अपणिया जगह छड्डी लोक मुंबई पूजे। न अपणे ग्रां भुल्ले, न शैह्र छुट्या। जिंदगी पचांह् जो भी खिंजदी रैंह्दी कनै गांह् जो भी बदधी रैंह्दी। पता नीं एह् रस्साकस्सी है या डायरी। कवि अनुवादक कुशल कुमार दी मुंबई डायरी पढ़ा पहाड़ी कनै हिंदी च सौगी सौगी। किस्त पंज।
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राग रसोई
शैह्रां जो ता कम करने वालयां दी जरूरत होंदी। ग्रां देयाँ बरोजगारां जो बाहर निकळी करी दुनिया दिखणे कनैं पैसे कमाणे दी खुरक भी होंदी। खुरक कैंह् कि बाहर निकली थोड़े बौह्त पैसे भले हत्थें आईं जान पर जीणा बड़ा मुस्कल कनैं गरीबां आळा होई जांदा। एह् ता जाह्लू अगली पीढ़ी पैरां पर खड़ौई जांदी ता किछ सुआस औंदा पर ताह्लू तिकर सुआस टुटणा लगी पियो होंदे। शैह्रां च अज त्री-चौथी पीढ़ी जेह्ड़ी जिन्दगी जिया दी पैहली पीढ़ी सोच्ची भी नीं सकदी थी।
जे असां दे बुजुर्गां जो एह् खुरक नी
हौंदी ता तिन्हां दा ओत्थू भी कुछ न कुछ ता होई ही जाणा था। ग्रां च सारी उमर कटणे आळयां दी जिन्दगी कोई माड़ी नीं बीती। तैह्ड़ी बगैर नौकरिया ते
बी ब्याह होई जांदे थे। तिन्हां पैसे भले थोड़े
घट कमाए पर सुअरगे साही अपणे ग्राएं च जंग्घां भारी सुत्ते कनै सिरे चुकी करी जिये। शैह्रां साही समझौते करी संगड़ोई नै जीणा नीं पेया। तिन्हां दे याणे बी पढ़ी लिखी कामयाब होई गै। इस मामले च एह् बी लगदा कि शैह्रां आळयां दे बच्चे कई गल्लां च मते पचांह रही गै। पिछें नीं भी हन तां भी तपस्या दा कुछ
हासल नी होया।
इन्हां डरैबरां कने इक गल होर थी। चौबियां घंटेंया आळा अपणा कम्म होणे दे कारण टैमे दी कोई पाबंदी नी थी। सौणे, जागणे, खाणे, पीणे कैसी दा कोई
ठकाणा नी था। जिआं होर कम्मां वाले टैमे ते औंदे जांदे थे कने अप्पू बणाई ने रोटी खांदे
थे। इन्हां ते न दिन सूते औंदा था न उमर आई। इहियां ही लंग्घी गई।
बचपने च सयाणेयां ते प्रवासी पूरबियां दे बारे च इक सणोणी सुणियो थी। अठ पुरबिये नौ चुल्हे। सैह् सारे अपणयां अपणयां चुल्हयां च अपणी बखरी रसो बणांदे थे। इक चुल्हा परोहणे पच्छे
ताई होंदा था। इस मामले च मुंबई दे टैक्सी डरैबरां दा हाल होर खराब कनैं पुट्ठा था। इत अठां चा ते इक चुल्हा भी नीं बळदा था।
खैर, दिन ता ओक्खा-सोक्खा निकळी जांदा था। राती रोटिया दी फसी जांदी
थी। मन करदा था घरे दी रोटी मिल्लै। पर बणाऐ कुण। बारें तुहारें मिली जुली सांझा चुल्हा बळदा था। तित भी स्यापा ही रैंह्दा था। खाणे ते पैह्लें लगभग सारयां ही थोडा़ बौह्त घुट लाणा होंदा था।
