अपणिया जगह छड्डी लोक मुंबई पूजे। न अपणे ग्रां भुल्ले, न शहर छुट्या। जिंदगी पचांह् जो भी खिंजदी रैंह्दी कनै गांह् जो भी बदधी रैंह्दी। पता नीं एह् रस्साकस्सी है या डायरी। कवि अनुवादक कुशल कुमार दी मुंबई डायरी दी दूई किस्त पढ़ा पहाड़ी कनै हिंदी च सौगी सौगी। (चित्र- सुमनिका : सॉफ्ट पेस्टल कागज पर)
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काजू बण
मुंबई दियां चालीं च लोकां ब्हाल अपणियां-अपणियां खोळियां कमरे ता होंदे थे। इसते लावा लगभग सारियां सुवधां साझी तौर पर बंडणा पौंदियां थिह्यां। होर ता होर ग्रांए दिया बाईं साही पाणिये दा इक ही नळका होंदा था। एह् नलके ग्रां दियां बाईं साही लोकां दे मेलमिलाप कनै-कनैं नौकझोंक दे भी अड्डे होंदे थे। इक सोच एह् भी है कि दुनिया दी अगली बडी लड़ाई पाणिएं ताईं बी होई सकदी। एह नळके इसा गला दी गवाही दिंदे थे। चाली च रैह्णे वाला कोई बंदा कुसी ते अपणा सुख-दुख कुछ बी लुकाई नीं सकदा था।
अजकल जिसा प्राईवेसी निजता दा फैसन है तिसा दा ता एह् हाल था कि इक्की घरे च तुड़का लगदा था ता सारिया चाली जो पता लगी जांदा था भई क्या बणा दा। सारयां रिश्तेदारां कनैं ओणे वाळयां परौण्ह्यां जो सारे जाणदे थे। कोई नोआं तरफेन परौह्णा आई जाऐ ता सारिया चाली च ब्रेकिंग खबर बणी जांदी थी। पता नीं कुण है, नोंआ ही है, पैह्लें ता कदी दिक्खया नीं। कुछ देह्ये भी होंदे थे जिन्हां ते परोह्णे दे जाणे दा इंतजार भी करी नी होंदा था। परोह्णे पचांह्-पचांह् पूजी ने परोह्णे दी पूरी जांच पड़ताल करी तिस सौगी चाह्-नाश्ता करी नैं भी जान नीं छडदे थे।
पु. ला. देशपांडे दे नाटक ‘बटाटया ची चाळ’ च बी इक बंदे दे व्रत रखणे दिया खबरा ने सारी चाल बकळोई जांदी। इन्नीं खरे खांदे पींदें खाणा छड्डी नैं व्रत कैंह् रखी लै। देह्या क्या होई गिया इसने। सारी चाल सुखशांते पुछणे दे भाने कठरोई नें सलाहां देणा पूजी जांदी। इक जाए दो आई जाह्न, इसदी कोई नी सुणै सब अपणी ढफळी बजाई चले जाह्न। इस नाटके च इस जबरदस्ती वाळे घरूचारे दिया तकलीफां कनैं-कनैं अजकणी फ्लैंटा वाळी संस्कृति पर भी टिप्पणी है। जिसा च बक्खला माह्णू सालां इकी बिल्डिंगा च दरवाजे ने दरवाजा होणे ते बावजूद पखला माह्णू ही होंदा।
असां दे हिमाचली मुंबई दी इन्हां चालीं दे बसिंदे नीं थे। 1960 दे लगभग असां दे बुजुर्ग कालबा देवी, रामवाड़ी, गिरगांव, सतररस्ते दे गैरजां ते निकली नै लाड़ियां बच्चयां कनैं मुंबई च बसणा लगे। इन्हां जो मुंबई शैह्र कनै शैह्रे ते बाह्र साइन कोलीवाड़ा, चेंबूर, घाटकोपर, कुर्ले दे लाकयां च अतिक्रमण करी ने बणा दियां बस्तियां च ठकाणा मिल्ला। इन्हां लाकयां दी लग ही तस्वीर थी। बिजळी कनैं मूल सुबधां नीं दे बराबर थिह्यां पर जगहां खुलियां-खुलियां कनै कुदरत दा राज कनैं ग्रां वाळा ही महौल था। इस कारण इन्हां दे नीं होणे दी तकलीफ महसूस नीं होंदी थी।
