पहाड़ी भाषा दी नौई चेतना .

Thursday, July 25, 2024

मुंबई डायरी

अपणिया जगह छड्डी लोक मुंबई पूजे। न अपणे ग्रां भुल्ले, न शहर छुट्या। जिंदगी पचांह् जो भी खिंजदी  रैंह्दी कनै गांह् जो भी बदधी रैंह्दी। पता नीं एह् रस्साकस्सी है या डायरी। कवि अनुवादक कुशल कुमार दी मुंबई डायरी पढ़ा पहाड़ी कनै हिंदी च सौगी सौगी। पेंटिंग : सुधीर पटवर्धन    


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काळयां पत्‍थरां दा छलोया पहाड़

जिह्यां इक्‍की घरे च कई माह्णू रैंह्दे, तिह्यां ही इक्‍की माह्णूए च कई माह्णू, इक्‍की घरे च कई घर, इक्‍की ग्रांए च कई ग्रां कनैं इक्‍की शैह्रे च कई शैह्र होंदे। मुंबई, दिल्‍ली या कुसी भी शैह्रे दे नाएं ते असां दे मने च जेह्ड़ी तस्‍वीर बणदी, तिसा तस्‍वीरा च तिस शैह्रे च रैह्णे वाळी जादातर अबादी शामल नीं होंदी। असां साही ज्‍यादातर लोग तिसा दा हिस्‍सा नीं होंदे। सैह् शैह्रां दिया पचाळिया कुतकी नेह्रियां कूंणा च तिसा तस्‍वीरा ते हटी नै इक बड़ी लग कनैं औक्‍खी जिंदगी जीणे ते ज्‍यादा घसीटा दे होंदे। अंतर ग्रां च बी होंदे पर जीणे दियां स्थितियां च इतणा अंतर नीं होंदा। उपरे ते भाई चारा, समाजे दा दवाब कनैं जड़ां इक होणे दे कारण माड़ी देह्ई सहानुभूति कनैं कठेवा होंदा। शैह्रां च भी एह् जड़ां खास करी नैं पैह्लिया पीढ़िया दे बड़े कम्‍में ओंदियां। एह् पीढ़ी जेह्ड़ी जड़ां दे दूर पराईया जमीना च रोजी-रोटी तोपणा आईयो होंदी। 

जेह्ड़े नेवी, मिलटरी, सरकारी या दूईंया नौकरियां पर लगी नैं बाह्र जांदे, तिन्‍हां जो इन्‍हां जड़ां दी इतणी जरूरत कनैं किह्लपण नीं होंदा। तिन्‍हां ब्‍हाल नौकरिया दे फंग होंदे कनैं जड़ां ब्‍हाल हटणे दे मौके कने दस्‍तूर बी होंदा। सैह् बाह्र जाई नैं भी ग्रां ते दूर नीं होंदे।

दो दिन पैह्लें ही इक मिल्ला। सैह् हिमाचल जाई ने आया था। तिसदा सुआल था – सुअरगे साही जमीना  छडी तुसां ऐत्‍थू कजो फसयो। तिस जो ता जवाब देई ता पर एह् सुआल मेरे होश सम्‍हालने ते बाद ही मेरे पिछें पिया गया था। 

मैं सोचदा एत्‍थू मुंबई च देह्या क्‍या था? असां दे बुजुर्गां 1800 सौ मील ते पैह्लें साह् ही नीं लिया। ग्रां च देह्ये  क्‍या दुख तकलीफ थे। जिस ताईं सैह् तिन्‍नां-तिन्‍नां दिनां दी इक बड़ी ही कठण मसाफरी करी नै बंबई पूजदे थे। समाने दा बौझा चुकी मीलां पैदल चलणे ते बाद ढिळकदियां बसां मिलदियां थिह्यां। लकड़ें देह्यां बैंचा दियां सीटां वाळियां खड़-खड़ करी हिलकदियां रेलां। खिड़कियां ते होआ सौगी क्‍योलयां दा धूं जादा ओंदा था। जाह्लू रेला ते उतरदा था माह्णू ता कपड़यां समेत मूंह भी काळा होई गिया होंदा था। 

