पहाड़ी भाषा दी नौई चेतना .

Saturday, June 18, 2022

कविता की दस्तक

 


कविता की दस्तक

कुशल कुमार के हाल ही में छपे हिमाचली पहाड़ी-हिन्दी काव्य संग्रह मुठ भर अंबर की चर्चा पहाड़ी और हिन्दी समाज दोनों में चल रही है। हिमाचली पहाड़ी के लिए  यह अच्छा शगुन है। कुशल की पहाड़ी कविताओं को हिन्दी में पढ़ने के क्रम में पेश है कवयित्री सुजाता की यह समीक्षा    

कुशल जी के काव्य – संग्रह ‘मुठ भर अंबर’ में हिमाचल की धड़कन है। कविताएं पढ़ने के बाद लगता है कि मुंबई में ज़िंदगी के विभिन्न दौरों से गुज़रने के बावजूद उनकी जड़ें हिमाचल में ही हैं। पहाड़ों की रसीली धरती से ही उन्हें खुराक मिलती रही है। लोकभाषा की तर्ज पर लिखी, सादगी के रंग में रंगी, बनावटीपन के  बोझ से दूर अपनी अलग पहचान बनाती ये कविताएं एक तरफ़ पहाड़ी, दूसरी तरफ़ हिंदी अनुवाद के साथ अपना सफ़र तय करती हैं। हिंदी पाठकों के लिए पहाड़ी में इन्हें पढ़ना पहाड़ों की सैर सा सुखद अनुभव है। 

हिमाचल की संस्कृति, जनजीवन, लोकविश्वास और कविताओं में वर्णित छोटी–छोटी बातें, छोटे–छोटे सुख–दुःख उन्हें आम आदमी के बहुत करीब ला खड़ा करते हैं। जबकि दूसरा सिरा समाज, राजनीति, आर्थिक मसलों और ग्लोबल सरोकारों से जुड़ता है। 

संग्रह के आरंभ में एक कविता है ‘कोई सुखी नहीं’

दुख आज का फैशन है

गली–गली दुखों की दुकान है

सुखों का लेबल दुखों का सामान है। 

कवि ने बहुत सहजता से दुःखों को स्वीकार किया है। आलोचक इसे कवि की सीमित दृष्टि कह सकते हैं, लेकिन व्यापक फलक पर इसे दर्शन व अध्यात्म से जोड़ कर देखा जा सकता है। बुद्ध ने भी संसार को दुःखों का घर कहा है। इसे स्वीकारने पर ही जीवन के अनबूझ रहस्य खुलते हैं, निःसारता में से जिजीविषा के बीज फूटते हैं, शाश्वतता का अनुभव होता है। यूं कहें कि जीवन सत्य से रु–ब–रु होते हैं। 

रेल पटरी पर दौड़ रही थी’ कविता की अंतिम पंक्तियां—

आज ऊपर वाले के अंबर के नीचे

हमने कितनी छतरियां तान ली हैं

फिर भी कुछ न कुछ छूट ही जाता है

सब ढकोसले हैं

एक उसकी नीली छतरी ही मुकम्मल है—

इसी विश्वास और आस्था को उजागर करती हैं। 

आजकल रिश्ते भी मौसम की तरह रंग बदलते हैं। कवि हृदय को बहुत सी बातें चुभती हैं। उसे लगता है–

पेड़ मिले

छांव नही मिली

कुएं मिले

पानी नहीं मिला

तस्वीर बड़ी

चौखटा छोटा मिला। 

धन कमाने के चक्कर में दीन–धर्म, ईमान सब खत्म होता जा रहा है–

न इंसान

न भगवान

पैसा महान है,

सब एक दूसरे को निगलते मगरमच्छ बनते जा रहे हैं। 

खड्ड’ कविता में पहाड़ का दुःख बहुत शिद्दत से उभर कर आया है–

पुल पर लगा

विकसित हिमाचल का इश्तहार

बड़ा होता गया

मेरी खड्ड को निगलता गया

कल इश्तहारों में ही मिलेंगी खड्डें। 

कवि औरतों के प्रति ख़ास संवेदनशील है। समाज में उसे जो बराबरी का दर्जा मिलना चाहिए, नहीं मिला। वह आज भी आर्थिक और भावनात्मक शोषण का शिकार है। ‘मुन्नी का सपना’, ‘यह ज़मीन का प्यार ही है’, ‘हम शर्मसार हैं’ में ऐसे प्रगतिशील विचारों की अभिव्यक्ति है। औरत के अंदर की इस औरत को भी कौन समझाए

