फौजियां दियां जिंदगियां दे बारे च असां जितणा जाणदे, तिसते जादा जाणने दी तांह्ग असां जो रैंह्दी है। रिटैर फौजी भगत राम मंडोत्रा होरां फौजा दियां अपणियां यादां हिंदिया च लिखा दे थे। असां तिन्हां गैं अर्जी लाई भई अपणिया बोलिया च लिखा। तिन्हां स्हाड़ी अर्जी मन्नी लई। हुण असां यादां दी एह् लड़ी सुरू कीती है, दूंई जबानां च। पेश है इसा लड़िया दा बतह्उआं मणका। मूह्रली तस्वीर पैह्ले विश्व युद्ध च फौजियां दियां चिट्ठियां दी है। एह् अंजली सोवानी दी प्रदर्शनी दी इंडियन एक्सप्रेस च छपियो खबरा ते लइह्यो है, साभार।
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समाधियाँ दे परदेस च (बत्हमीं कड़ी)
लुम्पो च रैह्णे दे दौरान, जिंञा ही संझा दे टैमें हेड क्लर्क साहब ऑफिस ते निकळदे, असाँ भी अपणी-अपणी मेजाँ पर पइह्याँ फाइलाँ जो समेटी करी अपणे तिस रह्णे दे कमरे च चली जाँदे थे। तित्थू असाँ दा बाकायदा इक रूटीन होंदा था जिसदे असाँ सारे आदी होई चुक्केह्यो थे। मैं, इक हौळदार दे तौर पर, तिस कमरे च रैह्णे वाळा सब्भते सीनियर जुआन था। जिंञा ही मैं अपणे बूट उतारदा, लाँस नायक कॄष्ण कुमार यादव चुपचाप, अद्धे तिकर कटोह्यो टिन दे कनस्तर च तत्ता पाणी पायी करी मेरे मंजे साह्म्णे रखी दिंदे। मैं अपणे हत्थ-पैर तत्ते पाणियें नै सेकी करी कनै तौलिये नै खरा की पूंह्जीं करी चारपाइया पर बैठी जाँदा कनै अपणिया घरेवाळिया जो चिट्ठी लिखणा लगी पोंदा। तिस दौरान बाकी सारे जुआन बारी-बारी, पाणी बदळी-बदळी करी, अपणे-अपणे हत्थ-पैर सेकी लैंदे थे। लाँस नायक यादव, दो नंबर दा निप्पळ लग्गेह्यो, बड़े जेहे बर्नर वाळे कैरोसीन दे स्टोव पर कनस्तर च पाणी गर्म करी नै रखदे थे।
जिंञा ही मैं चिट्ठी लिखणा बैठदा, लाँस नायक यादव नापी करी इक-इक पेग यानी कि सट्ठ मिलीलीटर व्हिस्की, ब्राँडी जाँ रम, जे भी तिस बग्त होंदी, सारेयाँ दे गिलासाँ च पाई करी साह्म्णे रखी दिंदे थे। तिसदे परंत सैह् तिस बिच कुनकुना पाणी मिलायी दिंदे थे। तिन्हाँ जो पता होंदा था कि कुसदे गिलास च कितणा कि पाणी पाणा है। मैं चिट्ठी लिखदे बग्त, बिच-बिच चुस्की लगांदा रैंह्दा। किछ देर परंत चिट्ठी भी लिखोयी जाँदी कनै गिलास भी खाली होयी जाँदा। जिंञा ही मैं चिट्ठी बंद करी नै चिपकाई दिंदा, सैह् प्लेटाँ च गर्मागर्म खाणा प्रीह् (परोसी) दिंदे थे।
मैं तकरीबन डिढ़ साल तिकर अरुणाचल प्रदेश दे तवाँग जिले च पोणे वाळे लुम्पो च रिहा था। सैह् अजकले साँह्ईं मोबाइल दा जमाना नीं था। तित्थू ते मैं अपणी घरवाळी जो हर दिन इक चिट्ठी लिखदा था। तिस बग्त मेरी घरवाळी हिमाचल प्रदेश दे हमीरपुर च रैंह्दी थी जित्थू मेरे दोह्यो बच्चे केंद्रीय विद्यालय च पढ़दे थे।