असल्फा जित्थू मेरा बचपन बीतया; चौंही पास्सें प्हाड़ कनैं काजूआं दा बण था। इस दे कारण इक घाटी देह्ई बणदी थी। इस ताईं इस लाके दा नां घाटकोपर था। तिन्ना-चौंही मीलां च पंच-सत छोटे-बड़े तळआ थे। जिन्हां जो खाड़ी गलांदे थे। इन्हां च बारा म्हीने पाणी रैंह्दा था। इन्हां बणां जो बड्डी-बड्डी कनैं खाड़ियां जो भरी-भरी बस्त्यिां बसा दिया थिंह्यां। इन्हां चालीं च ज्यादातर दवालां टीनां दिया कनैं छत्तीं मिट्टिया दे खपरैंला दिया होंदिया थिह्यां। एह् खपरैल लकड़िया दे ढांचे पर मेखां मारी जड़यो होंदे थे। जिह्यां दमाग ठंडा होए ता सारा शरीर बी शांत कनैं खुश रैंह्दा। तिह्यां ही इन्हां छतां हेठ पंखे या बिजलिया बगैर बी गर्मियां सुखे ने कटोई जांदियां थिह्यां। पर सारी बरसात खपरैलां दिया सैंटिंग दा ख्याल रखणा पोंदा था। जरा की बिगड़ी ता चोड़ा होणा लगी पोंदा था। इक तकलीफ होर थी, दूईं-चौंही सालां च लकड़ियां सड़ी जांदियां थिह्यां। इस कारण इन्हां दा रख रखाव मैंहगा था। बाद च खपरैलां वाळियां छतां चली गईयां। गरमिया च तपणे वाळियां सिमेंटे दियां सीटां कनैं बिजळी भी आई गई।
मेरे घरे साह्मणे जेह्ड़ा सारंया ते उच्चा काळा पहाड़ था; जिस जो छिलणे तांई रोज सुरंगां लगदियां थिह्यां कनै पत्थर बह्रदे थे। तिस दे दुअे पास्सें इक बेतरतीव बस्ती भी प्हाड़े चढ़ा दी थी। दूईं पासेयां ते जोर लगया था। इक टैम देह्या आया बस्तिया जो बचाणे ताईं सुरंगां बंद करना पईंयां। इस ते सैह् पहाड़ बी बची गिया पर माण्हुए दा जमीना नैं ढिढ ही नीं भरोंदा। इकी पास्सें पहाड़े खुणी-खुणी जेह्ड़ी जमीन निकळी तिसा पर तिनी बस्ती बणाई लई। दुअे पास्सें समुदरे दे उथले लाके (coastal wetland) कनैं खाड़ियां जो प्हाड़े दे पत्थरां नै भरी नै समुदरे ते भी जमीन खोई लई।
लगभग बीह्-तीह् साल लग्गे। न बण बचे न तळ्आ। पहाड़ा दियां चूंडिया तिकर घर ही घर हन। पतळियां संगड़ियां गळियां हन। कुथी-कुथी ता छतरी बी नीं खुलदी। मिंजो ता इस लाके छडयो 25 साल होई गियो। पहाड़ियां कनैं राजस्थानियां मिली ने शिवे दा इक मंदर बणाया था। तिस च बारे-तुहारे प्हाड़ी गीत, भजन-कीर्तन चली रैंह्दे थे। इस मंदरे च इक नाटक भी खेल्या गया था। एह् भारतेंदु हरिशचंद्र दे नाटक अंधेर नगरी दी तर्ज पर तमाशा ही था। पालमपुर में जब बरखां होती हैं तो बीड़ें ढेह्-ढेह् पोती हैं। साही पहाड़ी गप्पां, चुटकले, ग्रां च दिक्खयो भगत कनैं फिल्मी मसाले थे। इस तमाशे दी टीमा च अभिनेता, लेखक, निर्देशक सब कुछ पंज-सत लोग थे। बंशीराम जी शायद लेखक थे, निर्देशक प्रेम मेहरा, रणजीत... होर लोकां दे नां याद नीं ओआ दे। मेरे पिता राजा बणयो थे। मैं इन्हां दियां रिहरसलां दा स्थायी दर्शक था। इसा मंडलिया दी इच्छा ऐताहासिक नाटक अमर सिंह राठोड़ मंचित करने दी भी थी पर सैह् पूरी नीं होई सकी।
