पहाड़ी भाषा दी नौई चेतना .

Saturday, August 10, 2013

गुरुआं जो अर्पण



एह कोई 1976-78 दी गल होणी है। तिन्‍हां दिनां च प्‍हाड़िया च लिखणे दा बडा़ जोर था। मिंजो हाली पुंगर ई फुट्टा दे थे। धर्मसाला कालजे च पीयूष गुलेरी कनै गौतम व्‍यथित होरां थे। मैं बीए च पढ़ा दा था। दिक्‍खो दिखिया मैं भी तुक जोड़णा सुरु करी ते। गुरुआं कवि सम्‍मेलना च बी मौके दुआई ते। मैं बी अप्‍पू जो कवि समझणा लगी पया। तिन्‍हां दिनां दियां किछ कुंडळियां मेरियां पुराणियां डायरियां च लुक्कियां बैठियां थियां। मतेयां सालां परंत हिमाचल मित्र छापणा लगे तां एह कुसल होरां जो पढ़ाइयां। हुण होर कोई दूं त्रींह् सालां परंत तिन्‍हां टाइप करि तियां। तां मैं बी ब्‍लागे पर लाणे दी हिम्‍मत करी लई। मैं सोच्‍या इन्‍हां जो प्‍हाडी़ कवता दे अपणे गुरुआं जो अर्पित करी दिंदा है। इन्‍हां च मेरा कुछ बी हई नीं। जो किछ उन्‍हां दिनां दिक्‍खया, सैह् जोडी़ तेया। असां बोलदे, दयारे पर पहाडी़ भासा दी नौंई चेतना चाही दी। पर इन्‍हां कवत्‍तां च चेतना बी है कि नीं, पता नीं। दिक्‍खा भला-  
 
चंदें चंदर पळेस
स्‍याले   दियां   रातीं,   चंदें  चंदर पळेस   पेया,
तां  भी  मड़ा  चुपचाप  चानणिया बंडी जांदा।
बदल़े   दा   फूंह्डू,   पार   धारा   खड़ोई  गज्‍जै,
दिक्‍खा  हऊं केडा बड्डा  धारा  मंझ जाना पांदा।
गजदा  है   जेह्ड़ा,   कदि  भी   नी  बह्रदा  सै:,
गासैं  गास,  हौआ  सौगी  दूर कुती जाई पौंदा।  
बोलदा   ‘अनूप’   करै   गुपचुप   कम्‍म   जेह्ड़ा,
सब्‍बना  ते  बड्डा  कनै सैह्ओ  मनै  रमी  जांदा।
 
स्‍योनै छंड
दितियो  है  स्‍योनै  छंड  कणकां  दे  खेतरां च,
कुतखा  ते  आई  सोना  सरहों  पर  पई  गया।
लसलस  चांदिया दे ढेर प्‍हाड़,  तिन्‍हां जो  पर,
खड्डां   बिचैं  बगणे  दा  ढब  कियां   पई  गया।
सैले  सैले   दिलां  देयां   मखमली   थानां  परैं,
बत्‍ता  साह्ई  पीड़  कुण चीरी करि कड्ढी गया।
धरती   दे   हेठ  ठंडे   पाणिए    कुडाई    करि,
मेयो  देया  दयावान  अप्‍पू  कुती  जाई   रेह्या।
 
ग्‍बाल बाल
टल्‍लू  मैली नै भरोयो,  अप्‍पू  धूड़ी च मंडोयो,
भोळे भाळे,  चितैं साफ, गौरीनाथ जियां हन।
भांति  भांति  रासां  पांदे,   कनै  डंगरे  चरांदे,
सचमुच  गुआळ  बाळ  नंद  लाल  जिञा हन।
बोलदा  ‘अनूप’   बाल - बालक  पिंडे  दे   मेरे,
छाह्ई कनै रोटी सुक्‍की खाई करि जिया दे न।
मेरे  पिंडे  दे  गुआळू,   जियां   दुद्धे  दे  ध्‍याळू,
बाल-धन, इन्‍हां दियां आसी असां जिया दे न।

कांगड़े दी जाई
भेठी  घाए   बड्ढी   बड्ढी,     कीती  मसैं  इक  गड्डी,
घरैं  आई छोड़  छड्डी,   खुंडैं म्‍हैस  बझी  लग्‍गा  दी।
कनै  तिसा  दा  ही  माही,  मंझ  फौजा  है सपाही,
छिड़ी  पाके  नै  लड़ाई,  दिलैं  जाई छुरी बग्‍गा दी।
ब्‍हादुर  जोरू  लिखै,  चिट्ठी,  मत  दसदा  तू पिट्ठी,
औयां  रणे  जो तू जित्‍ती, छड चिंता तू सुहागा दी।
मेरी   कांगड़े   दी  माए,   कैसे   ब्‍हादुर   तैं  जाए,
दिल मेरा गाई जाऐ, जियां ल्‍वाला जोत जग्‍गा दी।
 
 
दियाळी
चुग्‍गी  फुल्‍लां  हार  बणाए  गोह्आ लिप्‍पी  ऐह्पण पाए,
औणा लच्‍छमिएं अज्‍ज, बाळी दिए मने पतियार्इ जांदी।
ऐंकळू   बणाई   लै,   बण्‍डी लै   बण्‍डाई   लै,   टल्‍हैं-टल्‍ह,
पटाकेयां     दी   गूंज,      मनै    आई   डर   पाई   जांदी।
बोलदा      ‘अनूप’     दियाळिया    दा    धियाड़ा    अज,
हस्‍सी   खेली  नच्‍ची   टप्‍पी   आई  जाई नै मनाई जांदी।
आए      नैणा    हत्‍थरू,      डुब्‍बी    डुब्‍बी    जांदा    मन,
दिलैं  उट्ठै  चीक   ड़ुग्‍घी,   जाल्‍हु  याद  तेरी  आई  जांदी।
 