एूत्‍थू मुंबई च बी आई नैं क्‍या मिलदा था। गैरजां च चटाईयां दे बिस्‍तरे,  टेक्सियां धोणे दी मजूरिया कनैं डरैबर बणने दा सुपना। तैह्ड़ी गडियां घट होंदियां थियां। गडियां कनैं डरैबरां दा भी रुतबा भारी होंदा था। एही इक गल थी जिसा ताईं असां दे गबरू कताबां बेची डरैबर बणना मुंबई दौड़ी ओंदे थे। तिस जमाने च ठीक-ठाक पढ़यां दी दिल्लिया या हिमाचल च नौकरिया दी जुगत बणी जांदी थी। घट पढ़यां दे हिस्‍से फौजा ते लावा हिमाचल दे  नैड़े-तैड़े जेह्ड़े कम ओंदे थे, तिन्‍हां दिया तुलना च मुंबई आई डरैबर बणना फायदे दा सौदा था। एह् अंदाजा इसा गला ते लगाया जाई सकदा कि तैह्ड़ी मुंबई दे टैक्‍सी ड्राइबर इंडियन आईल साही पीएसयू कनैं सरकारी नौकरियां दी तुलना च अपणी टैक्‍सी चलाणा पसंद करदे थे। 

एह् 1980 तिकर चलया। उसते बाद पटरोल अंबर छूणा लगी पिया। उपनगरां च ऑटो-रिक्‍सा आई गिया। इक दौर देह्या बी आया जे सीएनजी नी ओंदी ता हिमाचली टैक्सियां वाळे टैक्सियां कनैं मुंबई जो आखरी जय महाराष्‍ट्र करने दिया हालता च पूजी चुक्‍यो थे। जे‍ह्ड़ा हुण करोना ते बाद हिमाचलियां दा मुंबई नै टैक्‍सी व्‍यवसाय वाळा संबंध लगभग खत्‍म होई गिया। इस तैह्ड़ी ही खत्‍म होई जाणा था।        

एह् बड़ी अजीब गल है। हिमाचल च मेरे घरे ते धोलाधार सुझदी थी। ऐत्‍थू मुंबई च काळयां पत्‍थरां दा छलोया पहाड़। इस जो होर छिलणे ताईं रोज 1 बजे कनैं 5 बजे सुरंगा लगदियां थियां। प्‍हाड़े ते पत्‍थर बह्रदे थे। इन्‍हां पत्‍थरां जो पीह्णे ताईं क्रेशर लगयो थे। भ्‍यागा ते लई ने संझा तिकर खटारा ट्रक ढोह्-ढुहाई करदे रैंह्दे थे। इक्‍की पास्‍सें दिन भर मजदूर-मजदूरनियां तसलयां भरी-भरी पत्‍थरां क्रेशरां च पादें कनैं दुअे पास्‍सें तयार रेता-गिट्टियां ने ट्रकां भरना लगी रैंह्दे थे। सारा दिन होआ च धूड़ा दा राज होंदा था। मेरी मा चौबी पैह्र इसा धूड़ा पूंह्जणा लगी रैंह्दी थी। संझा जाई क्रेशर बंद होंदा था ता चैन पोंदी थी।

क्रेशरां दे बक्‍खें इक दस्सां खोळियां दी चाल थी। तिसा चाली च कूणे वाला कमरा मेरा घर था। क्रेशरां कनैं मेरे घरे दे बिच इक पतळी देह्ई कच्‍ची सड़क थी। ऐत्‍थू म‍राठिया च कमरे जो खोळी बोलदे कनैं इकी सैधी ने बणया कमरयां दी लेणी जो चाल बोलदे। मुंबई च चालीं च रैह्णे-जीणे दी इक नूठी संस्‍कृति थी। मराठी च इस पर मता सारा साहित्‍य लखोया। मराठी दे हास्‍य व्‍यंग लेखक पु. ला. देशपांडे दा इक बड़ा परसिध व्‍यंग कथा संग्रह है बटाटया ची चाळ। तिस पर इस नाएं दा इक बड़ा मजेदार नाटक मुंबई च अज भी मंचित होंदा रैंह्दा।    

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काले पत्‍थरों का छिला हुआ पहाड़

 जैसे एक घर में कई इंसान रहते हैं, उसी तरह एक इंसान में कई इंसान,  एक घर में कई घर, एक गांव में कई गांव और एक शहर में कई शहर होते हैं। मुंबई, दिल्‍ली या किसी भी शहर के नाम से हमारे मन में जो तस्‍वीर बनती है, उस शहर में रहने वाली अधिकांश आबादी उस तस्‍वीर में शामिल नहीं होती है। हमारी तरह ज्‍यादातर लोग उसका हिस्‍सा नहीं होते हैं। वे शहर के पिछवाड़े किसी अंधेरे कौने में उस तस्‍वीर से हट कर एक बड़ी अलग और कठिन जिंदगी जीने से ज्‍यादा घसीट रहे होते हैं। गांवों में भी विषमताएं होती है परंतु जीने की स्थितियों में इतना अंतर नहीं होता है। ऊपर से समाज का दवाब,  भाईचारा और जड़ों के एक होने के कारण थोड़ी सी सहानुभूति और एकजुटता होती है। शहरों में भी यह जड़ें खास कर  पहली  पीढ़ी के बहुत काम आती हैं। जो जड़ों से दूर पराई जमीन में रोजी-रोटी ढूंढने आई होती है। 