हिमाचल ते दूर होणे दे कारण हाली भी थोड़ा बौह्त कठेवा है। मुंडु, जागत, मठा, भाऊ साही लफ्ज कनैं गलाणे दे लग-लग लैह्जे कनैं सुरां मलाई ने कांगड़ा, हमीरपुर, मंडी, बिलासपुरे, ऊना जिलयां दे असां सारे मुंबईकर इक ही पहाड़ी भासा बोलदे ओआ दे। हुण क्या दसिए पहाड़ी गलाणे वाळे ही घटदे जा दे। हिमाचले साही एत्थू बी नौंई पीढ़ी गलाणे ते बचा दी।
सुमनिका : पेंसिल स्याही से कागज पर |
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काजू वन
मुंबई की चालों में लोगों के पास अपनी-अपनी खोलियां कमरे तो होते थे। इसके अलावा लगभग सारी सुविधाएं साझा तौर पर बांटना पड़ती थीं। गांव की बावड़ी की तरह पानी का एक ही नल होता था। यह नल भी बावड़ी की तरह लोगों के मेलमिलाप और नोकझोंक के अड्डे होते थे। एक सोच यह भी है कि दुनिया का अगला विश्व युद्ध पानी के लिए भी हो सकता है। यह नल इस बात की गवाही देते थे। चाल में रहने वाला कोई इंसान किसी से अपना सुख-दुख कुछ भी छिपा नहीं सकता था।
आजकल जिस प्राईवेसी निजता का फैशन है, उस का तो यह हाल था कि एक घर में तड़का लगता था तो सारी चाल को पता चल जाता था, क्या बन रहा है। सारे रिश्तेदारों और आने वाले मेहमानों को सारी चाल जानती थी। कोई नया अजनबी आ जाए तो सारी चाल में ब्रेकिंग खबर बन जाती थी। पता नहीं कौन है? नया ही है? पहले तो कभी देखा नहीं? कुछ ऐसे भी होते थे जो मेहमान के जाने का इंतजार भी नहीं कर पाते थे। वे मेहमान के पीछे-पीछे पहुंच कर उसकी पूरी जांच पड़ताल करके उसके साथ चाय-नाश्ता करने के बाद भी जान नहीं छोड़ते थे।
पु. ला. देशपांडे के नाटक ‘बटाटया ची चाळ’ में भी एक बंदे के व्रत रखने की खबर से सारी चाल पागल हो जाती है। यह अच्छा खाता-पीता था, खाना छोड़ कर उपवास क्यों कर रहा है। इसके साथ ऐसा क्या हो गया। सारी चाल हालचाल पूछने के बहाने इक्कठा हो कर सलाह देने पंहुच जाती है। एक जा रहा था तो दो आ जा रहे थे, इसकी कोई नहीं सुन रहा था। सब अपनी ढफली बजा रहे थे। इस नाटक में इस जबरदस्ती के भाईचारे की तकलीफों के साथ आज की एपार्टमेंट-फ्लैटों वाली संस्कृति पर भी टिप्पणी है। जिस में वर्षों तक एक बिल्डिंग में दरवाजे से दरवाजा जुड़ा होने के बावजूद हम एक दूसरे से अजनबी ही बने रहते हैं।
हमारे हिमाचली मुंबई की इन चालों के बासिंदे नहीं थे। 1960 के लगभग हमारे बुजुर्ग कालबा देवी, रामवाड़ी, गिरगांव, सात रास्ते के गैरजों से निकल कर बीबी-बच्चों के साथ मुंबई में बसने लगे। इन को मुंबई शहर और शहर के बाहर साइन कोलीवाड़ा, चेंबूर, घाटकोपर, कुर्ला के इलाकों में अतिक्रमण कर के बन रही बस्तियों में ठिकाना मिला। इन इलाकों की तस्वीर अलग ही थी। बिजली और मूल सुविधांए ना के बराबर थीं पर खुली-खुली जगहों पर कुदरत का राज और गांवों वाला माहौल था। इस कारण इन के न होने की तकलीफ महसूस नहीं होती थी। असल्फा जहां मेरा बचपन बीता, चारों तरफ पहाड़ और काजूओं का वन था। इस के कारण एक घाटी जैसी बनती थी। इसलिए इस इलाके का नाम घाटकोपर था। चार-पांच मीलों में पांच-सात छोटे-बड़े तालाब थे जिन्हें खाड़ी बोलते थे। इन में बारह महीने पानी रहता था।
