पहाड़ी भाषा दी नौई चेतना .

Friday, July 18, 2025

पुस्तक चर्चा

 


रामलाल पाठक होरां दी कितााब हिमाचली पहाड़ी लोकगीतों में जनजीवन हाल च ही छपी है। 

इसा कताबा पर कुशल कुमार होरां चर्चा करा दे हन- पहाड़ी हिन्दी दूंईं भाषां च।  

 

हिमाचली पहाड़ी लोकगीतों में जनजीवन’ कताबा च हिमाचली लोक गीतां कन्नैं संस्कृति दे बारे च रामलाल पाठक होंरां दे समें-समें पर लिखेयो 18 लेख शामल हन।

हालांकि सैह् जमाना बीती गिया, जदेह्डी़ लोक गीतां च जींदे, नचदे-गांदे थे। सारे संस्कार, त्यौहार ऐथू तिकर कि मौसम भी गीतां च ही हाजरी लांदे थे। म्हाणू एह् दयिआं खुशियां, जोश, दुख, पीड़, आसा-नरासा सब कैसी दे साथी लोकगीत ही होंदे थे।

हुण वग्ते दिया दौड़ा च सैह् जीणा कनै तिस दे गीत बड़े पचांह् रही गियो। हुण ता सैह् बुजुर्ग भी घट दे जा दे, जेह्ड़े हर संस्कार कनै मौके पर तिस दे गीतां गाणा लगी पौंदे थे। हुण ता बस इक डीजे दा रौळा है। कनैं सारा गुस्सा, प्यार, त्यौहार पंज तारा ठेके पर हन।

फिरी भी इक खरी गल एह् है भई एह् देह्यां लेखां कने कताबां दे जरिए इन्हां दी सांभ होआ दी। मते सारे लोकगीतां दे ऑडियो-वीडियो भी हन। भाषा नै भले ही खेल होआ दा पर नौंए गवईए लोकगीतां नोएं तरीके ने गा दे। इसा कताबा साही सैह् बी गीत पहाड़िया च गा दे कनैं गीतां ते लावा सारी गलबात हिन्दिया च ही करा दे। लोक गीत डीजे पर भी लोकां जो नचा दे। एह् बड़ी तसल्लिया वाली गल्ल है।

इसा कताबा च गुजरी-कृष्ण, सौण म्हीना, बंगड़ियां, पणघट, मोर, लोक कनै प्रेम कथाँ पर गीतां दे बारे च लेख शामाल हन। लोकनाट्य धाजा कनैं गूग्गा कथाँ दे गीत संगीत दे बारे च छैल आलेख हन। 

जित्थू तिकर लोक दी गल्ल है, माह्णू सदियां ते प्यारे ही गांदां औआ दा। इन्हां गीतां गाई कनैं इन्हां दिआ ताना पर नाची पाई माह्णू थोड़िया देरा ताईं अपणया जळबां, पीड़ां सौगी-सौगी दुनिया दे बन्ह्णा ते ऊपर उठी जांदा। कृष्ण कनै राधा गुजरिया दा अलौकिक प्रेम होए या राँझू-फूल्मू, कूंजू-चंचलो, देई-जुलफू, देबकू-जिंदू, चन्दो ब्राह्मणी-लच्छिया दा लौकिक प्रेम। इन्हां सारयां च विरह, पीड़ कनैं मस्ती ही गांदी। 

रामलाल पाठक

कुस्सी व्याहत्ता जणासा दिया कुरबनिया नै सुक्किया जगह पाणी बगणे दियां कथाँ सारे देसे च  मिलदियां। सुधा मूर्ति होरां भी एह् देहिआ घटना पर कहाणी लिखियो। हिमाचल च चंबे दी  राणी  सुनयना, कांगड़े दिया रुला री कूह्ल दिया परंपरा च बिलासपुर दी देवी रुक्मिणी दी कथा  कनैं गीतां पर भी लेख है। इनां सारियां कथाँ पढ़ने ते बाद इक सुआल मतयां सालां ते मेरे  पिच्छें  पिआ। भई, इक निरदोष, बेगुनाह, पवितर-सुच्ची आत्मा दी बळी लई नै ही  पाणी  किंञा  कनैं कैंह् बगणा लगी पौंदा?