जो नेवी, सेना, सरकारी या दूसरी नौकरियों के लिए बाहर जाते हैं, उन्‍हें इन जड़ों की इतनी जरूरत और अकेलापन महसूस नहीं होता है। उनके पास नौकरी के पंख होते हैं और जड़ों के पास लौटने के अवसर और दस्‍तूर भी होते हैं। वे बाहर जा कर भी गांव से दूर नहीं होते हैं। 

दो दिन पहले हिमाचल घूम कर आया एक बंदा मिला। उसका सवाल था – स्‍वर्ग जैसी जमीन को छोड़ तुम यहां कहां फसे हो। मैंने उसे तो जवाब दे दिया परंतु यह सवाल मेरे होश संभालने के बाद से मेरे पीछे पड़ा है। 

मैं सोचता हूं यहां मुंबई में ऐसा क्‍या था, जिसके लिए हमारे बुजुर्गों ने 1800 सौ मील के पहले सांस ही नहीं ली। गांव में ऐसे क्‍या दुख तकलीफ थे, जिनके कारण वे तीन-तीन दिनों की एक बड़ी ही कठिन यात्रा कर के मुंबई भाग आते थे। सामान का बोझ उठा मीलों पैदल चलने के बाद हिलती-डुलती बसें मिलती थीं। लकड़ी के बैंचों वाली सीटें और खड़-खड़ करती रेलें। खिड़कियों से हवा कम और कोयलों का धुंआ ज्‍यादा आता था। जब रेल से उतरते थे तो कपड़ों के साथ मुंह भी काला हो गया होता था। 

यहां मुंबई में आ कर भी क्‍या मिलता था। गैरेजों में चटाईयों के बिस्‍तरे,  टेक्सियां धोने की मजदूरी और ड्राईवर बनने का सपना। उस समय गाड़ियां कम होती थीं और गाड़ियों के साथ-साथ ड्राईवर का रुतबा भी भारी होता था।  इसी एक बात के लिए हमारे युवा किताबें बेच कर ड्राईवर बनने मुंबई भाग आते थे। उस जमाने में ठीक-ठाक पढ़े-लिखों का दिल्ली या हिमाचल में नौकरी का जुगाड़ बन जाता था। कम पढ़े-लिखों के हिस्‍से में फौज के अलावा हिमाचल के आस-पास जो काम आते थे, उनकी तुलना में मुंबई आ कर ड्राईवर बनना फायदे का सौदा था। इस का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उस समय मुंबई के टैक्‍सी ड्राईवर इंडियन आईल जैसी  पीएसयू और सरकारी नौकरी की तुलना में अपनी टैक्‍सी चलाना ज्‍यादा पसंद करते थे। 

यह दौर 1980  तक चला। उसके बाद पैट्रोल आसमान छूने लगा और उपनगरों में ऑटो-रिक्‍शा आ गया। एक दौर ऐसा भी आया यदि सीएनजी नहीं आती तो हिमाचली टैक्सियों वाले टैक्सियों और मुंबई दोनों को आखिरी जय महाराष्‍ट्र करने की हालत में पहुंच चुके थे। हिमाचलियों का मुंबई से टैक्‍सी व्‍यवसाय वाला संबंध कोरोना के बाद अब जा कर खत्‍म हुआ। इसने तभी खत्‍म हो जाना था।      

यह बड़ी अजीब बात है। हिमाचल में मेरे घर से धौलाधार दिखती थी। यहा मुंबई में काले पत्‍थरों का छिला हुआ पहाड़। जिसे और छीलने के लिए रोज 1 बजे और 5 बजे सुरंगें लगायी जाती थीं। पहाड़ से पत्‍थर बरसते थे। इन पत्‍थरों को पीसने के लिए क्रेशर लगे थे। सुबह से लेकर शाम तक खटारा ट्रक ढुलाई करते रहते थे। एक तरफ दिन भर मजदूर-मजदूरनियां तसले भर-भर पत्‍थरों को क्रेशरों में डालते और दूसरी तरफ तैयार रेत-गिट्टियों को ट्रकों में भरने लगे रहते थे। सारा दिन हवा में धूल का राज होता था। मेरी मां इस धूल को पौंछने में लगी रहती थी। शाम को जाकर  क्रेशर बंद होते तो चैन पड़ती थी। 

