हिन्दिया दे कवि हरीश चंद्र पाण्डे होरां दियां दो कवतां ।
अनुवाद : अनूप सेठी ।
।। ऊंट कनै रेगिस्तान ।।
कदी कदी इक
कोलाज जेह्या लगदा ऊंटे दा सरीर
कुछ कुछ काठ, कुछ कुछ रबड़, कुछ कुछ कच्च
कनै पिट्ठी
पर जिञा अरावली पहाड़े दा टुकड़ा पेड़ी तेया होऐ
अंदर मुसकल वक्तां ताईं कठेरयो पाणिए
जो दिक्खी नीं सकदे
हिलदा हिलदा भी जणै झीला दा इक
टुकड़ा होऐ
सैह्
जेह्ड़ी नक्के फाड़ी नै अंदरा ते जांदिया रसिया दी खिच है
तिसा जो तिस
पर लदोयो बोझे च जोड़ी लैणा चाहिदा
कनै गलाणा
देया तिह्दिया कूह्रिया काठिया जो
- जीणे ताईं
भरोयो जिसम जरूरी नीं
रेत जणता
सुकी गेयो दरियां दिया खरकोइयां पिट्ठीं हन
इक ऐसा
विस्तार जिह्दे बंजरपणे जो नागफणियां पूरा करदियां
रेतीलियां
हौआं हन रेतां दियां घाटियां कनै रेता दे पहाड़
रेता दे
बणदे बिगड़दे छितिज
रेत धर्म है
एह्
रुकावटां दे
अपणे धर्म हन चलणे दे अपणे
इक हंडदे
ऊंटे ताईं छितिज
क्याड़िया
हेट्ठें गुजरदी जांदी छाया रेखा है
सारी रेत
सारे ऊंट तकरीबन इक्को जेह्, धरया इक्को जेह्यी, बोझे इक्को जेह्
कनै नकेलां
भी
कदी कदी एथी
रेता च धसदे पैर दूर अरब देसां च चकोंदे सुझदे
कनै नकाबां
च फसियो रेत जणता लम्मेयां झूंडां ते झरदी है
।। ताकत दी तहिमा ।।
शेरां दी ताकत कुण नीं जाणदा
जे सैह् लड़गे ता समझी लेया इक्की दी
जान जाणी ही जाणी है
कुत्तेयां जो भी जाणदे सारे ही
पर सैह् लड़दे लड़दे मित्तर बणी
जांदे
गधेयां दा अपणा इक संसार है
पर तिन्हां
जो बेह्ल ही कुतू
कुक्कड़
लड़दे घट लोक तिन्हां जो लड़ांदे जादा
रंगीन
कलगियां आळे
हौआ च लड़दे
सैह् कितणे छैळ लगदे
जितणे सैह्
हौआ च उड़की उड़की लहूलुहान हुंदे
लड़ाणे
आळयां दा खून तितणा ही बदधा है
घोड़े लड़दे
घट ही सुझदे
न्यूयॉर्क, लंदन, मेलबर्न, दिल्ली उन्नाव कुती भी जाअ
कोई इंजण
खरीदणा छोटा बड्डा
दुकानदारें
सारयां ते पैह्लें पुछणा है –
कितणे हॉर्स
पावर दा चाहिदा ...
दुनिया च, घोड़यां दिया ताकता दा नाप चलदा
।। ऊंट और रेगिस्तान ।।
कभी कभी एक कोलाज सा लगता है ऊंट का
शरीर
कुछ कुछ काठ, कुछ कुछ रबर, कुछ कुछ कांच
और पीठ पर जैसे अरावली का टुकड़ा टीप
दिया गया हो
भीतर आड़े वक्त के लिए संग्रहीत पानी
को तो देखा नहीं जा सकता
हिलते हुए वह भी झील का एक टुकड़ा हो
सकता है
वह जो नाक फोड़कर भीतर से गुजरती
खिंचती रस्सी का तनाव है
उसे उस पर लदे बोझ में जोड़ लिया
जाना चाहिए
और उसकी इकहरी काठी को कहने दिया जाए
- मांसलता जीने की अपरिहार्यता नहीं
रेत सूख गई सलिलाओं की खुजवाई पीठें
हैं
एक ऐसा विस्फार जिसके बंजरपन को
नागफनियां पूरती हैं
रेतीली हवाएं हैं रेत की घाटियां और
रेत के पहाड़
रेत के बनते बिगड़ते क्षितिज हैं
रेत धर्म है यह
अवरोधों के अपने धर्म हैं गति के अपने
एक चल पड़े ऊंट के लिए क्षितिज
गरदन के नीचे से गुजरती हुई एक छाया रेखा है
सारी रेत सारे ऊंट लगभग एक से, प्यास एक सी, बोझ एक से
और नकेलें भी
कभी कभी यहां रेत में धंसते पांव सुदूर अरब में उठते
से दिखते हैं
और हिजाबों में उलझी रेत लंबे घूंघटों से झरती लगती
है।
।। ताकत की महिमा ।।
शेरों के बल को कौन नहीं जानता
अगर वे लड़ें तो समझो एक की जान जानी
ही जानी है
कुत्तों को भी सभी जानते हैं
मगर वे लड़ते लड़ते दोस्त हो जाते
हैं
गधों का भी अपना एक संसार है
पर उन्हें फुर्सत ही कहां
मुर्गे लड़ते कम लड़ाए ज्यादा जाते
हैं
रंगीन कलगियां लिये हुए
वे हवा में लड़ते हुए कितने फबते हैं
जितना वे हवा में फड़क फड़क लहूलुहान
होते हैं
लड़ाने वालों का खून उतना ही बढ़ता है
घोड़ों को लड़ते हुए देखना एक अपवाद
दृश्य है
न्यूयार्क, लंदन, मेलबर्न, दिल्ली, उन्नाव कहीं भी
जाओ कोई इंजन खरीदने छोटा बड़ा
दुकानदार सबसे पहले पूछेगा-
कितने 'हार्स पावर' का चाहिए...
दुनिया में, घोड़ों की ताकत का
नपना चलता है
हरीश चन्द्र पाण्डे
जन्म : दिसम्बर 1952; सदीगाँव, उत्तराखंड में।
प्रमुख कृतियाँ : ‘कुछ भी मिथ्या नहीं है’, ‘एक बुरूंश कहीं खिलता है’, ‘भूमिकाएँ ख़त्म नहीं होतीं’, ‘कलेंडर पर औरत’ तथा ‘अन्य प्रतिनिधि कविताएँ’, ‘असहमति’ (कविता-संग्रह); ‘दस चक्र राजा’ (कहानी-संग्रह); ‘संकट का साथी’ (बाल-कथा संग्रह)।
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अनूप सेठी जन्म : जून 1958; गांव दरवैली, जिला हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश में। प्रमुख कृतियाँ : ‘जगत में मेला’, ‘चौबारे पर एकालाप’, (कविता-संग्रह); ‘नोम चॉम्स्की:सत्ता के सामने’ (अनुवाद)। |