झुकेयां शब्दां नै कवता किञा लिखी जाऐ
आत्मकथ्य लिखना सौखा कम नीं है। सै: फैल्या बड़ा हुंदा। तिसयो समेटणे ताईं बड़ा बगत चाहिदा; याद कनै ताकत भी। आत्मकथ्य दे दायरे जो छोटा करी लइये ता शायद कम सौखा होई जाऐ। एह् आत्मकथ्य चुणियां कवतां दिया कताबा ताईं है, इस करी नै इसजो कवता तक ही रखिये ता ठीक रैह्णा। पर एह् कम भी सौखा नीं है।
कवता लिखणे नै मेरा रिश्ता अजीब जेह्या है। कवता लिखणे दी इच्छा ता बड़ी हुंदी पर लखोंदी बड़ी घट। लगदा भई लिखणा जितणा टळी जाऐ, उतणा ही खरा। कनो-कनिया एह् भी भई जे किछ अंदर-बाह्र दिखया-परखेया है, जाणया-निरखया है, समझया-जाणया है, तिसजो व्यक्त करने दी ताह्ंग मने च भी रैह्ंदी है। सरोसरिया दिख्या जाऐ ता एह् दो खिलाफ गल्लां या दो ध्रुव लगदे। पर जरा डुग्घे जाई नै सोच्या जाऐ ता ऐसी गल है नीं। इसा मन:स्थितिया जो विरोधी गल्लां च तालमेल बोल्या जाऐ ता ठीक होणा। शायद इसी तरीके नै असली हालत समझा औऐ। विरोधी गल्लां च एह् तालमेल भी ऐसा है भई एह् दोह्यो किनारे इक्की दूए जो पूरा करने आळे परतीत हुंदे – लिखणे दी इच्छा है पर मन लिखणे ते कतरांदा रैंह्दा।
मेरे ख्याले च एह् कोई नौखी गल नीं है। शायद हर कुसी नै एह् देह्या ही हुंदा है। कई बरी लिखणे ते बचणे दे गीत ज्यादा गाए जांदे, पर इस जो सधारण स्थिति ही मनणा चाहिदा है।
असली गल एह् है भई अप्पी जो व्यक्त करने दी इच्छा ठाठां मारदी रैंह्दी। सही पल पकड़ा च आई जाऐ ता लखोई जांदा। तिस पले दिया न्ह्याळपा च बड़ा बगत निकळी जांदा। एह् इक्की किस्मा दी अंदरूनी लड़ाई है। कनै फिरी जाह्लू कोई रचना या कवता बणी जांदी है तां सैह् सबनां दी होई जांदी।
एह्थी फिरी दो सिरे साम्ह्णै आई जांदे। लिखणा पूरे तरीके नै निजी कम है। तकरीबन गुपचुप। या बोला भई गुप्त। लिखणे परंत कुसी रसाले च छपणे या कुसी कताबा च शामिल होणे पर या कुसी दूए माध्यम पर प्रसाारित होणे पर रचना पाठके व्ह्ल पूजी जांदी। एह् इक्की किस्मा दी बाहरी कारगुजारी है। एह् भी दो सिरे ही हन। इक बौह्त ज्यादा निजी, दूआ खुल्ला, सार्वजनिक, व्यावहारिक। (पाठके दा अपणा एकांत हुंदा, पर सैह् इक अलग प्रक्रिया दा हिस्सा है।) एह् दोआ सिरे अप्पू चियें विरोशी लगी सकदे पर हन नीं।
लिखणे दे छोट-छोटे वक्फेयां जो छडी देया, जेह्ड़े बड़े निजी पल-छिन हुंदे, तां बाकी जीवन बड़ा सधारण, दुनियावी किस्मा दा रैंह्दा है। मेरा जीवन मध्यवर्गीय शैह्री बाबू किस्मा दा रेह्या है। मैं ज्यादातर तिसा ही भूमिका च रैह्ंदा। नौकरिया दी, शैह्री जीवन च संतुलन बणाई रखणे दी, जेह्ड़े जीवन मुल्ल कमायो तिन्हां जो अमल च ल्यौणे दी जद्दोजैह्द लगातार चली रैंह्दी है। मेरिया जिंदगिया दा इक सिरा इक छोटे प्हाड़ी शैह्रे नै भी जुड़ेया