क्रेशरों के बगल में एक दस खोलियों की चाल थी। उस चाल में कोने वाला कमरा मेरा घर था। क्रेशरों और मेरे घर के बीच एक पतल़ी सी कच्‍ची सड़क थी। यहां म‍राठी में कमरे को खोली बोलते हैं और एक सीध में बनी कमरों की पंक्ति को चाल बोलते हैं। मुंबई में चालों में रहने-जीने दी एक अनूठी संस्‍कृति थी। मराठी में इस पर बहुत सारा साहित्‍य लिखा गया है। मराठी के हास्‍य व्‍यंग लेखक पु. ला. देशपांडे का एक बड़ा प्रसिद्ध कथा संग्रह है बटाटया ची चाळ। उस पर इस नाम का एक बड़ा मजेदार नाटक मुंबई में आज भी मंचित होता रहता है।   

मुंबई में पले बढ़े कवि अनुवादक कुशल कुमार
2005-2010 तक मुंबई से हिमाचल मित्र पत्रिका का संपादन किया।
चर्चित द्विभाषी कविता संग्रह मुठ भर अंबर।

Saturday, July 6, 2024

यादां फौजा दियां

 



फौजियां दियां जिंदगियां दे बारे च असां जितणा जाणदेतिसते जादा जाणने दी तांह्ग असां जो रैंह्दी है। रिटैर फौजी भगत राम मंडोत्रा होरां फौजा दियां अपणियां यादां हिंदिया च लिखा दे थे। असां तिन्हां गैं अर्जी लाई भई अपणिया बोलिया च लिखा। तिन्हां स्हाड़ी अर्जी मन्नी लई। असां यादां दी एह् लड़ी सुरू कीती थी 22 नवंबर 2020 जोदूंई जबानां च। हर म्हीनैं तुसां तक एक किस्त पूजी है बिना नागा। फौजी जीवन दे किस्मां किस्मां दे अनुभव तुसां पढ़े। अज पेश है इसा लड़िया दा पंचताह्ळुआं मणका। इस मण्के कन्नै ही असां जरा क बसौं लैणा है। अग्गैंं चली नै इन्हां मण्केयां दी माळा जारी रखणे दा इरादा है। थोड़े होर नौंएं तौर तरीके नै।    


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समाधियाँ दे परदेस च 


फौज च गिणे-चुणे सूबेदाराँ जो ही सूबेदार मेजर बणने दा मौका मिलदा है। इक यूनिट च इक्को ही सूबेदार मेजर हौंदा है। जेकर मैं सूबेदार मेजर बणदा ताँ मिंजो यूनिट ते कुसी तोपखाना ब्रिगेड हैडकुआटर जाँ तोपखाने दे कुसी दूजे उच्चे हैडकुआटर च अपॉइंटमेंट मिलणी थी। 

फौज च सालाना गुप्त रिपोर्टां प्रमोशन च खास रोल निभाँदियाँ हन्न। तिस वक्त सूबेदार मेजर बणने ताँईं सीनियरिटी दे बेस पर सूबेदाराँ दे इक बैच जो 105 नंबराँ दे स्केल पर परखेया जाँदा था। तिन्हाँ च तकरीबन 80 नंबर सालाना गुप्त रिपोर्टां दे हौंदे थे कनैं बाकी 25 नंबर फील्ड सर्विस, मैडल, कोर्स ग्रेडिंग, बगैरा ताँईं हौंदे थे।  मेरी फील्ड सर्विस बहोत घट थी। 5 नंबराँ ते मिंजो सिर्फ इक जाँ डिढ़ नंबर मिलणे वाळा था। मेरे सत्त मैडलां च मिंजो सिर्फ इक मैडल ही इक नंबर दुआणे वाळा था।  मेरा सूबेदार मेजर बणना मेरी सालाना गुप्त रिपोर्टां पर डिपेंड  करदा था। प्रमोशन ताँईं बैच दे सारे सूबेदाराँ दी पिछलियाँ पंज रिपोर्टां दी जाच-परख हौंदी थी।  मेरिट लिस्ट बणदी थी।  जिस साल जितणियाँ वैकेंसिंयाँ हौंदियाँ थियाँ, मेरिट च औंणे वाळे तितणे सूबेदार प्रमोशन ताँईं चुणे जाँदे थे कनै सीनियरिटी दे मुताबिक, जिंञा-जिंञा वैकेंसी हौंदी थी प्रमोट करी दित्ते जाँदे थे।  हरेक सूबेदारे जो तिन्न मौके मिलदे थे। 

