कुछ दिन पैहलें हिमाचल मित्र दे सच्चे कनै बड़े प्यारे मितर मधुकर भारती
होरां दा चाणचक देहांत होई गिया। हिंदी साहित्य च अपणे जोगदान कनै हिमाचल दे
लिखारीयां जो मंच बणाई ने देणे ताईं सैह हमेशा याद ओणे हन।
जाह्लू असां हिमाचल मित्र च प्हाड़ी भासा जो लई ने धेड़़-बुणा च थे। दुअे अंके
च ही तिन्हां एह लेख लीखी ने पहाड़ी भासा
पर असां दे विमर्श दी नींव रखी थी।
मूल हिन्दी लेख कनै प्हाड़ी अनुवाद पेश है।
कई भासा शास्त्री
मनदे कि हिमालय दी छाऊऑं वाळयां लाकयां च अरुणाचल प्रदेश ते अफगानीस्तान तिक्कर
बोलियॉं जाणे वाळीयां उपभासां च उच्चारण लग लग होणे ते बावजूद कुछ सांझे लफ्ज्
कनै ईको देहे वाक्य मिलदे। जे ठेठ प्हाड़ीया दी गल कीती जाए ता मशहूर
भासा-विद्वान डॉ ग्रिर्यसन भद्रवाही कनै जौनसारी जो भी
पहाड़ीया च शामल करदे। जे एह देही गल है ता कश्मीर ते गढ़वाल तिकर इक पहाड़ी भासा
बणी सकदी। पूरे हिमाचल च बोली कनै समझा ओणे वाळी इक भासा कडणा वैसे ता कठण ही
लगदा। हिमाचल च दो भासा परिवार ता हन ही। इक आर्य परिवार दी भासा कनै दूई किन्नौर
कनै लोह्-स्पीति दी तिब्बती-बर्मी परिवार। बाकी दसां जिल्यां च भी आर्य भासा च
लग-लग जमीनी भूगोल कनै जाती संस्कारां दे कारण लग-लग बोलियां दे शब्द भंडार कनै
बोलने दे लेहजे (उच्चारण भेद) लग-लग हन। कुछ अपवादां छडी देया ता तिब्बती-बर्मी
दा आर्यभासा ने कुथी मेल बेठदा ही नी।
वैसे पहाड़ी संस्कृत-निष्ठ
भासा है। इसा दे मूल च जेडि़या बोलियां हन जियां कांगड़ी, पंगवाली, महासूवी आदि च
लौकिक, संस्कृत दे लफ्ज ज्यों दे त्यों शामल हन कनै धड़ल्ले ने बोले जांदे
हन। जियां महासूवी च ‘सै का निय’ (वह क्या ले जाता है) का संस्कृत में ‘’स: का
नियति’।
‘वह’ या ‘उस’ ताईं
‘स:’ (या ‘सैह’) लफ्ज ता महासूवी च ही नी
कांगड़ी बोलीया च भी है। थोड़ा देया स्वरे च अंतर है। अपणी कताब ‘कुलूत देश की
कहानी’ च स्व लालचंद प्रार्थी होरां संस्कृत कनै कुल्लूवी च चलने वालयां लफजां
दी इक लम्मी सूची भी दितीयो। ईयां ही कांगड़ी, चम्ब्याळी कनै मण्डयाळी च भी देह-देहयां
लफ्जां दी भरमार है। जलंधर दूरदर्शन दिया इकी कवि-गोष्ठीया च महासूवी कवता ‘ खुम्बली
दा आं’ सुणी ने कांगड़ी कवि डॉ प्रत्यूष गुलेरी बोलणा लगे। एह देही कवता सुणी ता
लगदा नी कि महासूवी बोली समझा नी आई सके। (दुर्बाध है।) एह कवता ता पूरी समझा आई
गई।
इन्हां गलां ता ते
लगदा जे भासाविद कनै शोधार्थी चाहन ता इको देही इक पहाड़ी भासा बणाई जाई सकदी। पर मेरा वचार है भासा दे बणने च
खाली लफ्जां दा ही जोगदान नीं होंदा। लग-लग इलाकयां दी लोकसंस्कृति, जाती संस्कार
कनै बोलणे दे लैहजयां-भाखां दा भी असर पोंदा होणा। सीमा ने लगयां जनजातीय जिलयां
जो छडी भी हिमाचल च दो लग-लग संस्कृतियां मौजूद हन। कांगड़ा, ऊना, हमीरपुर,
बिलासपुद कनै चम्बा जिलयां दी इक लग संस्कृति है। इन्हां दियां बोलीयां पर
पंजाब कनै डोगरी दियां उपभासां दा असर है। इन्हां ते लग शिमला, मण्डी, कुल्लू,
सिरमौर कनै सोलन जिलयां दी लग जीवन शैली है। एैत्थु ग्रामदेवता परंपरा है। ओथु दा जनजीवन अपणे रोज के कम्मकार चलाणे
ताई ग्रांये दे देऊ दे सीरवादे ते संजीवनी लेंदा। इन्हां दी बोलीयां पर जौनसारी