है। जिदिह्या वजह नै महानगरे कनै कस्बे दे जीणे दिया सोचा बिच रगड़-घस्स चली रैंह्दी है। अपणे टबरे च रैंह्दयां होयां जितणी ऊर्जा खर्च करदे, तिसते ज्यादा असां जो मिलदी रैंह्दी है। अनुभवां दा माल-मत्ता भी कट्ठा हुंदा रैंह्दा। इस सधारण रोज के जीणे च कइयां किस्मां दे अंतरविरोधां दा भी पता लगदा रैंह्दा। तिन्हां च ते कुछ अपणिया होंदा नै फसी भी रैंह्दे।
इस सब किछ दे सौगी कवता लिखणे दा सुपना भी अहां दिखदे रैंह्दे। जेह्ड़े जीवन अनुभव मिलदे सैह्यी रचना करने ताईं कच्चा माल बणदे। इस तरीके नै इक होर जक्स्टापोजीशन बणदी। सैह् एह् भई बेहद सधारण जिंदगिया च होणे आळे अनुभवां ते ही रचना संसार बणाणे दी कोशिश हुंदी, अपर अनुभव घट भी हुंदे जांदे कनै स्टीरियोटाइप भी होणा लगी पौंदे। हमेशा एह् शक पयी रैंह्दा भई खबरै लिखणे च अनूठापन है भी कि नीं। एह् कोशिश ता हमेशा रैंह्दी भई लेखन जेनुअन यानी सच्चा होऐ, पर कला दिया कसौटिया पर सैह् कितणा खरा है, एह् शक मने च रैंह्दा। जेह्ड़ा लिखेया गया सैह् पाठक दे अनुभव दा हिस्सा बणदा, कितणा बणदा, अपणे व्ह्ल खिंजदा भी हे या नीं, कुछ पता नीं लगदा। सैह् ता पारले पासे दी दुनिया है।
कोरोना काल कनै उसते बाद एक अजीब ठंडापन, उदासी कनै उदासीनता आई है। राजनीति च भी उलटफेर होया है। मतेयां सालां ते पळोंदा-पसोंदा दक्षिणमुखी झुकाव समाज दिया उपरलिया सतह पर उग्र होई नै तरना लगया है, सिर्फ अपणे मुल्के च ही नीं, कइयां मुल्कां च। इस बिच प्रगतिशील धारा अपणेयां अंतर्विरोधां पछाणी नीं सकी कनै लगातार अपणिया नजरां च भी संदेह दी शकार हुंदी गई। रूस युक्रेन युद्ध असां पचाई ही लेया है। फिलीस्तीन इस्राइल दुश्मनी भी असां जो संवेदनहीन ही बणा दी है। जो चल्ला दा है, अहां तिसजो चुपचाप मनदे जांदे। मत्थैं इक त्योरी नीं। चीजां इतणियां गड्डमड्ड हन, इतणियां तहदार, इतणियां उघड़ियां, इतणियां छुपियां, भई तिन्हां दा सिरा ही हत्थैं नीं औंदा। ‘उत्तर सत्य’ दे समे च समें समझा ही नीं औआ दा। भ्रम चौंह् पासैं है। जित्थू भ्रम होऐ, ओत्थू मतिभ्रम दा शक हुदा ही रैंह्दा है।
कुछ भी लिखणा लगदा तां लगदा भई मसले दिया तळिया तक नीं पूजी होआ दा। कुसी शब्दे जो पकड़ी करी तिह्दे माह्ने खोलने दी कोशिश करदा तां शब्दे दियां अर्थच्छटां उलझाई लैंदियां। शब्द देयां अभिप्रायां च इतिहास दी पंड बझियो रैंह्दी है। शब्द अजा़द नीं होई सका दे। पंडा दा भार जिस पासें जादा हुंदा, शब्द तिस पासे दा ही अर्थ देणा लगी पौंदे। शब्दां जो धोई-पछीटी करी निर्मल निष्पक्ष किञा कीता जाऐ? झुकेयां लफ्ज़ां नै कवता किञा लिखी जाऐ। जे लखोई भी गई तां सैह् कवता अपणे समे देयां पळेसां जो किञा दिखगी, खोलणे दी गल ता छडी देया।
