है हिमाचली भाषा नाम की कोई भाषा?
असां दिया भाषा दे बारे च चर्चा
मतेयां सालां ते चलियो है। कदी जरा तेज होई जांदी कदी मंदी। इलैक्शनां परंत दिव्य
हिमाचल आळेयां इक दिन चर्चा कराई। तिसते परंत दूंह् लेखकां आशुतोष गुलेरी कनै यतिन
होरां अलग-अलग लेख भी लिखे। एह् लेख कनै अखबारा दी चर्चा दयारे पर है। हुण
भूपिंद्र भूपी होरां भी अपणे वचार रखे हन। गल गांह् बधै, इस ताईं एह् लेख भी एत्थी पेश है। एह् लेख भी हिंदिया च है।
अक्सर हिमाचल प्रदेश के लिए आजकल 'हिमाचली भाषा' की वक़ालत की जाने लगी है । जैसा कि कहा जाने लगा है कि
प्रदेश की सब भाषाओं को मिलाकर एक राज्य भाषा बनाई जाए तो यहाँ प्रश्न यह उठता है
कि क्या यह आवश्यक है कि किसी प्रदेश के भाषा-वैविध्य को समाप्त करके सब भाषाओं या
बोलियों की खिचड़ी बनाकर एक नई भाषा बना दी जाए जो किसी भी क्षेत्र की अपनी न हो ?
मेरा मानना है कि भाषा-विस्तार के सामान्यतः दो प्रकार होते
हैं : जनजातीय और भौगोलिक । जनजातीय
भाषाओं पर जनजाति का बंधन रहता है। जनजाति विशेष के लोग किसी भी क्षेत्र में रहते
हुए अपनी भाषा सीख ही लेते हैं और यदि भौगोलिक आधार की बात करें तो ऊपरी हिमाचल की
बोलियां निचले हिमाचल प्रदेश के लोगों को समझ भी नहीं आतीं। वहीं बघाट,
सुकेत/मंडी, कहलूर, कांगड़ा घाटी, चम्बा डुग्गर/पुंछ/रजौरी, मीरपुर और पोठोहार या पोठवार आदि क्षेत्रों में बोली जाने
वाली बोलियां या भाषाएं लगभग एक ही तरह के व्याकरण पर आधारित हैं।
ऐसे में इस पहाड़ी प्रदेश के लिए अगर अलग भाषा की परिकल्पना
की जाती है तो एक 'लोकप्रिय और स्थापित' भाषा को आधिकारिक भाषा बनाया जा सकता है परंतु इसे दैनिक व्यवहार में शामिल
करने के लिए सबको विवश नहीं किया जा सकता। कितनी ही भाषाएं या बोलियां पिछले कुछ
वर्षों में प्रचलन से बाहर हो गई हैं। कुछ भाषाओं या बोलियों को मारकर किसी एक
भाषा को थोप देना निस्संदेह किसी भी समाज के लिए हानिकारक है। जिस प्रकार भारतवर्ष
की अनेक भाषाएं देश की विविधता में चार चाँद लगाती हैं,
उसी प्रकार हिमाचल प्रदेश की संस्कृति और भाषा में विविधता
प्रदेश की सुंदरता को बढ़ाती है। संस्कृति
का विनाश सभ्यता के विकास के साथ होता आया है। समाज जितना सभ्य या तथाकथित शिक्षित
बनता जा रहा है, उतना
ही अपनी संस्कृति और मातृभाषा से दूर होता जा रहा है। बहुत से लोग अपनी मातृभाषा
को केवल इस भ्रम में मार चुके हैं कि उन्हें अपनी भाषा किसी 'उच्च संसाधन भाषा' के सामने तुच्छ लगती है।
हिमाचल की बोलियों, भाषाओं को आम तौर
पर पहाड़ी भाषा कह दिया जाता है, परन्तु दुविधा यह भी है कि नेपाल से लेकर कन्धार सीमा तक के
पहाड़ी लोग अपनी-अपनी भाषा को 'पहाड़ी' नाम से ही पुकारते हैं। ऐसे में हिमाचल प्रदेश के लिए किसी
एक राज्य-भाषा का रास्ता कैसे साफ़ हो सकता है; यह विचारणीय है। हिमाचली भाषाएं हो सकती हैं परंतु हिमाचली
भाषा नाम की कोई एक भाषा कम से कम इस पहाड़ी प्रदेश में तो सम्भव प्रतीत नहीं होती।
भाषा किसी सीमा में नहीं बाँधी जा सकती । ज़िलों,
प्रदेशों या देशों की सीमाओं में तो बिल्कुल भी नहीं!