कुछ जेह्ड़े नित नेम वाळे थे सैह् अपणा माडा़-मोटा जुगाड़ करी लैंदे थे। सारयां जो डरैबर बणने तांई ओणे वालेयां नोयां रंगरूटां ते ही आस होंदी थी। सैह् भी कोई ही होंदा था कम्मे दा, बाकी ता जबरदस्ती गळें पईया ढोलकिया बजाणे साई रोटिआं बणांदे थे। इक टेकू नाएं दा रंगरूट संझा साफ चिट्टे कड़क प्रेस कित्यो पेंट कमीज़ पैहनी हीरो बणी निकलदा था। सैह् राती थकया मांदयां डरैबरां जो खाणा खुआंदा डरैबरां दा सेठ लगदा था। इक भाणजा मामे भाल आया था। शायद सैह् छिंजां दा शकीन था। कद छोटा पर जिस्म कसोया था। इक रोज भ्यागा पंज बजे हाली सारे निन्दरा च ही थे। इन्हां साह्बां रेता ने भरोया बोरू बिच टुंगया कनैं दस्ताने पेह्णी बॉक्सिंग करना लगी पै। दुईं चोहीं मुक्कयां ने बोरू फटी गिया। सारयां सोणे वालेयां दे बिस्तरे रेता ने भरोई गे। सारयां ते बुरा हाल मामे दा था। मामे भाणजा अपणिया मथुरा ते कड्ढी लाया। बड़िया मुस्कला ने माफीनामा पास होया। इकी रंगरूटे दा नां जोंडू था पर सैह् था बड़ा चेंट। तिस दियां गप्पां बड़ियाँ मीस्णियां होंदिया थिआं। इक रोज तिन्नी जोरे दी खिट लाईयो थी कनैं दकानदार बणिया पचांह दोड़या था। इकनी पुच्छया भाई होया क्या? क्या दस्सिए बड़क्या एह् मन्ना दा ही नीं। पुत्रेला पाई घर जुआई बणाणे जो बोला दा। इस दी लाड़ी कनैं धी दिक्खियो। मेरा ता जींदे जी सोग पई जाणा। असल च इन्नी धुआर सौदा लिया था कनैं उसते बाद दकाना आळी बत ही छडी तियो थी। तैह्ड़ी गलतिया नैं सामणे आई गिआ कनै बणिएं दड़ाई लाया। एह् देह्या रंगरूटा तांई अपणी रोटी बणाणा ही मुस्कल थी।
भागां कने संजोगां दी गल्ल होंदी। बरठीं
बिलासपुर ते इक बुजुर्ग पंडत परगट होए। सैह वोटचारा कन्नै ढाबयां च खाणा बणाणे दा कम्म
करदे-करदे रोजी रोटी तांई मुम्बई आई फसयो थे। तिन्हां घरें ही ढाबा खोली लिया पर कम्म
चल्ले नीं। मेरे घरे सामणे इक भोजा नाए दा अन्ना पत्थरां पीह्णे आलै क्रेशरे दे मजूरां
तांई चाह्-पकौडे़, उसळ बड़ा बणांदा था। तिस भाल जगह थी पर क्रेशर बंद होंणे ते बाद तिसदा
कम्म ठीक नी चल्ला दा था। दोयो
मेरे पिता होरां भाल गप्प मारना बैठदे थे। पंडत बोलदा था इस ते कुत्थी ढाबे च नौकरी
मिली जाऐ ता ठीक है। नहीं तां मुम्बई छडणा पोणी। सैह् अन्ना
भी रोंदा था पेहेल ठीक था अवी धंदा ई च नहीं होता है। मेरे पिता होरां अन्ने जो सलाह
दित्ती छड उसल पाव कनैं खाणे दा कम्म शुरू कर। एह् पंडत जी हन इन्हां खाणा बणाणा कनैं
सारयां पहाड़ियां तेरे ढाबे च ही खाणा ओणा।
मेरे पिता जी दी गल्ल सच होई गई। भोजे
दा होटल राती पहाड़ी डरैबरां नैं भरोणा लगी पिया। कन्ने ढाबे च पहाड़ी भासा ही चलदी थी। अन्ना भी हौळैं हौळैं टुटी-फुटी पहाड़ी बोलणा लगी पिया। तिस दे ढाबे जो ता फंग लगी
गै। तिस दा कम्म बधदा ही गिया।
पंडते जो ध्याड़ियां मिली गईयां। जाह्लू
तिकर शरीरें साथ दित्ता सैह् कोई दस-पंदरा साल
अन्ने दे ढाबे च कम्म करदे रैह्। फिरि हटी ने हिमाचल चली गै।
डरैबरां जो खाणे कनैं शराब भी चाही
