पहाड़ी भाषा दी नौई चेतना .

Friday, October 25, 2024

मुंबई डायरी

 


अपणिया जगह छड्डी लोक मुंबई पूजे। न अपणे ग्रां भुल्ले, न शहर छुट्या। जिंदगी पचांह् जो भी खिंजदी  रैंह्दी कनै गांह् जो भी बदधी रैंह्दी। पता नीं एह् रस्साकस्सी है या डायरी। कवि अनुवादक कुशल कुमार दी मुंबई डायरी दी त्री किस्त पढ़ा पहाड़ी कनै हिंदी च सौगी सौगी। 

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सारेयां दी क्हाणी इक्क ई थी  


पहाड़ी बोलणे कनैं होणे दा एह् कठेवा इक जरूरत भी था। तैह्ड़ी सारे ही लोग अपणियां-अपणियां भासां च गल करदे थे। सारयां ताईं हिंदी बोलणा सैह्ज नीं था। बोलणे आळे दिया हिंदिया ते तिस दिया बोलिया-भासा ता पता लगी जांदा था। ग्रां ते ओणे वाळे बजुरगां कनैं याण्‍यां ताईं एैत्‍थु भासा नैं तार जोड़ने च बड़ी मुश्‍कल होंदी थी। ग्रांए ते आईयो इक कुड़ी बसुआर मंगी जाए। दकानदारें मिंजो हक पाई ता तिसा जो बसुआर मिल्ला। सैह् दकानदार इसा गल्ला ताईं कई दिनां तक हसदा रिह्या। तिसदा गुजराती लैहजे च बसुआर गलाणा भी मजेदार लगदा था। 

अंग्रेजिया दा रौब ता था पर सैह् देसे दियां देसी भासां ते बडि़यां उम्‍मीदां दा दौर था। मु्ंबई नगरपालिका दे हिंदी स्‍कूले च मिंजो कनै तेलगू, उडि़या कनैं गोआ दे कोंकणी भासी बच्‍चे भी पढ़ा दे थे। देसे जो अजाद होयो मुश्‍कला ने बीह् साल होयो थे। महात्‍मा गांधी जी दे बचार कनै भासा प्रेम लोकां जो रस्‍ता दस्‍सा  दा था। लोकां जो लगदा था ओणे आळा वग्‍त हिंदी कनैं देसी भासां दा है। एह् लग गल है कि इस बैह्मे ते मुक्‍त होणे ताईं जादा टेम नीं लग्गा। 

अपणे पहाड़ी भाऊ जादातर टैक्सियां ही चलांदे थे। मिल्लां च कनै दुईयां नौकरियां करने वाले बड़े घट लोक थे। टैक्सियां चलाणे वाळयां च त्रे किस्‍मां थियां। इक टैक्सी मालक, दुअे बगानी टेक्‍सी चलाणे वाळे कनैं त्रिए टैक्सियां धोई ने टेक्‍सी डरेबर बणने दी ट्रेनिंग लैणे वाळे। राती जो डरेबरां दा खाणा बणाणा भी ट्रेनिंगा दा हिस्‍सा था।

इकी-इकी खोळिया (कमरे) च पंज-पंज, सत-सत रैंह्दे थे। कोई नितनीम नीं, अपणे साह्बे ने गड्डी कडणे कनैं बंद करने दी अजादी थी। मेरे बक्‍खें छड़े रैंह्दे थे। तिन्‍हां दा ता ऐह् हाल था कि सारे भांडे चळे च ही रैंह्दे थे। जिस भांडे दी जरूरत पौंदी थी तिस जो मांजी ने कम्‍म चलाई लैंदे थे। टैक्‍सी मालक कनैं फिक्‍स टैक्सी चलाणे आळयां जो ता फिरी भी फिकर होंदी थी। 