दा बड़ा असर है। इनी साह्बें पहाड़ीया दियां कुल तिन भासां बणाईयां जाई सकदीयां। इक तिन्हां लाकयां दियां जित्थु ग्रां देऊ दी प्रथा नी
है। दूए ग्रां देऊ दी प्रथा वाळे लाके कनै तरीये किन्नौर कनै लौहळ।
हिमाचल प्रदेश च
पहाड़ी भासा दी मूहीम प्रार्थी होरां शुरु करवायी थी। तिन्हा पहाड़ी च साहित्य
सिरजण जो प्रौत्साहित ही नी कीता बल्कि गति भी पकड़ायी थी। इस करी ने पहाड़ीया च
मता सारा लीखया गिया। हर जिले च भासाई कनै सांसकृतिक सर्वेक्षण कीते गै। तिन्हा
दे अधारे पर कुछ गंभीर शोध पत्रवालियां भी प्रकाशित कितियां गईंयां। इन्हां
पत्रावालियां च इक पहाड़ी भासा बणाणे ताईं कई महत्वपूर्ण तथ कनै बौधिक समग्री
लोकां दे सामणे आई सकी। इस दी कड़ीया च हिमाचल कला भाषा संस्कृति अकादमीएं इक बड़ा
पहाड़ी हिन्दी शब्दकोष दा प्रकाशन कीता जिसच दसया गया कि सर्वेक्षकां लगभग दस
जहार देहे लफ्ज तोपी कडयो जैड़े सारयां
जिलयां च इकी रुपे च बापरे जांदे। ताह्लू इक मेद बणी थी इक पहाड़ी भासा दा बणना
कनै सविंधान दी अठमीयां अनुसूची शामल होणे च कोई शक नी है। परंतु बाद च राजनीतिक
चाळयां कनै नौकरीशाहां दियां लागर्जीयें सब कुछ सुआह करी ता। हुण पहाड़ी दी गल
करने वाळयां पर नेता कनै नौकर शाह ता हसदे ही हन पर कुछ स्वयंभू साहित्यकार भी तिसदी ख्ल्लिी
उड़ाणे ते परहेज नीं करदे। पूरे हिमाचल प्रदेश दी इक पहाड़ी भासा दा वकास कनै तिसा
दा संविधान दिया अठमीया अनुसूची या च दर्ज
कराणे दा अभियान असां दिया पीढ़ीया दे तिहास निर्माण दी प्रक्रिया है। इस सांस्कृतिक
अभियान दा एह हश्र दु:खदायी है।
उपेक्षा
के भंवर में फंसी एक मातृभाषा : पहाड़ी
अनेक
भाषा शास्त्री मानते हैं कि हिमालय की छाया वाले क्षेत्रों में अरुणाचल प्रदेश से
अफगानिस्तान तक बोली जाने वाली उपभाषाओं में उच्चारण की विभिन्नताओं के बावजूद
कुछ सांझा शब्द व समान वाक्यविन्यास पाए जाते हैं। अगर ठेठ पहाड़ी की ही बात की
जाए जो प्रसिद्ध भाषा-विद्वानी डॉ ग्रियर्सन भद्रवाही और जौनसारी को भी पहाड़ी
भाषा में ही सम्मिलित करते हैं। यदि ऐसी बात
है तो कश्मीर से गढ़वाल तक की एक पहाड़ी भाषा बन सकती है। पूरे हिमाचल में बोली व
समझी जाने वाली एक भाषा निकाल पाना वैसे कठिन लगता है। हिमाचल में दो भाषा-वर्ग तो
हैं ही। एक आर्यपरिवार की भाषा तथा दूसरी किन्नौर तथा लाहौल-स्पिति की तिब्बत-बर्मी
परिवार की। शेष दस जिलों में आर्यभाषा में भी भौगोलिक भिन्नताओं व जातीय संस्कारों
के कारण अलग-अलग बोलियों के शब्दभण्डार व उच्चारण – भेद
भी अलग अलग हैं। तिब्बत – बर्मी भाषा का सामंजस्य, कुछ
अपवादों को छोड़कर, आर्यभाषा से कहीं बैठता ही नहीं।
हिमाचल मित्र अंक दो में भारती |
वैस
पहाड़ी एक संस्कृतनिष्ठ भाषा है। इसके मूल में जो बोलियां हैं जैसे कांगड़ी, पंगवाली
महासुवी आदि, उनमें लौकिक, संस्कृत के शब्द ज्यों
के त्यों समाहित हैं और धड़ल्ले से दैनिक वार्तालाप में प्रयुक्त किए जाते हैं।
जैसे महासुवी में ‘सै का निय’ (वह क्या ले जाता है)
का संस्कृत में ‘स: का नियति’। ‘वह’ या ‘उस’ के
लिए ‘स:’ (या ‘सैह्’) शब्द
तो मात्र महासुवी में ही नहीं बल्कि कांगड़ी बोली में भी प्रयुक्त होता है। थोड़ा
टोन का अंतर है। अपनी पुस्तक ‘कुलूत देश की कहानी’ में