दी। तिन्नी गैरकनूनी शराब भी
बेचणा शुरू करी ती। डरैबरां सौगी-सौगी सैह् ढाबा गुंडयाँ, लफ़ंग्याँ, अपराधियां दा भी अड्डा बणी गिया। एह् भी भागां दी गल्ल थी। तिन्हां
दुईं दा ता भला होई गया पर असां दे घरे ते इकदम साह्मणे होणे दे कारण इक देई बमारी
चिमड़ी जिसा दा कोई लाज
नीं था।
बग्ते ब्हाल सारियां मरजां दा लाज़ है। सैह् अन्ना भी चली गआ। तिस दे पुतरें कुत्थी होरथी अपणा लग होटल खोली लिआ। एह् ढाबा धियां जुआईयां दे हिस्से आया अपर तिन्हां ते चल्ला नीं कनैं बंद होई गिया। हुण बिकणे तांई रक्खया पर मुल जादा मंगणे दे कारण बिका दा नीं। मेरा घर बी लगभग बिकी ही गिया। यादां हन कनैं इसा डायरी दे भाने मैं तुसां ने गप्प मारा दा। अज सैह् बग्त ता यादां ते भी गांह लंघी गिआ।
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शहरों को तो काम करने वालों की जरूरत होती है। गांव के बेरोजगारों को भी बाहर निकल कर दुनिया देखने और पैसे कमाने की खुजली होती है। खुजली इसलिए क्योंकि बाहर निकल कर थोड़े बहुत पैसे भले हाथ में आ जाएं पर जीवन बहुत ही मुश्किल और गरीबों वाला हो जाता है। यह तो जब अगली पीढ़ी पांव पर खड़ी होती है तो कुछ सांस आती है पर तब तक सांसें टूटने लग पड़ी होती हैं। शहरों में आज की तीसरी चौथी पीढ़ी जो जिंदगी जी रही है। पहली पीढ़ी उसके बारे में सोच भी नहीं सकती थी।
यदि हमारे बुजुर्गों को यह खुजली नहीं होती तो उनका भी वहां गांवों में कुछ ना कुछ हो ही जाना था। गांव में सारी उम्र बिताने वालों की जिंदगी भी कोई बुरी नहीं बीती है। उस समय बिना नौकरी के भी विवाह हो जाते थे। उन्होंने पैसे भले थोड़े कम कमाए पर स्वर्ग जैसे अपने गांव में टांगे फैला कर सोए और सिर उठा कर जिए। शहरों की तरह समझौते करके सिकुड़ कर जीना नहीं पड़ा। उनके बच्चे भी पढ़ लिख कर कामयाब हो गए हैं। इस मामले में यह भी लगता है कि शहर वालों के बच्चे बहुत सी बातों में बहुत पीछे रह गए हैं। पीछे नहीं भी रहे तो भी इतनी बड़ी तपस्या का कुछ हासिल नहीं हुआ है।
इन ड्राइवरों के साथ एक बात और थी। इनका चौबीस घंटे वाला अपना काम होने के कारण समय की कोई पाबंदी नहीं थी। सोने जागने, खाने पीने, किसी भी चीज का कोई ठिकाना नहीं था। जैसे और काम करने वाले समय पर आते जाते हैं और खुद खाना बनाकर खाते हैं; इनसे न दिन काबू में आता था और ना उम्र काबू में आ पाई। ऐसे ही बीत गई।
बचपन में बुजुर्गों से प्रवासी पूर्वियों के बारे में एक कहावत सुनते थे। आठ पूर्विए और नौ चूल्हे। सारे अपना अलग-अलग चूल्हा जलाकर अपना खाना बनाते थे और एक अतिरिक्त चूल्हा आने वाले मेहमान के लिए आरक्षित होता था। इस मामले में मुंबई के टैक्सी ड्राइवरों का हाल और भी खराब और उल्टा था। यहां इन आठों से एक चूल्हा भी नहीं जलता था।