मैं ताँ तित्थू ते हर रोज इक चिट्ठी लिखदा था अपर मेरिया घरवाळिया जो कई-कई दिन तिकर मेरी कोई भी चिट्ठी नीं मिलदी थी कनै कुसी-कुसी रोज ताँ तिन्हाँ जो पंज-छे चिट्ठियाँ इक्कठियाँ ही मिली जाँदियाँ थियाँ। मेरियाँ चिट्ठियाँ दी तरतीब जाणने ताँईं मेरिया घरेवाळिया जो पैह्लैं सारियाँ चिट्ठियाँ खोलणा पोंदियाँ थियाँ फिरी सैह् तिन्हाँ दे अंदर लिखियाँ तारीखां दे जरिये तिन्हाँ जो सिलसिलेवार रखी नै पढ़दे थे ताँ जाई ने गल्ल बणदी थी। जाह्लू मेरियें घरवालियें मिंजों अपणी प्रॉब्लम दस्सी ताँ मैं अपणी हर चिट्ठी ते बाह्रले पासैं इक कूणे पर चिट्ठी दा नंबर लिखणा शुरू करी दित्ता। तिसते तिन्हाँ जो चिट्ठियाँ सिलसिलेवार रखणे च सहूलियत होणा लगी। जदैह्ड़ी मेरियाँ चिट्ठियाँ मिलदियाँ थियाँ मेरी घरवाळी तैह्ड़ी ही तिन्हाँ दा जवाब लिखी नै अगले दिन तिस्सेयो 'लैटर बॉक्स' च पाई दिंदे थे। मैं अपणी घरवाळी जो ग्लायी रक्खेह्या था कि मेरी चिट्ठी चाहे मिल्ले न मिल्ले, तिन्हाँ जो हर इतवार जो मिंजो हर हालत च इक चिट्ठी लिखणी ही लिखणी है। मेरी इस गल्ल पर सैह् हमेशा हर्फ-ब-हर्फ अमल करदे रैह् थे।
तिन्हाँ दिनाँ च सरहदां पर तैनात फौजियाँ जो हर महीनें अट्ठ इनलैंड लेटर मुफ्त मिलदे थे। तिन्हाँ च चार लेटर लाल रंग दे कनै चार लेटर हरे रंग दे होंदे थे। लाल रंग दे लेटर यूनिट च सेंसर होंदे थे जद कि हरे रंग दे लेटर बेस च सेंसर होंदे थे। अपणी पलटण ताँईं तिन्हाँ लेटराँ दी सप्लाई खातिर फील्ड पोस्ट ऑफिस जो हर महीनें डिमांड भेजणा मेरी जिम्मेदारी च शामिल था। मैं कायदे मुताबिक हर महीनें ताँईं, पिछले महीनें दे अखीरी दिन पलटण च हाजिर फौजियाँ दिया गिणतिया दे बेस पर, डिमांड भेजी करी तिन्हाँ लेटराँ जो मंगुआंदा था कनै चारेह्यो बैट्रियाँ दे दफ्तराँ च तिन्हाँ दे जुआनाँ जो बंडणे ताँईं भेजी दिंदा था। लेटराँ जो सेंसर करने ताँईं हर बैट्री ते ऑथराइज़्ड अफसराँ (ऑफिसर कनै जेसीओ) दे नाँ यूनिट के पार्ट वन ऑर्डराँ च छपदे थे।
समै-समै पर बैट्री दफ्तराँ च जाई करी मैं दिक्खदा था कि सारे जुआन अपणे ताँईं ऑथराइज़ गिणती च लेटराँ दा इस्तेमाल नीं करदे थे। सारेयाँ दफ्तराँ च फौजी लेटर बड़ी गिणती च इंञा ही पई रैंह्दे थे। मैं तित्थू ते दूंहीं किस्मा दे किछ लेटर चुक्की करी लई ओंदा था।
हर दिन सारियाँ बैट्रियाँ ते सेंसर कित्तेह्यो लेटर लाँस नायक कृष्ण कुमार यादव होराँ व्ह्ली आई जाँदे थे। तिसते परंत लाँस नायक यादव सारेयाँ लेटराँ जो मेरे मेजे गास रखी दिंदे थे। मैं यूनिट दे एडजुटेंट ते सेंसर दी मोहर लैंदा कनै तिसा जो तिन्हाँ सारेयाँ लेटराँ उप्पर इक तय जगह पर लगायी दिंदा था। मेरा कम्म होई जाणे ते परंत डिस्पैचर तिन्हाँ लेटराँ जो चिपकाई करी, होर डाक कन्नै, फील्ड पोस्ट आफिस च पोस्ट करने ताँईं लई जाँदा था। हरे रंग दे लेटर जेह्ड़े बेस च सेंसर होंदे थे, तिन्हाँ जो लिखणे वाळे खुद ही चिपकाई करी दिंदे थे। तिन्हाँ जो यूनिट च नीं खोलया जाँदा था।
