मशालें

चूल्हे में बाल रहे हैं

जायज-नाजायज बच्चों को पाल रहे हैं

 

3. बहुत कुछ नहीं चहिए

 

मुट्ठी भर आसमान

हाथ  भर जमीन

नींद भर सपने

जग भर अपने

मन को मीत

तन को चीर

पेरों को चप्पल

हात्थों को धागे

अपने से बड़ी  तकदीर

 

चाहने से  मिले

बोने से लगे

घिर कर बरसे

सुलझाने से सुलझे

फुलाने से फूले

खिलाने से खिले

खोलने से खुले

उड़ाने से उड़े

मोड़ने से मुड़े

जोड़ने से जुड़े

अपने  से बड़ी तदबीर

 

नचाने से नाचे

चिपकाने से चिपके

सजाने से सजे

बसाने से बसे

हंसाने से हंसे

रगंने से रंगे

संबारने से संबर जाए

अपने  से बड़ी तस्वीर

                                    .......................


                                    
                                    कुशल कुमार