कताबा च  हिमाचली लोक गयिका गम्भरी देवी कनैं लोक नृत्य कलाकारा फूलां चंदेल दे बारे  च बड़ी बधिया जाणकारी है। बलासपुर दी कताबा च मोहणा दी कथा नीं होए, एह् होई नीं  सकदा। मिंजो लगदा इकी  भाऊए दिया बैमानिया नैं इक सिधे सादे माह्णुए जो छळी नैं सूळिया चड़ाणे दी एह् घटना  समाज, व्यवस्था कनैं असां सारयां ते मते सारे सुआल पुछदी। पर जित्थू तिकर मेरी जाणकारी है, गीत्तां च ही नपटाई नैं समाज बेह्ला  होई गिया। एह् गल बखरी है कि अज भी लोग मोहणे दे गीत्तां गाई जा दे।

इक्की ही गल्ला जो ही दूईं दूईं लैणी च दूईं तरीकएं नैं गलाणे वालिया इन्हां पखेनां ते हिमाचली पहाड़ी भासा दिया मुस्कला जो समझया जाई सकदा। 

माखे-ताखे बाघला, बाइयां-ताइयां हंडूरो।

जालू-तालू कांगड़े, साफ गल्ल कहलूरो।

 

माखे-ताखे बाघला, कड़क बोली हंडूर।

जालू-तालू कांगड़ी, बांकी बोली कहलूर। 

इन्हां पखेना पढ़ी नै इक होर पखेण याद ओआ दी। इक पुतर है सैह् सारयां ते नूठा, छैल कनैं बड़ा गुणी है। कनैं एह् पुतर सारियां माऊं भाल है। 

इस कनै कनै पाठक होरां दा एह् गलाणा बिल्कुल दुरुस्त है। भले ही बोलियां अप्पू च मेल नी खांदियां  पर 12 ते 10 जिल्यां दे लोक इकी दूजे दे लोकगीतां जो समझी लैंदे। इसा समझा नै बोलियां भी समझा आई सकदियां जे असां इन्हां जो बी लोकगीतां साही प्यार करन। एह् गल बक्खरी है कि दूए दी समझणा ता दूरे दी गल है असां ता अप्पणिया बोलियां ही भुलदे कनैं छडदे जा दे।

 

मुखिया जे गांवा रा पाणिए जो जांदा

बाई पर पाणी नहीं मिलेया।

कुला रे परोहिता जो पुछदा

बाईं बिच पाणी किंञा मिलणा।

जेठे जे पूता री बलीं देयाँ

बाई बिच पाणी ताईं मिलणा।

 

जद अम्मा पलगां ते उतरी

डयोढिया जे खड़ी

कावे कड़-कड़ लाई।

देयां अम्मा मेरे कपड़े

गुंदेया मेरे सिरे जो

रुकमणी चली सौरियां रे देस।

 

जद मेरा डोला आंगणा जे उतरेया

खाली घड़ोलू आंगणा ते चकेया

पले पले रोंदी अम्मा मेरिये।

तू काजो रोंदी अम्मा मेरिये

रूकमणी मुड़ी के नी आऊणी

 

 

मुंबई में पले बढ़े कवि अनुवादक कुशल कुमार
2005-2010 तक मुंबई से हिमाचल मित्र पत्रिका का संपादन किया।
चर्चित द्विभाषी कविता संग्रह मुठ भर अंबर।

................................


हिमाचली पहाड़ी लोकगीतों में जनजीवन’ किताब में हिमाचली लोकगीतों और संस्कृति के बारे में रामलाल पाठक जी द्वारा समय-समय पर लिखे गए 18 निबंधों का संकलन है। 

हालांकि वह जमाना बीत चुका है, जब लोग जीवन को गीतों में जीते, नाचते गाते थे। सारे संस्कार, त्योहार  यहां तक की ऋतुएं और मौसम भी गीतों में ही हाजरी लगाते थे। खुशी और उत्सवों के ही नहीं हमारे अवसाद और दुख के भी साथी लोकगीत ही होते थे। 

अब समय की दौड़ में वह जीवन और उसके गीत बहुत पीछे छूट गए हैं। अब तो वे बुजुर्ग भी लुप्त होते जा रहे हैं, जो हर संस्कार के अवसर पर उसके गीत गाने लगते थे। एक डीजे का शोर है और सारा गुस्सा, प्यार और जश्न पंच तारा ठेके पर है। 