हर लेटर दे पिछले पासैं भेजणे वाळे दा नंबर, रैंक, नाँ कनै लेटर च इस्तेमाल कित्ती गयी भाषा दा नाँ लिखेह्या होंदा था। लेटर भेजणे वाळे जो कन्नै ही इक डिक्लेरेशन पर साइन करना होंदे थे जिसदा मतलब था कि तिस लेटर दे अंदर तिन्नी फौज दे बारे च कोई जाणकारी नीं लिखिह्यो है।
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समाधियों
के प्रदेश में (बतीसवीं कड़ी)
लुम्पो प्रवास के दौरान जैसे ही संध्या के समय, हेड क्लर्क साहब ऑफिस से निकलते, हम भी अपनी-अपनी मेजों में पड़ी फाइलों को समेट कर अपने उस रहने के कमरे में चले जाते थे। वहाँ हमारी एक नियमित दिनचर्या हुआ करती थी जिसके सभी अभ्यस्त हो चुके थे। मैं, एक हवलदार के रूप में, उस कमरे में रहने वाला सबसे वरिष्ठ सैनिक था। जैसे ही मैं अपने बूट उतारता लाँस नायक कृष्ण कुमार यादव चुपचाप, आधे तक कटे टिन के कनस्तर में गर्म पानी डाल कर मेरी चारपाई के सामने रख देते। मैं अपने हाथ-पैर गर्म पानी से सेक कर और अच्छी तरह से तौलिए के साथ पोंछ कर चारपाई पर बैठ जाता और अपनी पत्नी को पत्र लिखना शुरू कर देता। उसी दौरान शेष सभी जवान बारी-बारी, पानी बदल-बदल कर, अपने-अपने हाथ-पैर सेक लेते थे। लाँस नायक यादव, दो नंबर का निप्पल लगे, बड़े से बर्नर वाले केरोसीन स्टोव पर कनस्तर में पानी गर्म करके रखते थे।
जैसे ही मैं पत्र लिखने बैठता, लाँस नायक यादव नाप कर एक-एक पेग अर्थात् साठ मिलीलीटर व्हिस्की, ब्राँडी अथवा रम में से जो भी उस समय उपलब्ध होता, सभी के गिलासों में डाल कर सामने रख देते थे। तत्पश्चात वे उसमें गुनगना पानी मिला देते थे। उन्हें पता होता था किसके गिलास में कितना पानी डालना है। मैं पत्र लिखते समय बीच-बीच में चुस्की लगता रहता। कुछ देर में पत्र समाप्त हो जाता और गिलास भी खाली हो जाता। जैसे ही मैं पत्र को बंद करके चिपका देता, वे प्लेटों में गर्मागर्म खाना परोस देते थे।
मैं तकरीबन डेढ़ साल तक अरुणाचल प्रदेश के तवाँग जिले में स्थित लुम्पो में रहा था। उन दिनों आजकल की तरह मोबाइल का जमाना नहीं था। वहाँ से मैं अपनी धर्मपत्नी को हर दिन एक पत्र लिखा करता था। उस समय मेरी धर्मपत्नी हिमाचल प्रदेश के हमीरपुर में रहती थीं जहाँ मेरे दोनों बच्चे केंद्रीय विद्यालय में पढ़ा करते थे।
मैं तो वहाँ से प्रतिदिन एक पत्र लिखता था परंतु मेरी पत्नी को कई-कई दिनों तक मेरा कोई भी पत्र नहीं मिलता था और किसी-किसी दिन तो उन्हें पांच-छह पत्र एक साथ ही मिल जाते थे। मेरे पत्रों का क्रम जानने के लिए मेरी धर्मपत्नी को पहले सभी पत्र खोलने पड़ते थे फिर वे उन के अंदर लिखी तिथियों के आधार पर उन्हें क्रमबद्ध कर के पढ़तीं तब जाकर कहीं बात बनती थी। जब मेरी धर्मपत्नी ने मुझे अपनी इस समस्या से अवगत कराया तो मैंने अपने हर पत्र के बाहर एक कोने में पत्र संख्या लिखना आरंभ कर दी। जिससे उन्हें पत्रों को क्रमबद्ध करने में सुविधा होने लगी। जिस दिन मेरे पत्र मिलते थे मेरी धर्मपत्नी उसी दिन उनका जवाब लिख कर दूसरे दिन उसे 'लैटर बॉक्स' में डाल देती थीं। मैंने अपनी धर्मपत्नी को बता रखा था कि मेरा पत्र मिले या न मिले, उन्हें हर रविवार को मुझे हर हालत में पत्र लिखना ही लिखना है। इस बात का वे हमेशा अक्षरशः पालन करती रही थीं।