तिस यूनिट च औंणे ते पैह्लैं मेरियाँ सारियाँ सालाना गुप्त  रिपोर्टां ‘आउटस्टेंडिंग’ थियाँ।  बस तिस यूनिट दी पैहली रिपोर्ट ही ‘अबव ऐवरेज’ थी जेह्ड़ी मिंजो हुणकणे सीओ ते पैहलकणे सीओं  दित्तिह्यो थी।  तिस सीओ साहबे जो मेरी  इमानदारी कनै सिद्धा-साफ बोलणे दी आदत शायद खरी नीं लगदी थी। तिन्हाँ शुरू-शुरू च तोपखाना रिकॉर्ड, नासिक रोड केंप च खुद जायी करी मिंजो अपणी यूनिट ते कढणे दी खूब कोशिश कित्ती थी अपर तिन्हाँ दी इक भी नीं चली थी। सैह् मिंजो पर इक ही रिपोर्ट लिक्खी सके थे अगली रिपोर्ट लिखणे ते पैहलैं तिन्हाँ दा दूइया ठाहरी तबादला होयी गिया था। हुणकणे सीओ साहब होराँ दियाँ लिक्खियाँ  मेरियाँ लगातार तिन्न रिपोर्टां ‘आउटस्टेंडिंग’ रहियाँ थियाँ अपर तिन्हाँ दी लिक्खिह्यो चौथी कनै आखिरी रिपोर्ट ‘अबव ऐवरेज’ थी। इस तरहाँ मेरियाँ आखिरी पंज रिपोर्टां च दो ‘अबव ऐवरेज’ कनैं तिन्न ‘आउटस्टेंडिंग’ थियाँ। 

मेरे बैच दे सूबेदार तिस ही साल सूबेदार मेजर दे प्रमोशन ताँईं परखे जाणे वाळे थे।  मिंजो पता था  कि मेरा नाँ ‘मेरिट लिस्ट’ च औंणे वाळा नीं है। जेकर आखिरी रिपोर्ट ‘आउटस्टेंडिंग’ हौंदी ताँ मैं मेरिट लिस्ट च औंणे दी थोड़ी-बहोत मीद करी सकदा था।  तिस आखिरी रिपोर्ट जो लिक्खणे ते किछ दिनाँ परंत  तिन्हाँ सीओ साहब होराँ दी भी पोस्टिंग हौयी गयी थी। दरअसल सैह् स्टडी लीव पर चली गै थे।  पता नीं तिन्हाँ जो इस गल्ल दा एहसास था भी जाँ नीं कि सैह् मेरियाँ सूबेदार मेजर बणने दियाँ मीदाँ गास पाणी फेरी गै थे। अपर मिंजो इस गल्ल दा पता चली गिया था कि सैह् नौंयें सीओ साहब जो मेरे बारे च जे किछ भी दस्सी करी गै थे सैह् खरा ही था। 

नौंयें सीओ साहब सिख अफसर थे। यूनिट दी कमाण संभाळने ते परंत तिन्हाँ इक सैनिक सम्मेलन कित्ता। सैनिक सम्मेलन दे खत्म हौंणे पर तिन्हाँ जुआनाँ जो चले जाणे ताँईं ग्लाया। हाले च सिर्फ अफसर कनै जेसीओ ही बैठी रैह्। सीओ साहब होराँ बारियें-बारियें सारेयाँ कन्नैं हत्थ मिलाया कनैं गल्ल-बात कित्ती। मिंजो नैं हत्थ मिलायी करी तिन्हाँ पुच्छेया,

“भगत राम साहब, सूबेदार मेजर कदी बणा दे?”