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अनूप सेठी कवि, अनुवादक। जगत में मेला, चौबारे पर एकालाप, चयनित कविताएं (कविता संग्रह), चोमस्की : सत्ता के सामने (अनुवाद) |
झुके हुए शब्दों से कविता कैसे लिखी जाए
आत्मकथ्य लिखना आसान काम नहीं है। उसके विस्तार को समेटना हो तो बहुत समय चाहिए; स्मृति और ऊर्जा भी। आत्मकथ्य के विषयक्षेत्र को सीमित कर लिया जाए तो शायद आसानी हो जाए। चूंकि यह आत्मकथ्य चयनित कविताओं के संकलन के संदर्भ में है, इसलिए इसे कविता तक सीमित रखना ठीक रहेगा। हालांकि यह काम भी आसान नहीं है।
कविता लेखन के साथ मेरा रिश्ता अजीब सा है। कविता लिखने की इच्छा बहुत होती है, पर कविता लिखी बहुत कम जाती है। लगता है लिखना जितना टल जाए उतना अच्छा। साथ ही जो भीतर-बाहर देखा-परखा है, जाना-निरखा है, समझा-जाना है, उसे अभिव्यक्त करने की आकाँक्षा भी बनी रहती है। पहली नजर में यह विरुद्धों की या ध्रुवाँतों की स्थिति लगती है। जरा गहराई से सोचा जाए तो ऐसा है नहीं। उसे विरुद्धों में सांमजस्य कहा जाए तो शायद ठीक रहे? शायद इसी तरह वस्तुस्थिति समझ में आए। यह विरुद्धों में सांमजस्य भी ऐसा है कि ये दोनों छोर परस्पर अनुपूरक ही प्रतीत होते हैं- लिखने की इच्छा है, पर मन लिखने से कतराता रहता है।
मेरे ख्याल से यह अनोखी बात नहीं है। शायद हर किसी के साथ ऐसा होता है। बाजदफा लिखने से बचने को बढ़ा-चढ़ा कर भी पेश किया जाता है। पर इसे सामान्य स्थिति ही मानना चाहिए।
असल बात यह है कि खुद को अभिव्यक्त करने की इच्छा ठाठें मारती रहती है। सही क्षण जब पकड़ में आ जाए तो लिखना संभव हो पाता है। उस क्षण के इंतजार में बहुत समय बीत जाता है। यह एक तरह का आंतरिक संघर्ष है। जब रचना या कविता संभव हो जाती है तो वह सार्वजनिक हो जाती है। सब की हो जाती है।
यहां भी दो छोर हैं। लिखना नितांत निजी कार्य है। लगभग गुपचुप। या कहें गोपनीय। लिखे जाने के बाद किसी पत्रिका में प्रकाशित होने पर या किसी पुस्तक में संकलित होने पर या किसी अन्य माध्यम में प्रसारित होने पर रचना पाठक के पास पहुंच जाती है। यह एक तरह की बाहरी गतिविधि है। ये भी दो छोर ही हैं। एक बेहद निजी, दूसरा खुला, सार्वजनिक, व्यावहारिक। (पाठक का अपना एकांत होगा, पर वह एक अलग प्रक्रिया का हिस्सा है।) ये दोनों छोर परस्पर विरोधी लग सकते हैं पर हैं नहीं।