खैर, दिन तो जैसे तैसे गुजर जाता था पर रात को खाने की मुश्किल हो जाती थी। मन करता था कि घर की रोटी मिले तो मज़ा आ जाए पर बनाए कौन? कभी कभार छुट्टी के दिन मिल जुल कर सांझा चूल्हा जलता था। उसमें भी स्यापा ही रहता था। खाने से पहले लगभग सभी ने थोड़ी बहुत पीनी भी होती थी।
जिनके पास जीवन में अनुशासन था, वे अपना छोटा-मोटा जुगाड़ कर लेते थे। बाकी सबको ड्राइवर बनने के लिए आने वाले नए रंगरूटों से ही आस होती थी। उनमें से भी काम का कोई एक आध ही होता था। बाकी तो इस तरह खाना बनाते थे मानो गले में जबरदस्ती पड़ा ढोल बजा रहे हों। एक टेकू नाम का रंगरूट शाम को साफ सफेद कड़क प्रेस किए हुए पेंट कमीज पहनकर हीरो बनकर निकलता था। वह रात को जब थके मांदे ड्राइवरों को खाना खिलाता तो उनका मालिक लगता था। एक भांजा मामा के पास आया था। शायद वह कुश्ती का शौकीन था। कद छोटा था पर शरीर कसा हुआ था। एक दिन सुबह पांच बजे, जब सभी लोग नींद में ही थे, इन साहब ने रेत से भरा थैला बीच में लटकाया और दस्ताने पहन कर बॉक्सिंग करने लगे। दो चार घूंसों में ही थैला फट गया। सब सोने वालों के बिस्तरे रेत से भर गए। सबसे बुरा हाल मामा जी का था। मामा ने भानजे को अपनी मथुरा से देश निकाला दे दिया। बड़ी मुश्किल से माफीनामा पास हुआ। एक रंगरूट का नाम जौंडू था पर वह था बहुत ही होशियार। उसकी बातें बड़ी ही मजाकिया होती थीं। एक रोज उसने जोर की दौड़ लगाई हुई थी और उसके पीछे दुकानदार बनिया दौड़ रहा था। एक ने पूछा भाई क्या हुआ। बड़े भाई क्या बताऊं? यह मान ही नहीं रहा है। कब से पीछे पड़ा है और घर जवाई बनने को बोल रहा है। इसकी पत्नी और बेटी देखी है। मेरा तो मरण हो जाएगा। असल में इसने उधार सामान खरीदा था और उसके बाद दुकान वाला रास्ता ही छोड़ दिया था। उस दिन गलती से सामने आ गया और बनिया इसके पीछे दौड़ पड़ा। ऐसे रंगरूटों के लिए अपनी रोटी ही बनाना मुश्किल होता था।
भाग्य और संयोग की बात होती है। बरठीं बिलासपुर से एक बुजुर्ग पंडित प्रकट हुए। वह शादियों में और ढाबों में खाना बनाने का काम करते-करते रोजी-रोटी के लिए मुंबई में आकर फंस गए थे। उन्होंने घर में ही ढाबा खोल लिया था पर काम चल नहीं रहा था। मेरे घर के सामने एक भोजा नाम का अन्ना पत्थर पीसने वाले क्रेशर के मजदूरों के लिए चाय-पकोड़ी, उसळ-बड़ा बनाता था। उसके पास जगह थी पर क्रेशर बंद होने के बाद उसका धंधा ठीक से नहीं चल रहा था। दोनों ही मेरे पिताजी के पास अपना दुख-सुख करने बैठते थे l पंडित बोलता था इससे तो कहीं ढाबे में नौकरी मिल जाए तो ठीक है। नहीं तो मुंबई छोड़ना पड़ जाएगी। वहां अन्ना भी रोता था। पहले ठीक था पर अवी धंधा ही च नहीं होता है। मेरे पिता ने अन्ना को सलाह दी कि यह उसळ पाव छोड़ कर खाना बनाने का काम शुरू करो। यह पंडित जी हैं। यह खाना बनाएंगे और सारे पहाड़ी ड्राइवर तेरे ढाबे में खाना खाने आएंगे।