“सर, मैं सूबेदार मेजर नीं बणी पाणा है,” मैं उदास होयी करी जवाब दित्ता था।

ताह्लू तिन्हाँ ‘टू आई सी’ साहब होराँ जो ग्लाया था कि सैह् मेरे बारे च तिन्हाँ कन्नैं गल्ल करन। सैनिक सम्मेलन ते आयी करी ‘टू आई सी’ साहब होराँ मेरियाँ सालाना गुप्त रिपोर्टां दिया फाइला लई करी सीओ साहब होराँ कन्नैं मिल्ले थे।  तिन्हाँ दिनाँ च सालाना गुप्त रिपोर्टां दियाँ दो कापियाँ बणदियाँ थियाँ। पहली कापी रिकॉर्ड ऑफिस जो भेजी जाँदी थी कनैं दूजी कापी यूनिट च रैंह्दी थी। 

तिस ते परंत कमाण आफसर होंरा मिंजो अपणे दफ्तर च सद्दी नैं ग्लाया था,

“साहब, मैं एह् एनश्योर करना है कि तुसाँ सूबेदार मेजर बणन।” 

“सर, मैं अंडर-पोस्टिंग है। मिंजो नॉर्थ-ईस्ट च जाणा है। नौंयीं यूनिट हौंणी, पता नीं मैं सही परफॉरमेंस दर्ज करवायी भी पाँअ्गा जाँ नीं,”

मेरिया गल्ला जो बिच ही टोकदेयाँ तिन्हाँ बोल्या था,

“मैं इस गल्ल दा यकीन भी करह्गा कि तुसाँ इस यूनिट ते इक होर एसीआर लई करी जाह्ण। पोस्टिंग ताँ तुसाँ ताह्ली जाँणा है जाह्लू मैं तुसाँ जो भेजणा है।” 

मिंजो नीं लगदा था कि सीओ साहब होराँ मिंजो ज्यादा दिन तिकर जाणे ते रोकी सकणे वाळे थे अपर तिन्हाँ दे बोल कनैं सोच मिंजो ताँईं हौंसला बद्धाणे दा स्नेहा देया दे थे।  तिन्हाँ दिनाँ च भारत दी संसद पर उग्रवादी हमला हौयी गिया। पछमी सरहद पर ‘ऑपेरशन पराक्रम’ दे तहत फौज दा जमाबड़ा हौया।  मेरी सैह् यूनिट थलसेना दी इक ताकतवर ‘स्ट्राइक कोर’ दा हिस्सा थी जिन्नैं राजस्थान दी सरहद पर पाकिस्ताने उप्पर हमला करना था। आर्मी  हैडकुआटरैं उत्तर-पछम च तैनात  टुकड़ियाँ ते बाहर जाणे वाळी सब्भ पोस्टिंगां तरंत, अगले हुक्म तिकर, रोकी  दित्तियाँ थियाँ। मैं भी अपणी यूनिटा कन्नैं बीकानेर दे अक्खे-बक्खे  दे इलाके च चला गिया था। 

म्हारी तिस ‘स्ट्राइक कोर’ जो जाह्लू संयुक्त राज्य अमरीका दे उपग्रहाँ अग्गैं बद्धदेयाँ दिक्खेया ताँ तदकणे अमरीकी राष्ट्रपति होराँ असाँ दे तदकणे प्रधानमंत्रिये जो खबरदार कित्ता था।  पता नीं चूक कुत्थू होइयो थी पर तिसा दा ठीकरा म्हारे कोर कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल साहब दे सिरे पर फोड़ी करी तिन्हाँ जो रातोंरात कमाण ते हटायी दित्ता गिया था कनैं तिस ‘स्ट्राइक कोर’ दी कमाण दूजे लेफ्टिनेंट जनरल जो देई दित्ती थी।  असाँ जो रातों-रात पिच्छे ट्हायी-ता था।  सैह् रात कयामत दी रात थी, पता ही नीं चल्ला दा था कि क्या हौआ दा है? 

कारगिल दी जंग च, जित्थू भारत दियें फौजैं बहादुरिया कन्नैं लड़ी करी दुश्मण मारी नह्ठाया था, 527 भारत दे फौजियाँ दियाँ जानाँ गइयाँ थियाँ अपर ‘ऑपेरशन पराक्रम’ च बगैर लड़ेयाँ ही 798 भारतीय फौजियाँ जो अपणे प्राणां ते हत्थ धोणा पई गै थे। ‘ऑपेरशन पराक्रम’ च देशैं गुआया मता किछ था कनैं खट्टेया किछ भी नीं था। तिस ताँईं काफी हद तिकर अनपढ़, अद्धपढ़, निक्कमी, लापरवाह, निर्दयी कनैं बड़बोली भारतीय पोलिटिकल लीडरशिप जिम्मेदार थी।

 

(इति)

  

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समाधियों के प्रदेश में (पैंतालीसवीं कड़ी)

 