छळाक 
आसां  साह्ई  बत्‍तां  चढ़ी जांदी, बण सौगी सौगी
गाई  दिंदा,  सुणी करि किल्लियां झंझोटियां जो।
बगी  जांदे   खड्डां    नाळू,    हर-हर    गाई-गाई,
बोलां  नै  झुठेरी  दिंदे,  ब्रह्मे  दियां  पोथियां जो।
भुली  किञा जां,   अम्‍मा  कुच्‍छड़े  च  बह्ई करि,
छाही  दा  कटोरू  कनै  नौणिए  नै  रोटियां  जो।
ढुकदी  जे  रात  तां    छळाक    मनै  होई  जांदी,
लूपी हिक्का बळी पौंदी, दिखी इन्‍हां कोठियां जो।

बदळां दा चादरू
बदळां    दा    चादरू,      सैला    सैला    घागरू,
बोली  जांदे  जातरू,  देखी  इसा  धौलाधारा  जो।
लंबी    लंबी    धारां,       बिच    मंदर     हजारां,
उच्‍ची न्‍हीठी बत्‍त, टप्‍पी चल्‍ले गद्दी लई ठाह्रां जो।
जाए  असां,  अम्‍मा  म्‍हारी,  बैठियो पळाथी लाई,
बोलै  ‘अनूप’   गोदा   बैठी   दिखदे   नजारा   वो।
हिंऊं  जियां   बाळ   सेते,   पंछियां  दे  बोल  मिट्ठे,
गूंजी  गूंजी  चेती  दिंदे,    दादिया  दे  प्‍यारा  जो।

म्‍हाचले दा लाल
प्‍हाड़ां  जेडे  चरत  इन्‍हां दे,  उच्‍चे  उच्‍चे,  चिट्टे
चिट्टे,  बर्फा   साह्ई   छहोइ   गयो   गासैं   जाई।
म्हाचले  दा  लाल    ‘लालचंद’    सोह्णा    लग्‍गै,
जियां स्‍यालैं चंद, बैठ्या है म्‍हारै गब्‍भें अज आई।
दाढे़     दिक्‍खी       लग्‍गै,      जणि     बैठ्या    है
रिसी   मुनी, कोई   परमेसरै    नै    ध्‍यान   लाई।
म्‍हारे  म्‍हाचले   दी   शान,  ज्ञान-खान कनै जान,
बोलै ‘अनूप’ होर मिलना नी म्‍हाणू इन्‍हां साह्ई।

7 comments:

  1. इन्ना कवितां च लग लग रंगे दियां बांकिया तस्वीरां दे दरसन होये..लिखते रैया.

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    1. मोहिंदर जी धन्‍नवाद " अनूप

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  3. अनूप जी ऐह कवतां इक तस्बीर बणादीयां। भासा कनै भाव दे मापे पर कुत्थी भी ऐह नी लग्गा की कोई कवता सिखा दा। असां जिसा नौंई चेतना दी गल करदे सैह शायद सुप्पनयां दे टुटणे ने या फिरी निंदरा ते जागणे दे बाद ही जगदी। इसा ताएं छंदा कनै गंडा दे मत्ते सारे बन्हण तोड़ना पोंदे। जुवा अनूप ने मिलाणे ताएं धन्यवाद।
    जेड़ा अज भी चुपचाप चानणिया बंडी जांदा। बत्ता साह्ई पीड़ चीरी करि कड्ढी जांदा।
    सच म्हाचले दे लाल ताएं अज कुछ जादा ही दिलैं उट्ठदी चीक ड़ुग्घी।

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    1. कुशल जी, हौसलाअफजाई ताईं सुकरिया। मिंजो वी लगदा तिनहां दिनां च भासा दे जादा सबद पता थे। इतणियां बरसाती बह्री गइयां, मते सबद रुढि़ गह्यो हन। फिरी मैं इत्‍थी महाराष्‍ट्र आळे पासे जो निकळी आया तां साथ छुटदा ई गया।
      तुसां दी बन्‍हणां तोड़णे आळी गल वी गौर करने लायक है। इस बारे च भाई द्विजेंद्र होरां दे वचार जानणा वी जरूरी है। इञा मैं जिनहां दिनां च बेछंद कवतां वी लिखियां थियां। तुसां हिम्‍मत बधाई ती, हुण तदेही कवता भी रखगा इक दिन।
      सुकरिया।

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    2. दूए पैरे दी दूदइया लैणा च 'जिनहा' जो 'तिन्‍हां' पढा़

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    3. जिन्दड़ीया दे बोल तैं जे चित्तरे:यो रंगां घोल
      हिक्का ते र्हा लाई जि:ञा कोई भा:ख लान्दा.
      गाणे दी मैं कोस्त कीती बी:ह्यां साल्लां परन्त भी
      हत्थरूंआ दा ब:ह्न्न टुट्टा गळा भर्डाई जान्दा.
      हुण भी सै: खड्ड-नाळू पर लुभदे नी गाईं गुआळू,
      प्लस्टिके दे थैलूआं च दुद्ध-छा:- नौणी आऊंदा.
      हुण भी छळाक तींञ्यां, ढिड्डे च ग़्ळाख़ जीञ्यां,
      हुण भी सै: हिक्का लूप्पी उठदी तां मन रोन्दा.

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