पहाड़ी भाषा दी नौई चेतना .

Monday, May 16, 2022

द्वैत भाव से सनी कविताएं

 


कुशल कुमार होरां दा द्विभाषी कविता संग्रह लेखकां पाठकां गैं पूजणा लग्गा है कनै इस पर गल बात सुरू होई है। अजकला सोशल मीडिया पर प्रतिक्रिया फटाफट मिली जांदी। किछ किद गल्लां कताबां जो छूंह्दियां जांदियां, किछ टिकी नै जरा डुग्घी गलबात करी लैंदे। एह् दहह्ई टिकुआं गल आशुतोष गुलेरी होरां कीती है। जिआं कताब दूंह् भाषां च है, तिआं इसा समीक्षा च भी पहाड़ी हिंदी दी गंगा जमुना दियां धारां बक्खो-बखिया बगा दियां। (उप्परला फोटो द्विजेंद्र द्विज होरां खिंजेया) 

  

इन्सान के चेहरे पर शिकन हो तो कारण दो ही हो सकते हैं। या तो अंदर लावा है, या फिर इन्सान लावे के अंदर। 

इन्सानी लावा भी बड़ी किस्मों का हो सकता है। एक लावा वो जो अपनी ही हसरतों के आगे मजबूर होकर हमारे अंदर सुलगता है। दूसरे लावे का मिजाज बेशक अलग है। 

वो दूसरा लावा सुलगता है हालात का बदहवास मंजर देखकर। इस किस्म का लावा बहुत कम लोगों के भीतर सुलगता है। पर वो कहते हैं न कि चिंगारी एक भी हो तो वो भी जंगल को शिद्दत से सुलगा सकती है। 

जयसिंहपुर छोटा कस्बा नहीं है। कांगड़ा जनपद की इस तहसील में लाहट नामक एक गांव है। वैसे आग की लपट के लिए भी पहाड़ी-कांगड़ी भाषा में ला'ट शब्द अक्सर सुना जाता है। ऐसे लाहट ग्राम की ही एक लपट बड़ी कुशलता से अपनी वेदना को कुमार लहजे में समेटे इन्सानी जंगलात में सोए हुए पखेरुओं को उनकी चिरनिद्रा से जगाने हेतु शब्दों की लपटों का सेक लगाने को प्रयासरत है। 

प्यार से बस्ती यह दुनिया

तो कुछ और ही होनी थी

समंदर लांघ कोई आता भी

तो बंदूक लेकर नहीं आता

सोहणी महिवाल ने भी लांघी थी चनाब...”

कुशल के सीने में दर्द पलता है। उसके दिल से टपकता हुआ वो दर्द जब काग़ज़ पर उतरता है तो पढ़ने वाले का दिमाग मोम बनकर आंखों से बह निकले तो हैरानी न होगी। इसलिए पहले कहा कि कुशल के शब्दों में ताप है। एक ला'ट है जो समाज में जागृति का अलख जगाना चाहती है। हम बात कर रहे हैं कुशल कुमार के सद्यप्रकाशित द्विभाषी काव्य संग्रह मुठ भर अंबर की। 

दो भाषाओं में सृजित इस द्विभाषी कथ्य को मैं दो भिन्न कोणों से देखता हूँ। एक कोण वो है जहाँ से कुशल हिमाचल को देखता है। देखता दूर से है। मगर महसूस पास से करता है। हिमाचल से होकर भी हिमाचल उसके पास नहीं। उसके अंदर पहाड़ की अनुवांशिकता तो है। मगर मुंबई की चारदीवारी ने पहाड़ के खुलेपन और उसकी मुक्त हवा को कुशल से दूर रखा है। इसलिए उसे पहाड़ का दर्द सालता है। 

पारदर्शी होणे दा मतलब है

किछ भी नीं होणा

कैंह् कि पारदर्शी

लोकां दियां हाक्खीं च

कोई जगह नीं घेरदा...”