सेना में गिने-चुने सूबेदारों को ही सूबेदार मेजर बनने का अवसर मिलता है। एक यूनिट में एक ही सूबेदार मेजर पाया जाता है। अगर मैं सूबेदार मेजर बनता तो मुझे यूनिट से किसी तोपखाना ब्रिगेड मुख्यालय अथवा तोपखाने के किसी अन्य उच्च मुख्यालय में नियुक्ति मिलनी थी। 

सेना में वार्षिक गोपनीय रिपोर्टें पदोन्नति में विशेष भूमिका निभाती हैं।  उस समय सूबेदार मेजर बनने के लिए वरिष्ठता के आधार पर सूबेदारों के एक बैच को 105 अंकों के पैमाने पर आंका जाता था।  उनमें से तकरीबन 80 अंक वार्षिक गोपनीय रिपोर्टों के होते थे और शेष 25 अंक फील्ड सर्विस, पदक, कोर्स ग्रेडिंग, इत्यादि  के लिए होते थे।  मेरी फील्ड सर्विस बहुत कम थी।  5 अंकों में से मुझे महज एक या डेढ़ अंक मिलने वाला था। मेरे सात पदकों में से मुझे केवल एक पदक ही एक अंक दिलाने वाला था।  मेरा सूबेदार मेजर बनना मेरी वार्षिक गोपनीय रिपोर्टों पर निर्भर  करता था।  इसके लिए बैच के सभी सूबेदारों  की पिछली पांच रिपोर्टों का मूल्याँकन होना था।  मेरिट लिस्ट बनायी जाती थी। जिस वर्ष जितनीं वैकेंसी हों, मेरिट में आने वाले, उतने सूबेदार प्रमोशन के लिए चुन लिए जाते थे और वरिष्ठता के अनुसार, जैसे-जैसे वैकेंसी होती थी पदोन्नत कर दिये जाते थे।  प्रत्येक सूबेदार को तीन अवसर मिलते थे। 

उस यूनिट में आने से पहले मेरी सभी वार्षिक गोपनीय रिपोर्टें ‘असाधारण’ थीं।  बस उस यूनिट की पहली रिपोर्ट ही ‘औसत से ऊपर’ थी जो मुझे वर्तमान सीओ से पहले वाले सीओ ने दी थी।  उन सीओ साहब को मेरी  इमानदारी और स्पष्टवादिता संभवतः पसंद नहीं थी।  उन्होंने शुरू-शुरू में तोपखाना अभिलेख, नासिक रोड केंप में व्यक्तिगत तौर पर जाकर मुझे अपनी यूनिट से निकालने के भरसक प्रयास किये थे लेकिन उनकी एक भी न चली थी। वे मुझ पर एक ही रिपोर्ट लिख पाये थे अगली रिपोर्ट लिखने से पहले उनका दूसरी जगह पर तबादला हो गया था। वर्तमान सीओ साहब द्वारा लिखित मेरी लगातार तीन रिपोर्टें ‘असाधारण’ रही थीं परंतु उनके द्वारा लिखी गयी चौथी और अंतिम रिपोर्ट ‘औसत से ऊपर’ थी। इस तरह मेरी अंतिम पांच रिपोर्टों में से दो ‘औसत से ऊपर’ और तीन ‘असाधारण’ थीं। 

मेरे बैच के सूबेदार उसी वर्ष सूबेदार मेजर के प्रमोशन के लिए परखे जाने वाले थे।  मुझे पता था कि मेरा नाम ‘मेरिट लिस्ट’ में आने वाला नहीं है। अगर अंतिम रिपोर्ट ‘असाधारण’ होती तो मैं मेरिट लिस्ट में आने की थोड़ी-बहुत उम्मीद कर सकता था।  उस अंतिम रिपोर्ट को लिखे जाने के कुछ दिन बाद उन सीओ साहब का भी तबादला हो गया था।  दरअसल वे स्टडी लीव पर चले गये थे।  पता नहीं उन्हें इस बात का एहसास था भी या नहीं कि वे मेरी सूबेदार मेजर बनने की उम्मीदों  पर पानी फेर गये थे।  परंतु मुझे इस बात का पता चल गया था कि वे नये सीओ साहब को मेरे बारे में जो कुछ भी बता कर गये थे वो अच्छा ही था। 

नये सीओ साहब सिख अफसर थे। यूनिट की कमान संभालने के बाद उन्होंने एक सैनिक सम्मेलन किया। सैनिक सम्मेलन की समाप्ति पर उन्होंने जवानों को चले जाने के लिए कहा। हाल में केवल अफसर और जेसीओ ही बैठे रहे। सीओ साहब ने बारी-बारी सभी से हाथ मिलाया और बातचीत की। मुझ से हाथ मिला कर उन्होंने पूछा,

“भगत राम साहब, सूबेदार मेजर कब बन रहे हो?”