दुअे डरेबरां दिया छुट्टिया ध्‍याड़ी तिसदी गड्डी चलाणे आळे पतरकारां, लखारियां, कलाकारां साही फ्रीलांस होंदे थे। इन्‍हां जो इक दिन पैह्लें साई देई नैं बुक करना पोंदा था। चा:ई दी दुकान इन्‍हां सारयां दा अड्डा होंदा था तित्‍थू भ्‍यागा-भ्‍यागा सारे चा:ई दे बहानें कठरोंदे थे। जेह्ड़ा राती साई देणा भुली गिया होए सैह् ताह्लू चाबी पकड़ाई छुट्टी करी लैंदा था। 

इक साह्ब थे तिन्‍हां दा नां याद नीं ओआ दा। सैह् सारिया मुंबई दे पहाड़ियां च ठाकरे दे नाएं ते मशहूर थे। तिन्‍हां दी भासा कनैं गलबात करने दा तरीका ठाकरी था। सैह् छे बजे ते पैह्लें तयार होई ने चा:ई दिया दुकाना पूजी जांदे थे। इक घंटा इंतजार करने ते बाद सैह् नोटांक (पेग) चढ़ाई लेंदे थे। फिह्री तिन्‍हां जो कोई गड्डी चलाणे ताईं नीं पुच्छी सकदा था। पुछणे आळे दी ठाकरी क्‍लास लगी जांदी थी। एह् कोई टैम है, गलाणे दा, राती क्‍या होया था। अब अपण ने छुट्टी कर लई है…….. 

जिन्‍हां दी गड्डी पटरिया पर थी सैह् ठीक थे। कुछ लोकां दा ता ऐह् हाल था कि दो-तिन दिन कमाणा कनैं चार दिन ताश कुटणी कनैं पीणा। ताश कनैं पीणे च ता लगभग सारे ही शामल थे पर जेह्ड़े राती जो पींदे थे। तिन्‍हां दी किश्‍ती ता फिरी भी तरा दी थी। जिन्‍हां जो राती दिने दा भान ही नीं था। तिन्‍हां दा ता बेड़ा पार ही था। एह् देह्ये इक दो ही होंदे थे। 

ताशा दी मैह्फिल छड़यां दिया खोळिया च भ्‍यागा ही सजी जांदी थी। राती 8 पीएम वाळी घंटी बजणे तक चलदी रैंह्दी थी। सैह् ताशा च रमिया ने मिलदा-जुलदी सीप खेलदे थे। मैं जादातर पहाड़िए ही इस खेला जो खेलदे दिक्‍खे। इस जो पैसयां लाई जुअे साही भी खेली सकदे कनैं बगैर पैसयां ते भी। खेलणे आळयां सौग्‍गी दिक्‍खणे आळयां जो भी मजा ओंदा था। एह् डरेबर भाऊ जादातर चा:ई दी बाजी लांदे थे। खेलणे कनैं दिक्‍खणे आळे बदलोंदे रैह्दें थे पर चाह कनैं गप-गड़ोंजयां दी मैह्फिल चलदी रैंह्दी थी। 

गलांदे न ताश करे सत्‍यानाश। सीपा खेलणे वाळे गलांदे थे हारणे वाळे पर खोती होई गई। इत कई माह्णुआं दियां जिंदगिया पर खोती होई गई। दिन ताश कुटणे च बीती जांदा था राती नौशादरे वाळी गैरकानूनी दारु। होशा ताईं टेम ही नीं था। 

होर जादा मनोरंजन नीं थे। एह् दोह्यो व्‍यसनी-एडीक्‍ट बणाणे वाळे थे। ऊपरे ते दिहाड़ियां वाळा टैक्‍सी चलाणे दा रोजगार। दिहाड़ी भले ही ठीक थी पर लगणा ता चाही दी। न फंड-बोनस, न छुट्टी-रिटायरमेंट, न मेडिकल, न बीमा। रोज खूह् खुणना, रोज पाणी पीणा। जे बमारी-समारी लम्‍मी होई जाए ता न खांदया खाण न मंजे बाण वाळा हाल होई जांदा था। ताह्लू एह् पहाड़ी होणे वाळा कठेवा ही कम्‍में ओदा था। 