स्वर्गीय लालचंद प्रार्थी जी ने संस्कृत व कुल्लूवी में प्रचलित शब्दों की एक
ल्रम्बी सूची भी दी है। इसी तरह कांगड़ी चम्बयाली व मण्डयाली में भी ऐसे शब्दों
की भरमार है। दूरदर्शन जालन्धर में आयोजित एक कवि-गोष्ठी में महासुवी कविता ‘खुम्बली दा आं’ सुनकर
कांगड़ी-भाषी डॉ प्रत्यूष गुलेरी कह उठे थे, ‘इस तरह की कविता सुनकर
तो लगता नहीं कि महासुवी बोली दुर्बोध है। यह कविता तो पूरी तरह समझ में आ गई।‘
इन
बातों से तो लगता है कि यदि भाषाविद् व शोधार्थी चाहें तो एक समान पहाड़ी भाषा
विकसित की जा सकती है परन्तु मेरा विचार है कि किसी भी भाषा के विकास में मात्र
शब्दों का योगदान नहीं होता। विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों की लोकसंस्कृति, जातीय
संस्कारों व उच्चारण-शैलियों का भी समुचित प्रभाव पड़ता होगा। सीमान्त जनजातीय
जिलों को छोड़कर हिमाचल में दो अलग अलग संस्कृतियां विद्यमान हैं। कांगड़ा ऊना, हमीरपुर, बिलासपुर
व चम्बा जिलों में एक अलग संस्कृति है। इनकी बोलियों पर पंजाबी व डोगरी की
उपभाषाओं को प्रभाव है। इनसे अलग शिमला, मण्डी, कुल्लू, सिरमौर
व सोलन जिलों की जीवनशैली है। यहां ग्रामदेवता प्रथा है। पूरा जनजीवन अपने दैनन्दिन
संचालन के लिए अपने- अपने ग्रामदेवता के आर्शीवाद की संजीवनी लेता है। इनकी
बोलियों ने जौनसारी से कई प्रभाव ग्रहण किए हैं। इस तरह से पहाड़ी की कुल तीन
भाषाएं विकसित की जा सकती हैं। एक उस क्षेत्र की जहां ग्रामदेवता प्रथा नहीं है।
दूसरी उस क्षेत्र की जहां ग्रामदेवता प्रथा प्रचलन में है। तथा तीसरी किन्नौर – लाहौल की।
हिमाचल मित्र अंक दो |
हिमाचल
प्रदेश में पहाड़ी भाषा की मुहिम प्रार्थी जी ने शुरु करवायी थी। उन्होंने पहाड़ी
में साहित्यसृजन को न केवल प्रोत्साहित किया बल्कि उसे गति भी दी। फलत: ढेर-सा
पहाड़ी लेखन हुआ। प्रान्त के प्रत्येक जिले में भाषायी व सांस्कृतिक सर्वेक्षण
किया गया। जिसके आधार पर कुछ गम्भीर शोध-पत्रावलियां प्रकाशित हुई थीं। इन
पत्रावलियों में एक पहाड़ी भाषा के विकास के लिए अनेक महत्वपूर्ण तथ्य व अन्य
बौद्धिक सामग्री जनता के सामने आ सकी थी। इस कड़ी में हिमाचल कला भाषा संस्कृति
अकादमी ने एक बृहद् पहाड़ी-हिन्दी शब्दकोष का प्रकाशन किया था जिसमें बताया गया
था कि सर्वेक्षकों ने लगभग दस हजार ऐसे शब्द खोज निकाले हैं जो सभी जिलों में
समान रूप से प्रयुक्त होते हैं। तब एक उम्मीद बंधी थी कि एक पहाड़ी भाषा का बनना
तथा भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में उसका दर्ज होना असंदिग्ध है। परन्तु
बाद में राजनैतिक कुचेष्टाओं तथा नौकरशाही उदासीनता ने इस अभियान का स्वाहा कर
दिया। अब पहाड़ी भाषा की बात करने वालों पर राजनेता व नौकरशाह तो हंसते ही हैं
बल्कि कुछ स्वयंभू साहित्यकार उसकी ख्ल्लिी उड़ाने से भी परहेज नहीं करते। पूरे
हिमाचल प्रदेश की एक पहाड़ी भाषा के विकास व उसे संविधान की आठवीं अनुसूची में
दर्ज करवाने का अभियान हमारी पीढ़ी के इतिहास निर्माण की प्रक्रिया है। इस सांस्कृतिक
अभियान का यह हश्र दु:खदायी है।
मधुकर भारती
पहाड़ी अनुवाद :
कुशल कुमार
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