“सर, मैं सूबेदार मेजर नहीं बन पाऊंगा,” मैंने उदास हो कर जवाब दिया था। 

तभी उन्होंने उप-कमान अधिकारी महोदय से मुखातिब हो कर कहा था कि वे मेरे बारे में उनसे बात करें। सैनिक सम्मेलन से लौट कर उप-कमान अधिकारी महोदय मेरी वार्षिक गोपनीय रिपोर्टों की फाइल लेकर सीओ साहब से मिले थे। उन दिनों वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट की दो प्रतियाँ बनती थीं। पहली प्रति अभिलेखागार को भेज दी जाती थी और दूसरी प्रति यूनिट के साथ रहती थी।  

उसके बाद कमान अधिकारी महोदय ने मुझे अपने दफ्तर में बुला कर कहा था,

“साहब, मैं यह एनश्योर (सुनिश्चित) करूंगा कि आप सूबेदार मेजर बनें।” 

“सर, मैं अंडर-पोस्टिंग हूं। मुझे नॉर्थ-ईस्ट में जाना है। नयी यूनिट होगी, पता नहीं मैं सही परफॉरमेंस दर्ज करवा भी पाऊंगा या नहीं,”

मेरी बात को बीच में टोकते हुए उन्होंने कहा था,

“मैं इस बात का यकीन भी करूंगा कि आप इस यूनिट से एक और एसीआर लेकर जाएं। पोस्टिंग तो आप तभी जाँयेगे जब मैं आप को भेजूंगा।” 

मुझे नहीं लगता था कि सीओ साहब ज्यादा दिन तक मुझे जाने से रोक पायेंगे परंतु उनके शब्द और सोच मेरे लिए उत्साहवर्धक संदेश दे रहे थे।  तभी एक दिन भारतीय संसद पर उग्रवादी हमला हो गया।  पश्चिमी सीमा पर ‘ऑपेरशन पराक्रम’ के तहत सेना का जमाबड़ा हुआ।  मेरी वह यूनिट थलसेना की एक ताकतवर ‘स्ट्राइक कोर’ का हिस्सा थी जिसने राजस्थान की सीमा पर पाकिस्तान पर आक्रमण करना था।  सेना मुख्यालय ने पश्चिम में तैनात टुकड़ियों से बाहर जाने वाली सभी पोस्टिंगें तत्काल प्रभाव से अगले आदेश तक स्थगित कर दी थीं। मैं भी अपनी यूनिट के साथ बीकानेर के आसपास के क्षेत्र में चला गया था। 

हमारी उस ‘स्ट्राइक कोर’ को जब संयुक्त राज्य अमरीका के उपग्रहों ने आगे बढ़ते देखा तो तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति ने हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री को खबरदार किया था। पता नहीं चूक कहाँ हुई थी पर उसका ठीकरा हमारे कोर कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल साहब के सिर पर फोड़ कर उन्हें रातोंरात कमान से हटा दिया गया था और उस ‘स्ट्राइक कोर’ की कमान दूसरे लेफ्टिनेंट जनरल के सुपुर्द कर दी गयी थी। हमें रातों-रात पीछे हटा लिया गया था। वह रात कयामत की रात थी, पता ही नहीं चल पा रहा था कि हो क्या रहा है? 

कारगिल युद्ध में, जहाँ भारतीय सेना ने वीरता से लड़ कर शत्रु को मार भगाया था, 527 भारतीय सैनिकों की जानें गयी थीं परंतु ‘ऑपेरशन पराक्रम’ में बिना लड़े ही 798 भारतीय सैनिकों को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा था। ‘ऑपेरशन पराक्रम’ में देश ने बहुत कुछ खोकर कुछ भी हासिल नहीं किया था। काफी हद तक इसका श्रेय अनपढ़, अद्धपढ़, अकुशल, लापरवाह, असंवेदनशील और बड़बोले भारतीय राजनैतिक नेतृत्व को जाता है। 

(इति)


हिमाचल प्रदेश के जिला काँगड़ा से संबन्ध रखने वाले भगत राम मंडोत्रा एक सेवानिवृत्त सैनिक हैं। उनकी  प्रकाशित पुस्तकें हैं 
     
 
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