लिखने के छोटे छोटे अंतरालों को छोड़ दें, जो बेहद निजी क्षण होते हैं, तो बाकी जीवन बेहद साधारण, दुनियावी किस्म का रहता है। मेरा जीवन मध्यवर्गीय शहरी बाबू किस्म का रहा है। अधिकांश समय उसी भूमिका में रहना होता है। नौकरी की, शहरी जीवन में संतुलन बनाए रखने की, अर्जित जीवन मूल्यों को व्यवहार में लाने की जद्दोजहद निरंतर चलती रहती है। मेरे जीवन का एक छोर छोटे पहाड़ी शहर से भी जुड़ा रहा है, इसलिए महानगरीय जीवन और कस्बाई जीवन की सोच के बीच घर्षण भी चला रहता है। आप अपने परिवार में रहते हुए जितनी ऊर्जा खर्च करते हैं उससे ज्यादा पाते रहते हैं। अनुभव संपदा भी जुटती रहती है। इस साधारण दैनंदिन जीवन में कई तरह के अंतर्विरोंधों से भी आप दो चार होते हैं। कुछ अंतर्विरोधों का पता चल जाता है, कुछ अनजाने में व्यक्तित्व में फंसे रहते हैं।
इसी सब के साथ कविता लिखने का स्वप्न आप दिन रात देखते रहते हैं। जो जीवन अनुभव मिलते हैं, वही रचनात्मकता का कच्चा माल बनते हैं। इस तरह एक और जक्स्टापोजीशन बनती है कि बेहद साधारण जीवन में से, जिसमें अनुभव भी सीमित और स्टीरियोटाइप होने लगते हैं, उन्हीं में से अपना रचना संसार खड़ा करने की कोशिश रहती है। यह संदेह हमेशा बना रहता है कि लेखन में पता नहीं अनूठापन आ भी रहा है या नहीं। वह जेनुइन हो, यह कोशिश तो हमेशा रहती है, पर कला के निकष पर वह कितना खरा है, इसमें संदेह बना रहता है। वह लिखा हुआ पाठक के अनुभव का हिस्सा बन पाता है, कितना बन पाता है, अपनी ओर खींचता भी है या नहीं, कुछ पता नहीं चलता। वह तो उस पार की दुनिया है।
कोरोना काल और उसके बाद एक अजीब ठंडापन, उदासी, उदासीनता आई है। राजनीति में भी उलटफेर हुए हैं। लंबे समय से पल-बढ़ रहा दक्षिणमुखी झुकाव समाज की ऊपरी सतह पर उग्रता से तैरने लगा है, सिर्फ अपने यहाँ ही नहीं कई देशों में। इस दौरान प्रगतिशील धारा अपने अंतर्विरोधों को पहचान नहीं पाई और लगातार अपनी नजर में भी संदिग्ध होती चली गई। रूस युक्रेन युद्ध को हमने पचा ही लिया है। फिलीस्तीन इस्राइल दुश्मनी भी हमें संवेदनहीन ही बना रही है। जो चल रहा है, हम उसे चुपचाप स्वीकार करते जाते हैं। माथे पर शिकन तक नहीं। चीजें इतनी गड्डमड्ड हैं, इतनी परतदार, इतनी उघड़ी हुई, इतनी छुपी हुई, कि उनका सिरा ही पकड़ में नही आता। 'उत्तर सत्य' के समय में समय समझ में ही नहीं जा रहा है। भ्रम चहुं ओर है। भ्रम में मतिभ्रम की शंका होती रहती है।
कुछ भी लिखने लगता हूँ तो लगता है, मसले की तह तक पहुंच नहीं पा रहा हूं। किसी शब्द को पकड़ कर अर्थ को खोलने की
कोशिश करता हूँ तो शब्द की अर्थच्छटाएं उलझा लेती हैं। शब्दों के अभिप्रायों में
इतिहास की गठड़ी बँधी रहती है। शब्द स्वतंत्र नहीं हो पाते। गठड़ी का झुकाव जिस तरफ
होता है,
शब्द भी उसी तरफ के अर्थ देने लगता है। शब्दों को धो-पछीट
कर निर्मल निष्पक्ष कैसे किया जाए? झुके हुए शब्दों से कविता कैसे लिखी जाए? लिखी भी गई तो वह कविता अपने समय की गुंझलकों को कैसे निरखेगी, खोलने की बात तो छोड़ ही दीजिए।
(चित्र: वासुदेव गाएतोंडे, इंटरनेट से साभार)