हालातां ते न्‍हट्ठी नैं मुंह लकाणे वाळी लापरवाही सोच दा हिस्‍सा थी। घह्रें भेजणे जोगी कमाई ता होई जांदी थी पर ग्रांए जो जाणे मुजब पैसे नीं कठरोंदे थे। इह्यां टेम बीतता रैह्ंदा था। मेरे बक्‍खें इक भाई रैंह्दे थे। काफी तेज थे, मिल्ला च यूनीयन लीडरी, गोआ ते सोना अणने दी फेल कोशश हारी-फारी टैक्‍सी डरेबरी। तिन्‍हां दी माता जी इन्‍हां जो मुल्‍खें नी नै ब्‍याह करने ताईं दो बरी आए। पैह्ली बरी इन्‍हा गप्‍पां च टाळी ने माता जी भेजी ते अप्‍पू नीं गै। माता जी जबरदस्तिया नैं ही  इन्‍हां दा ब्‍याह होया। हुण एह् अपणे टबरे सौग्‍गी हिमाचल च रैहा दे। 

ओपरिया नजरां नैं दिक्‍खिए ता इक मस्‍ती थी। रोज पैसे ओंदे, रोज मुकी जांदे पर जिंदगी रामे नै चलदी थी। कोई परबंध नी, बचत नीं। जिन्‍हां टबर मुंबई लई अंदे तिन्‍हां दा इक अध खोळिया दा जुगाड़ होई गिया। छड़यां ते एह् बी नीं होई सकया। किरदार मते थे पर सारयां दी क्‍हाणी इक ही थी।  



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हर एक की कहानी एक ही थी    

पहाड़ी बोलने और होने का यह भाईचारा एक जरूरत भी था। तब सभी लोग अपनी-अपनी भाषा में ही बात करते थे। सब के लिए हिंदी बोलना सहज नहीं था। बोलने वाले की हिंदी से उस की बोली-भाषा का पता चल जाता था। गांव से आने वाले बुर्जगों और बच्‍चों को यहां की भाषा से तार जोड़ने में बड़ी मुश्किल होती थी। गांव से आई एक लड़की बसुआर मांग रही थी। दुकानदार ने मुझे आवाज दी तब उसे हल्‍दी मिली। व‍ह दुकान वाला कई दिन तक इस बात पर हंसता रहा। उसके गुजराती लहजे में बसुआर बोलना भी मजेदार लगता था। 

अंग्रेजी का रुतबा तो था पर वह देश की देसी भाषाओं से बड़ी उम्‍मीदों का दौर था। मु्ंबई नगरपालिका के हिंदी स्‍कूल में मेरे साथ तेलगू, उड़िया और गोआ के कोंकणी भाषी बच्‍चे भी पढ़ रहे थे। देश को आजाद हुए मुश्किल से बीस साल हुए थे। महात्‍मा गांधी जी के विचार और भाषा प्रेम लोगों को रास्‍ता दिखा रहा था। लोगों को लगता था आने वाला समय हिंदी और देसी भाषाओं का है। यह अलग बात है कि इस बहम से मुक्‍त होने में ज्‍यादा समय नहीं लगा। 

अपने पहाड़ी भाई ज्‍यादातर टैक्सियां ही चलाते थे। मिलों में और दूसरी नौकरी करने वाले बहुत कम  लोग थे। टैक्सियां चलाने वालों में तीन तरह के लोग थे। एक टैक्‍सी मालिक, दूसरे कमीशन पर टैक्‍सी चलाने वाले और तीसरे टैक्सियां धो कर टेक्‍सी ड्राईवर बनने का प्रशिक्षण लेने वाले। रात को ड्राईवरों का खाना बनाना भी इनके प्रशिक्षण का हिस्‍सा था। 