मेरे पिता की बात सच हो गई। भोजा का होटल रात को पहाड़ी ड्राइवरों
से भर जाता और ढाबे में पहाड़ी भाषा ही ज्यादा चलती थी। अन्ना भी धीरे-धीरे टूटी-फूटी
पहाड़ी बोलने लग पड़ा। उसके ढाबे को तो पंख लग गए थे। उसका काम बढ़ता ही जा रहा था।
पंडित जी को भी काम मिल गया था। जब तक शरीर ने साथ दिया। वे कोई 10-15 साल अन्ना के
ढाबे में काम करते रहे और उसके बाद हिमाचल लोट गए।
ड्राइवरों को खाने के साथ शराब भी चाहिए होती थी। अन्ना ने गैर कानूनी
शराब भी बेचना शुरू कर दिया। इससे ड्राइवरों के साथ-साथ वह ढाबा गुंडों, लफंगों और
अपराधियों का भी अड्डा बन गया। यह भी भाग्य की बात थी। उन दोनों का तो भला हो गया पर
हमारे घर के एकदम सामने होने के कारण यह एक नई बीमारी गले पड़ गई। इसका कोई इलाज नहीं
था।
समय के पास सभी बीमारियों का इलाज होता है। वह अन्ना चला गया। उसके
बेटे ने कहीं और दूसरी जगह अपना अलग होटल खोल लिया है। यह ढाबा बेटियों और जवाइयों के हिस्से आया मगर उनसे
चला नहीं और बंद हो गया। अब बिकने के लिए रखा है परंतु ज्यादा मूल्य मांगने के कारण बिक नहीं रहा है। मेरा घर भी लगभग
बिक ही गया है। यादें हैं और इस डायरी के बहाने मैं आपसे बातें कर रहा हूं। आज वह समय
यादों से भी आगे निकल गया है।
(सुधीर पटवर्धन की चित्रकृति, इंटरनेट से साभार)
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मुंबई में पले बढ़े कवि अनुवादक कुशल कुमार 2005-2010 तक मुंबई से हिमाचल मित्र पत्रिका का संपादन किया। चर्चित द्विभाषी कविता संग्रह मुठ भर अंबर। |
वाह कुशल जी वाह !!
ReplyDeleteइसा डायरिया दे वरकेयां पढ़ी नै दिले च इक उबाळ उट्ठा दा कनै इक बैट्ठा दा । एड्डी बड्डी मुम्बई जिसा च बेह्साव दुनियाँ ; मीरां ते मीर कनै ग़रीबां ते ग़रीब ; कनै सैः वी किलु विलु कीड़ेयाँ लेक्खा लोक कनै ऐसीया मुम्बई दीया हौआ पाणियाँ च जम्मी पळी नै वी ह्माचले कन्नै इतड़ा प्यार ; इतड़ी पीड़ ; इतड़ा ख्याल भई मुञ्जो तां बड़ी ह्रैनगी हुन्दी , एह कुण जेह्यी रूह है जेहड़ी डलैवरां दिया जिन्दगीया दे रुआरुआं, दुःखां पीड़ां - सूळां कनै सौ खुसुडंकां दा इतणा बद्धिया वखान करा करदी हूंगी। होर कोई नि है सुज्झा करदा
माई दा लाल जिनी जे इतणियाँ गह्राईया नै ह्माचलीयां दींयां मुसीवतां भरिया जिन्दड़िया दा वखान कित्ता होयै । धन्न हन तुसां कनै धन्न तुसां दी है डायरी ।
प्हाड़ी भासा पर तुसां दी गैह्री पकड़ कनै मठास भनौरे दे शैहते ते घट्ट नी है ।
मीद है तुसां होर वी डायरी दे वरकेयां खोलदे रैंह्गे कनै ह्माचले देयाँ सुखां - दुखां जो ठुआळढे रैंह्गे । बड़ी बधाई , ।🙏🏻