पारदर्शी लोकां दियां हाक्खीं च जगह बशक न घेरै, अपण पारदर्शी लोकां दियां हाक्खां च रड़क जरूर पाई सकदा। और यही कारण है कि पारदर्शी कुशल जब हिमाचल के लोगों को पहाड़ी बोलने की कसमें सुनाता है तो सुनने वाले खीज कर सोच सकते हैं कि 'बड़ी बेद्दण लगियो तां आई ने बैठ, कनैं कर म्हाचलिया दा झंडा बुलंद। 

एक लेखक जो कर सकता है, कुशल ने उससे तो थोड़ा अधिक ही किया है। क्योंकि इस संग्रह में स्वरचित हिमाचली पहाड़ी कविताओं का समांतर अनुवाद स्वयं लेखक के द्वारा किया गया है। पाठकों को यह निश्चित ही रुचिकर लगेगा। 

इस प्रयास को मैं सराहनीय इसलिए भी कहूंगा कि अनुवाद प्रक्रिया में लेखक ने भावनात्मक अनुभूति का किंचित मात्र लोप, जैसा अक्सर हो जाता है, नहीं होने दिया है। 

दूसरे दृष्टिकोण से मुझे कुशल की अभिव्यक्ति में द्वैत भाव नजर आता है। इसे मैं द्विभाषी कथ्य कहता हूँ। जब पीड़ा अपनी पराकाष्ठा पर हो, और हमें सहनशीलता का परिचय देना पड़े, तो हमारी अनुभूति और अभिव्यक्ति में एक कष्टप्रद किंतु विवशता से उपजा अंतर साफ झलकने लगता है। 

तेरी आंखों पर

धर्म वाली पट्टी नहीं होती कसाब

तो जिनको तूने मारा

उनमें तुझे अपने अम्मी-अब्बा

बहन-भाई सब नजर आने थे...”

इन शब्दों की तह में कोई एक धर्म नहीं छिपा। और न तो कोई एक कसाब की बात कुशल कहता है। कस्बों में छिपे अनेकों धर्मांध कसाई हो रहे हैं। कुशल उन सबकी तनकीद करता है। कथ्य में द्विविधता केवल प्रच्छन्न है। कहना दो चाहता है, मगर बिंब एक घड़ता है। 

सबनां जो पता है ठीक नीं है

किछ भी ठीक नई है

क्या ठीक है क्या होणा चाह्यी दा

एह् बी कुसी जो पता नीं है...”

यहाँ भी दो कथ्य हैं। मैं समझदा कि कुशल गुह्जमारु है। डोल चारें गलाया कि 'सबनां जो पता है।' पर जेकर पता है कि सब किछ ठीक नीं है, तां खस्मो किछ करदे कैंह्नी? इसलिए कुशलतापूर्वक कहकर चुपचाप निकल लेता है कि किसी को नहीं पता कि ठीक क्या होना चाहिए! असल बात तो यह है कि ठीक कैसे होगा, यह कोई नहीं जानता। 

कुशल की कविताओं में कुशल का द्वंद्व मुखर है। कुशल चिंतक है। और उसकी चिंता उसकी कविताओं में बहती है। कुशल सब ठीक देखना चाहता है, पर सब ठीक कर देने जैसी कुशलता किसके पास है? 

विद्रोह जब भाषाई विनम्रता ओढ़ ले तो कुशल की कविता हो जाता है। इसलिए इन कविताओं को मैं द्वैत भाव से सनी कविताएं कह रहा हूँ। द्विभाषी कथ्य कहने का भी यही अभिप्राय है। 

इस पुस्तक का बेहद सकारात्मक पक्ष यह है कि कथन में स्पष्टता है। अभिव्यक्ति सहज है। शब्द विन्यास भी अधिकांश पूर्णता में समाहित है। सटीक प्रतीकों का प्रयोग है – 

“पेड़ मिले/ छांव नहीं मिली.... कुएं मिले/ पानी नहीं मिला...”

विचारों को झकझोर कर मंथन हेतु विवश कर देने योग्य ऐसे अनेक प्रतीकों एवं बिंबों से सज्ज कुल बावन कविताओं के संग्रह को 'बोधि प्रकाशन', जयपुर ने प्रकाशित किया है। 

आवरण सज्जा बहुआयामी तथा आकर्षक है। और जैसा मैंने पहले कहा, आवरण में भी कुशल का द्वैत भाव ही परिलक्षित होता है। 211 पृष्ठों में समाहित 'मुठ भर अंबर' की कविताएं आपके दर्शन को एक दूसरा दृष्टिकोण अवश्य प्रदान करेंगी। 

मुद्रण और संपादन बेहतरीन है। खुली कविता के बेहतरीन कवि अनूप सेठी एवं शब्दों के काश्तकार, नवनीत शर्मा  की भूमिकाओं के स्नेह से सना 'मुठ भर अंबर', साहित्यार्णव की एक विस्तारशील उपलब्धि। अवश्य पढ़ें। 


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