पत्रकार कनै कार्टूनिस्ट अरविंद कनै मीडिया मास्टर विकास राणा होरां मिली नै पहाड़ी संस्कृति दी साज सम्हाळ करा दे। इह्दे बारे च हुण तुसां दयारे पर भी पढ़ी सकदे। अरविंद होरां कुंजड़ी मल्हार दे बारे च दस्सा दे हन।
सांभ गीत-संगीत दी
मते साल पैह्लें
चम्बे दे राजयां अपणे स्तुतीगाण ताएँ लखनऊ ते अवधाल सद्दे कनै लगदे ग्रां मंगला च
बसाये। इना अवधालां कुंजड़ी-मल्हार दी रचना कीती। कुंजड़ी-मल्हार च सौण रुत्ता दे बारे च गीत हन। जिन्हा च जनानां दी बिछोह बेदण भी
सामल है। मतलब एह् भई नायिका बिछोह च कुछ इस तरीके नै कई भाव-भंगमाँ कनै अपणिया बेदणा जो कुंजड़ी-मल्हार दे गीतां
च प्रगट कर दी भई तिसदी झांकी मिंजरा दे मेले च अज भी चम्बे दे कलाकारां ते एह
सुणने कनै दिखणे जो मिली जांदी।
पैह्लें कलेले दे
वक्त (संझ कनै राती दे बिचला गोधुली काल) एह गीत गाये जांदे थे। पर अजकल इक्की पासें नौजुआन अपणे
लोक संगीत ते दूर हुंदे जा दे कनै दूए पासें मुफलिसिया दे हलातां च असां दे लोक कलाकारां ते जाह्लू मर्जी गाण गुवाई
लैंदे। असल च हर राग रागणिया सुणने कनै गाणे दा इक वक्त हुंदा है।
कुंजड़ी-मल्हार च हर तिसा
जनाना दी बेदण सामल है जिसा दा प्यारा (कंत या प्रेमी) या ता कुथी दूर परदेस नौकरी करना गिया या लामा च लड़ना गिया
या भेडां चारना गिया या कुसी भी बजह नै गीते दिया नायिका ते दूर है, ऐह देही जनाना संझके वक़्त जाह्लू सबनां दे कंत घरें औंदे
कनै इसा दा प्यारा दूर हुंदा ता इनां गीतां च सैह् जनाना अपणियां भावनां कनै बेदण
प्रगट करदी।
सांभ गीत-संगीत की
बहुत पहले चम्बा के राजाओं ने अपने स्तुतिगान के लिए लखनऊ से अवधाल बुलाये जिनको कि साथ लगते गावं मंगला में बसाया गया , इन अवधालों ने कुंजड़ी - मलहार की रचना की , कुंजड़ी - मलहार में सावन ऋतु से संबधित गीत हैं जिनमें कि नारी की विरह वेदना का समावेश है
बहुत पहले चम्बा के राजाओं ने अपने स्तुतिगान के लिए लखनऊ से अवधाल बुलाये जिनको कि साथ लगते गावं मंगला में बसाया गया , इन अवधालों ने कुंजड़ी - मलहार की रचना की , कुंजड़ी - मलहार में सावन ऋतु से संबधित गीत हैं जिनमें कि नारी की विरह वेदना का समावेश है
यानि की नायिका विरह में कुछ इस तरह से विभिन्न भाव भंगिमाओं के साथ अपनी वेदना को कुंजड़ी - मलहार के गीतों के माध्यम से प्रकट करती है जिसका मंचन आज भी चम्बा के कलाकारों के ज़ानिब मिंजर के मेले में देखने और सुनने को मिलता है
पहले कलेला के वक़्त (गोधूलि यानि शाम और रात के बीच का समय ) ये गीत गाये जाते रहे हैं लेकिन आज जब युवा वर्ग अपने लोक संगीत से विमुख हो रहा है तो ऐसे में मुफलिसी के दौर से गुजर रहे हमारे लोक कलाकारों से जब मर्जी परफॉर्म करवा लिया जाता है जबकि संगीत में हर राग रागिनी को सुनने और गाने का एक वक़्त होता है
लॉजिक साफ़ है कुंजड़ी - मलहार में हर उस नारी की विरह वेदना का समावेश है जिसका प्रियतम (पति या महबूब ) या तो कहीं दूर परदेस में नौकरी करने गया है या युद्ध में गया है भेड़ें चराने गया है या किसी भी बजह से गीत की नायिका से दूर है , ऐसी नारी जब शाम के वक़्त जब सबके पति घर आते हैं और उसका उससे दूर होता है तो ऐसे में इन गीतों के माध्यम से वो नारी अपने इमोशंस को एक्सप्रेस करती है
कुंजड़ी - मलहार च मते सारे गीत हुंदे
जिञा कि
"गनिहर गरजे
मेरा पिया परदेस "
(गनिहर-मेघ )
सुन्दरा बेदर्दिया
अक्खी दा ना तू हेरया
कन्ना दा सुणया हो
तू ताँ अधि राति मेरे सुपणे च आया
(हेरया - देखा )
शब्द हन
उड़ - उड़ कुँजड़िए , वर्षा दे धियाड़े ओ
मेरे रामा जींदेयां दे मेले हो
