जे. स्वामीनाथन |
चंद्रेश्वर होरां दियां पंज मूल भोजपुरी कवतां पेश हन।
एह् हिंदिया च भी चंद्रेश्वर होरां ही लिखियां।
इन्हां दा पहाड़ी अनुवाद ग़ज़लकार द्विजेंद्र द्विज होरां कीतेया है।
चंद्रेश्वर दियाँ पंज कवतां 1 एह् क्या ऐ
एह् पिछळिया बरिया फगुणैह्टा च ई घोळ्या था जैह्र् डरे नै लोक समाई रैह् अप-अपणेयाँ घराँ च
थाळी बज्जी दिया बळ्या जैकारा लग्गा भार्त माता दा
मूह्यें पर लग्गे छिकड़े भुल्ले सब दिखणा सुपने
बंद होया मलाणा हत्थ चाणचक्क सोशल डिस्टेंसिग च खज्जळ होया जीणा सभनीं दा
बाकी अज्जा तिकर पता नीं लग्गा एह् क्या ऐ कुण ऐ क्देह्या ऐ सगुण ऐ जाँ निर्गुण ऐ
जीब है जाँ जड़ ऐ चेतन ऐ जाँ अचेतन ऐ जाँ है ई नीं किछ भी! 🔘 |
चंद्रेश्वर की पाँच कविताएँ 1 ये क्या है
ये पिछली बार फगुनहट में ही घोला था ज़हर डर से लोग समाए रहे अपने-अपने घरों में
थरिया बजा दीया जला जयकारा लगा भारत माता का
मुँह पर लगा जाब भूले सब देखना ख़्वाब
बंद हुआ मिलाना हाथ तपाक से सोशल डिस्टेंसिंग में नष्ट हुआ जीवन सबका
बाक़ी आज तक पता न चला ये क्या है कौन है कैसा है सगुन है कि निर्गुण है
जीव है कि जड़ है चेतन है कि अचेतन है कि हइए नहीं है किछु ! 🔘 |
चंद्रेश्वर के पाँच गो भोजपुरी कविता 1 ई का ह ई पिछला बेर फगुनहटे में घोरले रहे ज़हर डरे लोग समाइल रहे आपन-आपन घर में
थरिया बाजल दीया जरल जयकारा लागल भारत माता के
मुँह प लागल जाब भूलल सभे देखल ख़्वाब
बंद भइल मिलावल हाथ तपाक से सोशल डिस्टेंसिंग में भरभंड भइल जिनगी सभकर
बाकिर आजु ले पता न चलल ई का ह के ह कइसन ह सगुन ह कि निरगुन ह जीव ह कि जड़ ह चेतन ह कि अचेतन ह कि हइए ना ह किछु ! 🔘 |
2 लापता सूरज
ऐह् पाणी बेपाणी ऐ इसनैं कुण चकाह्ँगा धर्याअ कुण न्होंगा मळी मळी नैं सरीरे छपैं-छप इस च ताँ घुळी गेह्या आर्सनिक
होआ च साह् लैणा मुस्कल है लाणा जुह्म्मी गंगा, सरजू कने ताप्ती च ताँ होर भी मुस्कल
घाट्टे पर सुआळ ऐ गोड्यां च भरोया बात जिस दी नीं ऐ कोई दुआई खबनीं कू ऐ गसाईं
गुआच्ची गेह्या असाँ दा सूर्ज द्पैह्राँ ई! 🔘 |
2 लापता सूरज
ये पानी बेपानी है इससे प्यास कौन बुझायेगा इससे कौन नहायेगा मल-मल कर देह छपाक-छपाक कर इसमें तो फैल गया है आर्सेनिक हवा में साँस लेना कठिन है गंगा, सरजू और राप्ती में मारना डुबकी तो और भी कठिन है
घाट पर काई है ठेहुना में बाई है ना इसकी दवाई है साँईं का कहीं पता नहीं है
लापता है हमारा सूरज दुपहरिया में ही ! 🔘 |
2 लापता सूरज
ई पानी बेपानी बा एकरा से के पियास बुझाई एह से के नहाई मलि-मलि के देह एकरा में मिलल बा आर्सेनिक
हवा में साँस लिहल कठिन बा गंगा, सरजू आ राप्ती में मारल डुबकी कठिन बा
घाट प काई बा ठेहुना में बाई बा ना एकर दवाई बा साँईं के कतो नइखे अता-पता
लापता बा हमार सूरज दुपहरिये में ! 🔘 |
3 करोना
रंग कुण खेह्लगा भरी -भरी पचकारी गुलाल कुण लाह्ँगा चुटकिया च लई नैं अबीर कुण उड़ाह्ँगा मुठ्ठीं च बट्टी नैं हथ कुण मलाँह्गा गळैं कुण मिह्लगा
हर बखैं रह्चेया कैह्र् कनैं डर बणी नैं फूक्केया करोन्ना ! 🔘 |
3 कोरोना
रंग कौन खेलेगा भर-भर पिचकारी गुलाल कौन लगायेगा चुटकी में लेकर अबीर कौन उड़ायेगा मुट्ठी बाँधकर हाथ कौन मिलायेगा गले कौन लगेगा