कांगड़ा,
हमीरपुर, राजौरी और यहाँ तक कि रावलपिंडी तक के लोग बिना किसी तीसरी
भाषा का सहारा लिए अपनी मातृभाषा में आसानी से वार्तालाप कर सकते हैं। संस्कृतनिष्ठ
होने के कारण पहाड़ की भाषाओं को कम नहीं आंका जा सकता। उदाहरण के लिए धौलाधार से
शिवालिक तक के ऊँचे-नीचे पठारी भाग अर्थात कांगड़ा घाटी में बोली जाने वाली कांगड़ी
भाषा न केवल निचले हिमाचल के चार-साढ़े चार ज़िलों, पंजाब के पहाड़ी क्षेत्रों और जम्मू के कुछ भागों में बोली
जाती है बल्कि पाकिस्तान के कुछ हिस्सों में भी बोली जाती है । फिर भी इस भाषा को
एक 'न्यून संसाधन भाषा' माना जाता है, क्योंकि हम इस भाषा और इसके जैसी अन्य पहाड़ी भाषाओं का
महत्त्व स्वयं ही नकारते जा रहे हैं। ऐसी किसी भी विकासशील भाषा की महत्ता किसी भी
उच्च संसाधन वाली विकसित भाषा से कम नहीं आंकी जा सकती।
जो लोग यह जानना
चाहते हैं कि 'पहले
भाषा आई फिर व्याकरण' उनके लिए मैं स्पष्ट कर दूँ कि व्याकरण के बिना किसी भी भाषा की कल्पना भी
नहीं की जा सकती । व्याकरण लिखा जाना और व्याकरण होना,
दो अलग-अलग बातें हैं। व्याकरण नहीं लिखा जाना किसी भाषा का
दुर्भाग्य हो सकता है, परन्तु यह कहना कदापि उचित नहीं है कि कोई भाषा बिना व्याकरण के ही रही,
जब तक उसका व्याकरण लिखा नहीं गया ।
एक और बात, भारत की भाषा को भारती, आंध्र प्रदेश की भाषा को आंध्री या केरल की भाषा को केरली
नहीं कहा जाता । पड़ोसी राज्य उत्तराखंड को ही ले लीजिए यहाँ दो मुख्य भाषाएं हैं:
कुमाउँनी और गढ़वाली। अब क्या उत्तराखंड के लोगों को उत्तराखंडी नाम से अलग भाषा
बना लेनी चाहिए ? जब तक हम बारीकी से अध्ययन नहीं करते हम अनुमान लगा लेते हैं कि जो क्षेत्र का
नाम है,
भाषा का भी नाम भी
उसी के अनुरूप होगा । परन्तु हमेशा ऐसा होना आवश्यक नहीं है। किसी अन्य ज़िले के
व्यक्ति को यह लग सकता है कि लाहौल की भाषा
का नाम 'लाहुली'
होगा। ठीक वैसे ही अन्य राज्य के किसी व्यक्ति को लग सकता
है कि हिमाचल के लोगों की भाषा 'हिमाचली' होगी परन्तु हिमाचल प्रदेश के बाशिंदे भी यही बात कहें तो
अटपटा लगता है। अब हिमाचल प्रदेश जैसे बहुभाषी राज्य की पहाड़ी बोलियों और भाषाओं
को ज़बरदस्ती मिलाकर हिमाचली भाषा जैसा काल्पनिक नाम दे देना क्या तर्कसंगत है? (रेखांकन: डाॅ. अरुणजीत ठाकुर) भूपेंद्र भूपी
बहुत खूब भूप्पी भाई जी बधाई जी।
ReplyDeleteअसाँ काँगड़िए.
ReplyDeleteजय हो.!!
सही कहा भूपी जी। समग्र हिमाचल प्रदेश की एक भाषा होना संभव नहीं। इस बहुभाषी राज्य में केवल एक भाषा की परिकल्पना करना अन्य भाषाओं का संहार करने तुल्य है। 'हिमाचली पहाड़ी' कौन सी भाषा है और यह राज्य के किस भाग में बोली जाती है?
ReplyDeleteक्या हम राज्य में बोली जाने वाली भाषाओं को मिला कर एक खिचड़ी पकाने की और अग्रसर हैं?
एक राज्य से एक से अधिक भाषाएं 8वीं सूची में सम्मिलित हो सकती हैं। फिर बहुभाषी प्रदेश में एक भाषा की परिकल्पना क्यों? सभी भाषाओं को पनपने के लिए एक सा माहौल मिलना चाहिए।
ठीक गलान्दे तुसाँ..
Deleteपर सैह् नी समझदे.
बोलदे 'नाम लैणे असाँ..
'माह्चलिया 'च
भौएँ समझा ही नी ओए.
अपणी भी बचल़ोए.!
धन्यवाद जी
Deleteमेरी गल्ल समझणे ताईं
मेरी गुज़ारिश है कि अपणा नाँ भी लिक्खा ताकि पता चले कुस दी आईडी है। धन्यवाद।
ReplyDelete---- भूपी