उन दिनों अग्रिम स्थानों पर तैनात सैनिकों को हर महीने आठ अंतर्देशीय सैनिक पत्र निःशुल्क मिला करते थे। उनमें चार पत्र लाल रंग के और चार पत्र हरे रंग के होते थे। लाल रंग के पत्र यूनिट में सेंसर होते थे जब कि हरे रंग के पत्र बेस में सेंसर होते थे। अपनी पलटन के लिए उन पत्रों की आपूर्ति हेतु फील्ड पोस्ट ऑफिस को हर महीने मांगपत्र भेजना मेरी जिम्मेदारी में शामिल था। मैं नियमानुसार हर महीने के लिए, पिछले महीने के अंतिम दिन पलटन में उपस्थित सैनिकों की संख्या के आधार पर, मांग पत्र भेज कर उन पत्रों को प्राप्त करता था और चारों बैट्रियों के कार्यालयों में उनके जवानों को वितरित करने के लिए भेज देता था। पत्रों को सेंसर करने के लिए हर बैट्री से अधिकृत अधिकारियों (अफसर व जेसीओ) के नाम यूनिट के भाग-1 आदेशों में प्रकाशित होते थे।
समय-समय पर बैट्री कार्यालयों में जा कर मैंने देखा था कि सभी जवान अपने लिए अधिकृत संख्या में पत्रों का प्रयोग नहीं करते थे। सभी कार्यालयों में सैनिक पत्र काफी मात्रा में यूं ही पड़े रहते थे। मैं वहाँ से दोनों प्रकार के कुछ पत्र उठा कर ले आता था।
प्रतिदिन सभी बैट्रियों से सेंसर किये हुए पत्र लाँस नायक कृष्ण कुमार यादव के पास पहुंच जाते थे। उसके बाद लाँस नायक यादव सभी पत्रों को मेरे टेबल पर लाकर रख देते थे। मैं यूनिट के एडजुटेंट से सेंसर की मोहर लेता और उसे उन सभी पत्रों पर निर्धारित स्थान पर लगा देता था। मेरा काम हो जाने के उपराँत डिस्पैचर उन पत्रों को चिपका कर अन्य डाक के साथ फील्ड पोस्ट आफिस में पोस्ट करने के लिए ले जाता था। हरे रंग के पत्र, जो बेस में सेंसर होते थे, उन्हें लिखने वाले स्वयं ही चिपका कर देते थे। उन्हें यूनिट में नहीं खोला जाता था।
हर पत्र की पिछली तरफ प्रेषक का नंबर, रैंक, नाम और पत्र में प्रयुक्त भाषा का नाम लिखा हुआ होता था। प्रेषक को साथ ही छपी एक घोषणा पर भी हस्ताक्षर करने होते थे जिसका आशय यह होता था कि अपने उस पत्र के अंदर उसने सेना से संबंधित कोई जानकारी नहीं लिखी है।
बहुत सुन्दर गाथा का सृजन। आदरणीय मंडोत्रा जी बधाई के पात्र हैं।
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Deleteआपका नाम भी पताचल जाता तो आनंद और बढ़ जाता।
Deleteहार्दिक धन्यवाद आभार जी।
ReplyDeleteभाई भगत राम मंडोत्रा जी को हार्दिक बधाई
ReplyDeleteद्विजेन्द्र 'द्विज' जी, हार्दिक धन्यवाद आभार।
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