फिर भी एक अच्छी बात यह है कि इस तरह के लेखों और किताबों के जरिए इन्हें सहेजा जा रहा है। साथ ही बहुत सारे लोकगीत ऑडियो-वीडियो रूप में उपलब्ध हैं। भाषा के साथ भले ही खेल हो रहा है परंतु नए गायक उन्हें नए तरीके से गा रहे हैं। इस किताब की तरह वे भी गीत पहाड़ी में गाते हैं और उनकी बात हिंदी में करते हैं। यह बड़ी तसल्ली की बात है कि लोकगीत डीजे पर भी लोगों को नचा रहे हैं। 

इस किताब में कृष्ण-गुजरी, सावन, बंगड़ियां, पनघट, मोर, और प्रेम गाथाओं आदि के गीतों पर सुन्दर निबंध शामिल हैं।

लोकनाट्य धाजा तथा गुग्गा की गाथाओं तथा उनके गीत संगीत के बारे में जानकारी से भरे अच्छे आलेख हैं। 

जहां तक लोक की बात है, सदियों से इंसान प्रेम को गाता आ रहा है। इन्हें गाते हुए और इनकी तान पर नाचते हुए कुछ देर के लिए इन्सान तकलीफों, पीड़ाओं के साथ-साथ दुनिया के बंधनों से भी ऊपर उठ जाता है। फिर वह कृष्ण-राधा गुजरी का अलौकिक प्रेम हो या राँझू-फूल्मू, कूंजू-चोंचलों, देई-जुलफू, देबकू-जिंदू, चन्दो ब्राह्मणी-लच्छिया जैसी लौकिक प्रेम की गाथाएं हों। इन सब में विरह, पीड़ा और मस्ती ही गाती है। 

किसी विवाहित स्त्री की कुर्बानी से सूखी जगह पर जल स्रोत प्राप्त होने की कथाएं सारे भारत में मिलती हैं। सुधा मूर्ति जी ने भी इस तरह की कर्नाटक की एक घटना पर कहानी लिखी है। हिमाचल में चंबा की रानी सुनयना तथा कांगड़ा की रुला री कूह्ल की परंपरा में बिलासपुर की देवी रुक्मिणी की कथा व गीतों पर भी लेख है। इन सब कहनियां में एक सवाल मेरा पीछा करता है कि एक निर्दोष, बेगुनाह, पवित्र, पुण्य आत्मा की बलि लेकर ही पानी का स्रोत क्यों और कैसे फूट कर बहने लगता है? 

किताब में हिमाचली लोग गायिका गम्भरी देवी तथा लोक नृत्य कलाकारा फूलां चंदेल के बारे में सारगर्भित लेख है। बिलासपुर की किताब हो और मोहणा का जिक्र ना हो ऐसा हो ही नहीं सकता है। 

मुझे लगता है कि एक भाई द्वारा बेईमानी से एक सीधे-साधे इंसान को छल से सूली पर चढ़ा देने की यह घटना समाज, व्यवस्था और हम सबसे बहुत सारे सवाल पूछती है। पर जहां तक मेरी जानकारी है। समाज ने इसे गीतों में गा कर निपटा दिया है। यह अलग बात है कि आज भी उसके गीत गाए जा रहे हैं। 

एक ही बात को दो-दो पंक्तियों में दो तरह से कहने वाली इन लोकोक्तियों से हिमाचली पहाड़ी भाषा की मुश्किलों को समझा जा सकता है। 

 

माखे-ताखे बाघला, बाइयां-ताइयां हंडूरो।

जालू-तालू कांगड़े, साफ गल्ल कहलूरो।

  

माखे-ताखे बाघला, कड़क बोली हंडूर।

जालू-तालू कांगड़ी, बांकी बोली कहलूर।

 इन लोकोक्तियां को पढ़कर एक और लोकोक्ति याद आ रही है। एक बेटा है जो सबसे अनूठा, सुंदर, गुणी और बहुत ही संस्कारी है और यह बेटा हर मां के पास है। 

इसके साथ-साथ पाठक जी का यह कहना बिलकुल दुरुस्त है कि भले ही बोलियां आपस में मेल नहीं खाती हैं पर 12 में से 10 जिलों के लोग एक दूसरे के लोकगीतों को समझ लेते हैं। इसी समझ से बोलियां भी समझ में आ सकती हैं यदि हम उन्हें भी लोकगीतों की तरह ही प्यार करें। यह अलग बात है कि  दूसरे की समझना तो दूर की बात है, हम अपनी ही बोलियां को  छोड़ते जा रहे हैं।


No comments:

Post a Comment