एक-एक खोली में पांच-पांच, सात-सात रहते थे। कोई नियम नहीं, अपने समय और अपने हिसाब से टैक्‍सी निकालने और बंद करने की आजादी थी। मेरे पड़ोस में छड़क रहते थे। उनका यह हाल था कि सारे बर्तन मोरी में ही रहते थे। जिस बर्तन की जरूरत पड़ती थी उस को मांज कर काम चला लेते थे। टैक्‍सी मालिक और फिक्‍स टैक्सी चलाने वालों को तो फिर भी फिक्र होती थी। 

दूसरे ड्राईवरों की छुट्टी के दिन उसकी टैक्‍सी चलाने वाले पत्रकारों, लेखकों, कलाकारों की तरह फ्रीलांस होते थे। इनको एक दिन पहले बुक करना पड़ता था। चाय की दुकान इनका अड्डा होता था। वहां सुबह-सुबह सब चाय के बहाने इकट्ठे होते थे। जो रात को सूचना देना भूल गया होता था वह तभी चाबी दे कर छुट्टी कर लेता था। 

एक साहब थे (उनका नाम याद नहीं आ रहा है)। वे सारी मुंबई के पहाड़ियों में ठाकर के नाम से मशहूर थे। उनकी भाषा और बात करने का तरीका ठाकरी था। वह छे बजे से पहले तैयार होकर चाय की दुकान में पहुंच जाते थे। एक घंटा इंतजार करने के बाद वे नोटांक (पेग) चढ़ा लेते थे। उसके बाद कोई उन्‍हें टैक्‍सी चलाने के लिए नहीं पूछ सकता था। पूछने वाले की ठाकरी क्‍लास लग जाती थी। यह  कोई टाईम है, बोलने का, रात को नहीं बोल सकता था। अब अपुन ने छुट्टी कर ली है…….. 

जिन की गाड़ी पटरी पर थी वे ठीक थे। कुछ लोगों का तो यह हाल था कि दो-तीन दिन कमाना और चार दिन ताश खेलनी और पीना। ताश और पीने में लगभग सारे ही शामिल थे पर जो रात को ही  पीते थे, उनकी कश्‍ती फिर भी तैर रही थी। जिन्‍हें रात दिन का होश ही नहीं था। उनका ता बेड़ा पार ही था। इसे तरह के एक दो ही लोग होते थे।

ताश की महफिल सुबह ही सज जाती थी। रात को 8 पीएम वाली घंटी बजने तक चलती रहती थी। ताश में रमी से मिलता-जुलता सीप का खेल था। मैंन ज्‍यादातर पहाड़ी लोगों को ही इसे खेलते देखा है। इसे पैसे लगा कर जुए की तरह भी खेल सकते हैं और बगैर पैसों के भी। खेलने वालों के साथ देखने वालों को भी मजा आता था। इसे ड्राईवर भाई ज्‍यादातर चाय की बाजी लगा कर खेलते थे। खिलाड़ी और दर्शक बदलते रहते पर चाय और गप्‍पबाजी की महफिल चलती रहती थी। 

कहते हैं न कि ताश करे सत्‍यानाश। सीप खेलने वाले कहते थे हारने वाले पर गधी हो गई। यहां कई जिंदगियां इस गधी गेड़ में खो गईं। दिन ताश पीटने में बीत जाता था रात नौशादर वाला गैरकानूनी दारु। होश के लिए समय ही नहीं था। 

मनोरंजन ज्‍यादा नहीं थे। यह दोनों व्‍यसनी-एडिक्‍ट बनाने वाले थे। ऊपर से टैक्‍सी चला कर दिहाड़ी लगाने वाला रोजगार। दिहाड़ी भले ही ठीक थी पर लगनी तो चाहिए। न कोई फंड-बोनस, न छुट्टी-रिटायरमेंट, न मेडिकल, न बीमा। रोज कुंआ खोदना, रोज पानी पीना। यदि बिमारी लंबी हो जाए तो खाने के भी लाले पड़ जाते थे। तब यह पहाड़ी होने की एकता ही काम आती थी। 