तू नदी है कोई कुआं नहीं

इन गंदे मेंढकों की

कूद से बहुत ऊपर है। 

मित्रों को क्या दोष दूं’ कविता में कितनी सरलता है–

दूसरों की गलतियां देखता रहा

अपनी खाट के नीचे कभी झाड़ू फेरा ही नहीं–      

कुशल जी कितनी सरल भाषा में कितने बड़े फलसफे की बात कह जाते हैं। जीवन दर्शन तो उनकी और भी कई कविताओं में झलकता है –

कह कर भी क्या होगा

कहोगे और चुप हो जाओगे

हासिल वही शून्य। 

एक और जगह वह लिखते हैं–

भला बुरा सब मन का खेल

मन माने तो पास, न माने तो फेल।

कुशल जी अपनी बात कहने में व्यंग्य का भी सहारा लेते हैं, जो उनके भावों को और अर्थ देता है।

मोहर वाली तस्वीर’ जीवन की तल्खियों वाली तस्वीर है–

यह तस्वीरों का समय है

गूंगी बहरी

मरी हुई तस्वीरों का समय है। 

जीवन की इस आपाधापी में कवि (आम आदमी) थक गया है, हार सा गया है। ‘बंदर’,  ‘वानर मति’, ‘बंदर नियति’ कविताओं में एक डर, एक संशय, सब ओर अपने पैर पसार रहा है।

कैलेंडर’ बदल रहा है, पर वही दुःख, वही सपने__ कवि सवालों में घिरा परेशान सा है कि समय हाथ से निकलता जा रहा है। 

संग्रह की अंतिम कविता  ‘तू ही बता परमात्मा’  में कवि परेशानियों से घबरा कर परमात्मा से गुहार लगाता है–

क्या करूं मैं इस जीवन का, सब तरफ़ धुआं ही धुआं है, धर्म के नाम पर पाखंड और स्वार्थ का बोलबाला है– ‘तेरे मेरे मिलने की कहीं कोई जगह नहीं’ यह कविता एक प्रश्न चिह्न बन कर उभरती है कि सब धर्मों से ऊपर है मानव धर्म, कवि ने आडंबर और दिखावे भरी धार्मिकता का जम कर विरोध किया है। 

कुशल जी की एक और प्रभावशाली कविता है–  ‘समय हाथ से निकल न जाए’  वक्त की उधड़ी सिलाईयां / कोई दर्जी सी नहीं सकता, इसलिए  व्यक्ति और समाज को नींद से जागने की जरूरत है। 

कह सकते हैं कि कुशल जी की कविताएं समाज को चुनौती देती हैं ।

संग्रह में प्रेम कविताओं का स्वर दबा हुआ लगता है, जो ऊर्जा प्रेम से मिलनी चाहिए उसका अभाव दिखता है। कुछ सीमाओं के बावजूद उनकी कविताएं हमारे अंदर दस्तक देती हैं। इन में कुशल जी ने चेतना के विभिन्न स्तरों को आत्मसात किया है– वही आकाश हमारे अंदर भी है बाहर भी– या कहें मुट्ठी भर आकाश को उन्होंने अपनी कविताओं में फैला दिया है समंदर से  पहाड़ों तक। 

सुजाता

हिमाचल में जन्मी (1.4.1959) पली-बढ़ीं और पढ़ीं। तीन काव्य पुस्तकें प्रकाशित। कविताएं प्रमुख पत्र–पत्रिकाओं में प्रकाशित। रेडियो, दूरदर्शन और कवि–सम्मेलनों में हिस्सेदारी। अनुवाद में रुचि, अनूदित कविताएं पंजाबी पत्रिकाओं में भी छपी हैं। कविता मेरे लिए दोहरी तलाश है। अपने आप को बेहतर जानना और समाज से जुड़ना इसी तलाश के पहलू हैं। यह तलाश बनी हुई है, जब तक मेरे भीतर की कविता जीवित है। हिमाचल की रसवंती धरती और पंजाब की सौंधी गंध लिए यह सफ़र जारी है– – –


1 comment:

  1. धन्‍यवाद सुजाता जी। आप द्वारा की गई इस समीक्षा से मैं खुद को बहुत ही सम्‍मानित अनुभव कर रहा हूं। मेरी कविताओं को आपका स्‍नेह मिला। अभिभूत हूं।

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