सब जगह तो समाया हुआ कहर और डर बनकर ससुरा कोरोना ! 🔘 |
3 कोरोना
रंग के खेली गुलाल के लगाई
अबीर के उड़ाई
हाथ के मिलाई
गला से के मिली
सगरो त समाइल बा ससुरा कहर आ डर बनि के कोरोना ! 🔘 |
4 कुसा डाळी पर कोइल
अंबाँ महुआ दे उजड़ी गै सभ बाग बगीच्चे कुसा डाळी पर बेह्यी नैं कूह्क्गी कोइल पँजुयें सुरे च
कुण गाह्ँगा फग्गण कनैं चैत लाई नै थिह्याळी भर छिकड़ा मूँह्यें पर
कुण् बजाह्ँगा झाल ढोलकी कनै ढफ
बोल कुण कढाह्ँगा फगणे कनै चैत्तरे दा
तिवारी बाब्बा रैह् नीं तिह्नाँ दा जाग्त पराये परदेस्से च बोम्बे ग्रायें दा घर ढेह्यी- ढिह्याई
गेह्या शैह्र् क्या सच्चैं ई बस्सेया! 🔘 |
4 किस डाल पर कोयल
आम-महुआ के उजड़ गए सब बाग़-बगइचा किस डाल पर बैठकर कूकेगी कोयल पंचम सुर में
कौन गायेगा फाग और चैता बित्ता भर का मास्क डालकर मुँह पर
कौन बजायेगा झाल ढोलक और डंफ
बोल कौन कढ़ायेगा फाग और चैता का
तिवारी बाबा अब नहीं रहे उनके बबुआ पराए परदेस बंबई गाँव का घर ढह-ढिमिला गया शहर साँच क्या तो आबाद हुआ ! 🔘 |
4 केवना डाढ़ि प कोइलर
आम-महुआ के उजरि गइल सउँसे बगइचवे केवना डाढ़ि प बइठि बोलिहें कोइलर
के गाई फाग आ चइता बीता भर के मास्क बान्हि के मुँह प
के बजाई झाल ढोलक आ डंफ
बोल के कढ़ाई फाग आ चइता के
तिवारी बाबा ना रहि गइलन उन्हुकर बबुआ परइलन बंबई परदेस गाँव के घर ढहि -ढिमिला गइल शहर साँचो का त आबाद भइल ! 🔘 |
5. जीणे दा ढब
प्रेम्मे दी डोरी टुटी गई पियारे दा धागा मणका टुटी गेया दुनिया दा बह्न्न कसोई गेया ईह्याँ ई
इसा उमरी च् भी नीं आया जीणे दा ढब खाई लया लह्सरोट गफळ-गफळ पचदी है ताँ पचाअ नीं ता मूह्यें मराअ ! 🔘 |
5. जीने का ढब
पिरीत का डोर टूट गया नेह -नाता टूट गया भवबंधन कस गया बेमतलब
इस उमिर में भी नहीं आया जीने का ढब काँच रोटी खा लिया गब-गब पचे तो पचाइए ना त मुँह मराइए ! 🔘 |
5. जिए के ढब ना आइल
पिरीत के डोर टूट गइल नेह नाता टूट गइल भवबंधन कसि गइल बेमतलब
एहू उमिर में ना आइल जिए के ढब काँचे रोटी खा लिहल गब-गब पचे त पचाव ना त मुँह मराव ! 🔘 |
हिंदी भोजपुरी कवि लेखक चंद्रेश्वर |
बढ़िया।
ReplyDeleteबधाई।
धनबाद भाई जी
Deleteधनबाद भाई जी
Deleteमेरी भोजपुरी कविताओं का हिमाचली में इतना सुंदर अनुवाद करने के लिए कवि-लेखक द्विजेन्द्र द्विज का आभारी हूँ |
ReplyDeleteसादर आभार। अनुवाद पसंद आया आपको। मेरा सौभाग्य। आपकी कविताएं भी बहुत बढ़िया हैं। आदरणीय भाई अनूप सेठी साहब की प्रेरणा से ही मैं यह अनुवाद कर पाया।
Deleteसर सादर प्रणाम,, एक ही कविता को तीन रूपों में देखकर आपकी विलक्षण विद्वता को नमन करता हूं,
ReplyDeleteवाह। बहुत सुन्दर। हिन्दी ही नहीं, तीन रूपों में कविता का आस्वादन।
ReplyDeleteचन्द्रेश्वर जी की रचनाओं में अनेक रंग हैं जो पाठकों को झकझोरते हैं।
ReplyDeleteयह भी अच्छा अनुभव रहा। भोजपुरी और हिमाचली में लोक भाषा की लोच है। चंद्रेश्वर जी ने अपने काव्य अनुभव को हिंदी में ढाला और द्विजेंद्र जी ने उसे अपनी भाषा के मुहावरे में पुन: सिरज दिया। और सच में ही कविता का त्रिरूप भी मोहक है। दोनों मित्रों का आभार।
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