हालात से भाग मुंह छिपाने वाली पलायनवादी लापरवाही सोच का हिस्‍सा थी। घर में भेजने लायक  कमाई तो हो जाती थी पर गांव में जाने के लिए पैसे जुट नहीं पाते थे। ऐसे ही समय बीतता रहता  था। मेरे पड़ोस में एक रहते थे। काफी तेज थे, मिल में यूनीयन लीडरी, गोवा से सोना लाने की असफल कोशिश, हार कर टैक्‍सी ड्राईवर। इनकी माता जी इनको गांव में ले जाने के लिए दो बार आईं। पहली बार इन्‍होंने बातो में फुसला कर माता जी को वापस भेज दिया और खुद नहीं गए। आखिर माता जी की जबरदस्‍ती से इनका विवाह हुआ। वे अब अपने परिवार के साथ हिमाचल मे रहा र‍हे हैं। 

सतही तौर पर देखा जाए तो एक मस्‍ती थी। रोज पैसे आते थे, रोज खत्‍म हो जाते थे पर जिंदगी आराम से चलती थी। कोई प्रबंध नहीं, बचत नहीं। जो परिवार लेकर मु्ंबई आ गए उनका एक आध खोली का जुगाड़ हो गया। अकेलों से तो य‍ह भी नहीं हो सका। किरदार बहुत थे पर हर एक की कहानी एक ही थी। 

मुंबई में पले बढ़े कवि अनुवादक कुशल कुमार
2005-2010 तक मुंबई से हिमाचल मित्र पत्रिका का संपादन किया।
चर्चित द्विभाषी कविता संग्रह मुठ भर अंबर।


5 comments:

  1. बड़े छैल़ लग्गे डायरिया दे पन्ने। बड़ी बधिया तस्वीर दस्सी हिमाचली भाईयां दी जेहड़े मुंबई रेंहदे कनैं ज्यादातर टैक्सी चलाणे दा कम्म करदे हन। मेरा भी लगभग इक साल इन्हां सौगी कुर्लें बीतिया। बड़ा लाजवाब था भाईचारा। मैं हिमालय पंजाबी होटले च दिखयो मिलियो कयी तित्थु कदी कदी रोटी खाणा ओंदे थे।

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  2. कमेंट तां कित्ता पब्लिश भी करी था पर एत्थु दुसेया नीं

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  3. सुन्दर संस्मरण। एक अनसुलझी कहानी उन सबकी जो भी काम की खोज में मुंबई आया। काम मिले न मिले टैक्सी ड्राईवर तो हो ही जाता है।और इन हिमाचली भाऊओं की कहें तो एक अच्छी खासी बस्ती है।

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  4. परदेसियां दी डुग्घी पीड़ सुणाई तुसां। हिमाचल मित्र मंडल बणेया ता खरा स्हारा मिल्ला इन्हां कमेरयां तो। चाळी साल पैह्लें मैं भी गया था ठौर ठकाणा टोळदा। इक डरैबर भाऊ ई लयी नै गै थे। इक्क कमरा इक रसो इक गुसलखाना। अठ दस भाऊ अपण-अपणिया बारिया ते औंदे ता सई रैंह्दे। तुसां भी इक कूणा लयी लेया। मैं घबराई गया कनै नह्ठया ओह्थी ते। बड़ा मुश्कल जीण था।

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  5. सुरेश भारद्वाज निराशा जी,अनूप सेठी जी पढ़ी नैं हौसला बधाणे तांई बड़ा बड़ा धन्यवाद कनैं आभार।
    सच तेह्ड़ी जीणे दियां स्थितियां बड़ियाँ कठण कने औखियां थियां। हुण एह् यकीन‌ ही नीं होंदा कि असां इहियां वी जींदे थे।
    जितणा बुरा हुण सोची नें लगदा उतणा तेहड़ी जी नें भी नीं लगदा था। कुछ लगदा ई नीं था। असां सारे इहियां ही जिया दे थे।

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