इन वनों को काट-काट कर और खाड़ियों की भराई करके बस्त्यिां बसाई जा रही थीं। इन चालों में ज्यादातर दीवारें टीन-पतरे की और छतें मिट्टी के खपरैलों की होती थीं। यह खपरैल लकड़ी के ढांचे में कीलें ठोंक कर जोड़े जाते थे। जिस तरह दिमाग ठंडा हो तो सारा शरीर भी शांत और खुश रहता है, उसी तरह इन छतों के नीचे पंखे और बिजली बगैर भी गर्मियां सुख से कट जाती थीं पर सारी बरसात खपरैल की सैंटिंग का ख्याल रखना पड़ता था। जरा सा बिगाड़ होने पर पानी चूने लगता था। एक तकलीफ और थी, दो-चार साल में लकड़ियां सड़ जाती थीं। इस कारण इन का रख-रखाव मंहगा था। बाद में खपरैल वाली छतें चली गईं। गर्मियों में तपने वाली सिमेंटे सीट और बिजळी भी आ गई।
मेरे घर के सामने जो सबसे ऊंचा काला पहाड़ था, उसको छीलने के लिए रोज सुरंगें लगती थीं और पत्थर बरसते थे। उस की दूसरी तरफ से एक बेतरतीव
बस्ती भी पहाड़ पर चढ़ रही थी। दोनों तरफ से जोर लगा हुआ था।
एक समय आया जब बस्ती को बचाने के लिए सुरंग लगाना बंद करना पड़ा। इस से वह पहाड़ भी
बच गया। पर इंसान का जमीन से पेट ही नहीं भरता है। एक तरफ
पहाड़ खोद कर जो जमीन निकली उस पर बस्ती बना ली। दूसरी तरफ समुदंर के उथले इलाके (coastal
wetland) और खाड़ियों को पहाड़ के पत्थरों से भर कर पानी
से भी जमीन छीन ली।
लगभग बीस-तीस साल लगे। न वन बचे न तालाब। पहाड़ की चोटी तक घर
ही घर हैं। पतली संकरी गलियां हैं। कहीं-कहीं तो छाता भी नहीं खुलता है। मुझे इस इलाके
को छोड़े 25 साल हो गए हैं। यहां एक मंदिर भी है, जिसे हिमाचलियों और राजस्थानियां
ने मिल कर बनाया था। इसमें अक्सर पहाड़ी गीत,
भजन-कीर्तन चलते रहते थे। इस मंदिर में एक नाटक भी मंचित हुआ था। यह भारतेंदू हरिशचंद्र
के नाटक अंधेर नगरी की तर्ज पर एक तमाशा ही था। पालमपुर में जब बरसात होती है तो मेड़ें
गिर-गिर जाती हैं। जैसी पहाड़ी गप्पें, चुटकले, गांव में देखी भगत (लोक-नाटक) और
फिल्मी मसाले थे। इस तमाशे की टीम में अभिनेता, लेखक, निर्देशक सब कुछ पांच-सात लोग
ही थे। बंशीराम शर्मा जी शायद लेखक थे, निर्देशक प्रेम मेहरा, रणजीत ठाकुर। बाकी लोगों के नाम याद नहीं आ रहे हैं। मेरे पिता राजा बने थे।
यह 1970-72 के बीच का समय रहा होगा। मैं शायद चौथी-पांचवी में पढ़ता था और इनकी रिहर्सलों का स्थायी दर्शक था। इस मंडली की इच्छा ऐतिहासिक नाटक अमर
सिंह राठोड़ मंचित करने की भी थी पर वह पूरी नहीं हो सकी।
मुंबई में पले बढ़े कवि अनुवादक कुशल कुमार 2005-2010 तक मुंबई से हिमाचल मित्र पत्रिका का संपादन किया। चर्चित द्विभाषी कविता संग्रह मुठ भर अंबर। |
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