अजकला श्राद्ध लगेयो। पेश है हिन्दी कवि अरुण कमल होरां दी कवतां श्राद्ध का अन्न दा अनुवाद। कवता च धू शब्द दा मतलब कवि अरुण कमल होरां ते पुच्छेया। तिन्हां नै होई ईमेल भी थल्लें दित्तियो है। कवि शब्दां चुणने ताईं कितणी मेहनत करदा, इन्हां मेलां ते एह् अण्दाजा लगदा है। कवतां दा अनुवाद अनूप सेठी नै कीत्तेया है। उपरला फोटो : हरवीर मनकू।
श्राद्धे दा अन्न
एक
श्राद्धे दा अन्न खाई हटी
नै औआ दे तेज तेज
दूरा दे ग्रां दे लोक जोरा
जोरा नै गलांदे
सलूण्यां दा सुआद मरह्यो दा
अचार व्योहार
ठठेयां मारदे
भौंकदे कुत्तेयां पचांह्
नह्ठान्दे
लालटैन जणता जमीना छूआ दी
ढौर चौंही पासें नच्चा दे
उड़ान्दे धू
दो
मुस्कल है
निग्गळणा श्राद्धे दा अन्न
पैंठी च
बैह्णा
फिरी
परीह्णा न्याह्ळणा
फिरी ग्राह्
चकणा मरह्यो दे पिता दे साह्मणै
मुस्कल है
संग्घे दे थल्लैं लुह्आणा
कोई दूंह् हत्थां नै तूहा दा ग्राह्ए
रुज्झी गया संग्घा
चबह्ऐड़
चल्ला दी नीं
भिरुआं
हिल्लां दियां नीं
चौकड़िया
बैठ्यो सई गइयो जंघ
साह्मणै खड़ोत्या
मरेह्या हास्सा दा
पुच्छा दा कदेह्यी है बूंदी कदेह्या रायता?
श्राद्ध का अन्न
एक
श्राद्ध का अन्न खा लौट रहे तेज़
कदम
दूर गाँव के ग्रामीण ज़ोर-ज़ोर से
बतियाते
व्यंजनों का स्वाद मृतक का आचार
व्यवहार
लगाते ठहाका
भूँकते कुत्तों को पीछे रगेदते—
लालटेन लगभग ज़मीन छूती
परछाइयाँ चारों बगल नाचतीं—
उड़ाते धू!
दो
कठिन है निगलना श्राद्ध का अन्न—
पाँत में बैठना
फिर पोरसन का इंतज़ार
फिर कौर उठाना सामने मृतक के पिता
के
कठिन है कंठ के नीचे उतारना
कोई भीतर दोनों हाथों से ठेल रहा
है निवाला
अवरुद्ध है कंठ
मुँह चल नहीं पाता
बरौनियाँ हिल नहीं रहीं
पालथी में भर गई जाँघ—
सामने खड़ा है मृतक हँसता
पूछता,
कैसी है बुँदिया कैसा रायता?
कवतां च आह्यो कुछ शब्दां पर चर्चा
अरुण कमल: प्रिय अनूप
जी, आज तक किसी ने इतनी बारीकी से न तो पढ़ा न ही बात की।
यहाँ धू है
जो धूर की याद दिलाता है, यानी तेज कदम चलने का भान।
लेकिन धू का
एक और अर्थ बनता है—जमकर हो हल्ला करते आनंद मनाना। यह अर्थ मृत्यु और शोक के
विपरीत है। इस तरह कई अर्थ बनते जाते हैं।
मृत्यु, जीवन का जोर,
विरोधाभास, आदि सब समाहित हैं। और दोनों खंड
मिल कर पूरा वृत्त बनाते हैं।
इसलिए आपने
जिन जिन शब्दों को रेखांकित किया वे सब जरूरी हैं।
मैं विनत
हूँ कि आपने कविता को इतने गौर से पढ़ा। कोई तो समानधर्मा मिला।
मुंबई में न मिल पाने का दुख अब और भी साल रहा है। कृपया अपना फ़ोन नंबर दें ताकि बात कर सकूँ।
सप्रेम
अरुण कमल
एक बात और—
धू = धूर + धूम
अनूप सेठी: अरुण जी,
धू की आपने
कई अर्थच्छाटाएं बता दी हैं। अब मेरे सामने इसे
अपनी बोली भाषा में उतारने की चुनौती पैदा हो गई है।
आपसे इस तरह संवाद का मौका मिलना आह्लादकारी है। साक्षात मिलना तो और भी आनंददायी होगा।
अरुण कमल: अब लोग कविता को अख़बार की तरह पढ़ते
हैं। भाषा और शब्द पर ध्यान कम है। मैं फ़ोन करूँगा ।
अरुण कमल |
शानदार कविता का लाजवाब अनुवाद।बहुत डूब कर किया है।
ReplyDeleteधन्यवाद मित्र।
Deleteप्हाड़ी भासा च इतड़ा रसीलापण कनै लचीलापण है भई हिन्दी सब्दां दीयां खड़ीयाँ दुआल्लां प्हाड़ीया दा किच्छ नी बगाड़दीयां । बल्कि ऐसे खट्टे- मिट्ठे कनै मद्धरेयां दे सुआदां दा हुआड़ जेह्या उठदा भई प्हाड़ीया च नुवादियो कवता , मूळ कवता ते होर वी ज़ैदा मूळ बज्झोणा लई पौन्दी । अनूप सेठी जी नैं प्हाड़ी नुवादे विच्च, मूळ कवता दीया आत्मा दे अन्दर धान्ना देंयां खेत्तरां दी खुश्बू भी घोळी त्ती तिस नै क्या होया भई कवता होर वी दिला दैं नेड़ैं बुज्झोणा लगी पई ।
ReplyDeleteमन तां करा दा भई होर भी देह् - देह्यीयां कवतां मिल्लन तां प्हाड़ीया च इञ्यां भई, रंग बज्झी जायें ।