बे मना याणी मेरी जान , उड़ - उड़ कुँजड़िए
पर तेरे सुन्ने वो मडावां , रूपे दियां चूंजा हो
बे मना याणी मेरी जान , उड़ - उड़ कुँजड़िए
चिकनी बूंदा मेघा बरसे , पर मेरे सिज्जे हो
ओ मेरे रामा याणी मेरी जान , उड़ - उड़ कुँजड़िए
उच्चे पीपला पीहंगा पेइयां , रल-मिल सखियाँ झूटप गइयां हो
झूटे लांदीआं सेइयाँ हो , ओ मेरे रामा मना याणी मेरी जान ,
जींदे रेहले फिरि मिलिले , मुआ मिलदा ना कोई
बे मना याणी मेरी जान , उड़ - उड़ कुँजड़िए
कुंजड़ी चातके साही इक्क पंछी है
ए कुंजड़ी तू उड़
वर्षा के दिन आ गए हैं
मेरे प्रियतम को सन्देश दे , कि अब तो मिलने का समय आ गया
देख तू उन्हें अपने साथ लेकर आना , मैं तेरे पंख सोने से मड़वा दूँगी
चोंच चांदी से सजा दूँगी तू उड़ और मेरा काम करके आ
वर्षा की ऋतु है , मेरे पंख भीग जाएंगे , मैं कैसे उड़ूँगी ,
सन्देश देकर आती अन्यथा मैं जरूर जाती ,
ऊंचे पीपल पर झूले पड़े हैं , मिल जुल कर सहेलियां झूला झूलने गयी
परन्तु मुझे मेरे प्रीतम की याद , उदास बना देती है
कुंजड़ी उड़ और उड़ कर जा
ज़िन्दगी रही तो फिर मिलेंगे , फिर कई बरसातें आएँगी
ए कुंजड़ी तू उड़ कर जा , और मेरे प्रीतम को संदेसा दे कर आ
मलहार
मेरे लोभिया हो , आ घरे हो , मैं निक्की याणी हो
मैं निक्की याणी ,
जीउ कियां लाणा हो कंथा , मेरेया लोभिया हो , आ घरे
सेज रंगीली ना सेज रंगीली , मेरे जाया परदेस हो कंथा
मेरे लोभिया हो , आ घरे हो
पाई के बसीले ना पाई के बसीले , ते याणी जिंद ठगी हो कंथा
मेरे लोभिया हो , आ घरे हो
मेरे लोभी पति घर आ , मैं अस्वस्थ हूँ
मेरे प्रियतम मैं मन कैसे लगाऊँ
मेरे लोभी प्रियतम घर आओ
मैं चाव से सेज बिछाती हूँ , मेरे परदेसी कंत
मेरे लोभी प्रियतम घर आओ
तूने मुझसे प्रेम जता कर , मेरा कोमल जीवन ठगा है
सबसे दुखद पहलू हमारी परम्पराओं को सहजने के काम को लेकर ये रहा है हम लोग अपनी रिवायतों से इस कदर विमुख हो बैठे हैं कि स्थानीय स्तर पर हम लोगों को अपनी संस्कृति की जानकारी नहीं है।
( अवधाल यानी कि संगीतज्ञ वैसे अवधाल फ़ारसी का शब्द है लेकिन उस वक़्त फ़ारसी , उर्दू आदि भाषाओँ का पहाड़ी रियासतों में प्रभाव रहा है )
ReplyDeleteपहाड़ी भाषा च बड़ा छैल अनुवाद करी दित्ता कुशल होरां
सेठी होराँ मिंजो गलाया कि भाषा पहाड़ी ही रखणी अपर मैं हिंदिया च ही लिखी ने भेजी दित्ता
अग्गे ते ज़रूर जिस जगह दी गल-गप्प होंगी मैं कोसिश करगा की तिसा जगह दिया भासा विच ही लिखां बाहने ने मैं भी सिखी लैंगा किछ
बड़े पैहले चम्बे दे राजयां अपणे स्तुतिगाने ताईं लखनऊआ का अवधाल सद्दे थे जिणा जो चम्बे बखे मंगले ग्रां बसाया , इणा अवधालां ही कुंजड़ी - मलहार दी रचना कित्ती , कुंजड़ी - मलहारा अंदर सौण मीने गाये जाणे आले गीत होंदे , जिसका अंदर जणासा री बिछोह -वेदण मिलदी
गीते दी नायिका बिछोह का अंदर कुछ इय्याँ अपणे मने देयां ख्यालां जो कुंजड़ी - मलहार दे गीतां कन्ने प्रगट करदी जिसदी झांकी अब्बे चम्बे मिंजरा अंदर चाम्बियाली कलाकारां का दिखने -सुणने जो मिली जांदी
अरविंद जी तुहाड़ा बड़ा बड़ा धन्नवाद। जे मल्हारे दा संगीत मिल्ले ता सैह् भी दयारे दे पाठकां स्रोतयां जो सुणा।
Deleteजी ज़रूर
Deleteकैणी भला
अज के इस मुश्कल वक्त च अरविंद जी सांभ दे जरिये अपणे हिमाचल दी संस्कृति जो सहेजणे दा तुसां बड़ा बडा कम्म करा दे। बोहत धन्नवाद। इस बारे च मेरा मनणा है कि जे असां अपणियां बोलीयां बचाई लेंगे ता अगलीयां पीढ़ीयां ताएं बाकी भी मता किछ छडी जाणा है।
ReplyDeleteइसा कोसिसा दी जितनी भी तरीफ कित्ती जाए घट है।
ReplyDeleteआलेख भी बधिया कने अनुवाद भी बाँका।