पहाड़ी भाषा दी नौई चेतना .

Friday, October 25, 2024

मुंबई डायरी

 


अपणिया जगह छड्डी लोक मुंबई पूजे। न अपणे ग्रां भुल्ले, न शहर छुट्या। जिंदगी पचांह् जो भी खिंजदी  रैंह्दी कनै गांह् जो भी बदधी रैंह्दी। पता नीं एह् रस्साकस्सी है या डायरी। कवि अनुवादक कुशल कुमार दी मुंबई डायरी दी त्री किस्त पढ़ा पहाड़ी कनै हिंदी च सौगी सौगी। 

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सारेयां दी क्हाणी इक्क ई थी  


पहाड़ी बोलणे कनैं होणे दा एह् कठेवा इक जरूरत भी था। तैह्ड़ी सारे ही लोग अपणियां-अपणियां भासां च गल करदे थे। सारयां ताईं हिंदी बोलणा सैह्ज नीं था। बोलणे आळे दिया हिंदिया ते तिस दिया बोलिया-भासा ता पता लगी जांदा था। ग्रां ते ओणे वाळे बजुरगां कनैं याण्‍यां ताईं एैत्‍थु भासा नैं तार जोड़ने च बड़ी मुश्‍कल होंदी थी। ग्रांए ते आईयो इक कुड़ी बसुआर मंगी जाए। दकानदारें मिंजो हक पाई ता तिसा जो बसुआर मिल्ला। सैह् दकानदार इसा गल्ला ताईं कई दिनां तक हसदा रिह्या। तिसदा गुजराती लैहजे च बसुआर गलाणा भी मजेदार लगदा था। 

अंग्रेजिया दा रौब ता था पर सैह् देसे दियां देसी भासां ते बडि़यां उम्‍मीदां दा दौर था। मु्ंबई नगरपालिका दे हिंदी स्‍कूले च मिंजो कनै तेलगू, उडि़या कनैं गोआ दे कोंकणी भासी बच्‍चे भी पढ़ा दे थे। देसे जो अजाद होयो मुश्‍कला ने बीह् साल होयो थे। महात्‍मा गांधी जी दे बचार कनै भासा प्रेम लोकां जो रस्‍ता दस्‍सा  दा था। लोकां जो लगदा था ओणे आळा वग्‍त हिंदी कनैं देसी भासां दा है। एह् लग गल है कि इस बैह्मे ते मुक्‍त होणे ताईं जादा टेम नीं लग्गा। 

अपणे पहाड़ी भाऊ जादातर टैक्सियां ही चलांदे थे। मिल्लां च कनै दुईयां नौकरियां करने वाले बड़े घट लोक थे। टैक्सियां चलाणे वाळयां च त्रे किस्‍मां थियां। इक टैक्सी मालक, दुअे बगानी टेक्‍सी चलाणे वाळे कनैं त्रिए टैक्सियां धोई ने टेक्‍सी डरेबर बणने दी ट्रेनिंग लैणे वाळे। राती जो डरेबरां दा खाणा बणाणा भी ट्रेनिंगा दा हिस्‍सा था।

इकी-इकी खोळिया (कमरे) च पंज-पंज, सत-सत रैंह्दे थे। कोई नितनीम नीं, अपणे साह्बे ने गड्डी कडणे कनैं बंद करने दी अजादी थी। मेरे बक्‍खें छड़े रैंह्दे थे। तिन्‍हां दा ता ऐह् हाल था कि सारे भांडे चळे च ही रैंह्दे थे। जिस भांडे दी जरूरत पौंदी थी तिस जो मांजी ने कम्‍म चलाई लैंदे थे। टैक्‍सी मालक कनैं फिक्‍स टैक्सी चलाणे आळयां जो ता फिरी भी फिकर होंदी थी। 

दुअे डरेबरां दिया छुट्टिया ध्‍याड़ी तिसदी गड्डी चलाणे आळे पतरकारां, लखारियां, कलाकारां साही फ्रीलांस होंदे थे। इन्‍हां जो इक दिन पैह्लें साई देई नैं बुक करना पोंदा था। चा:ई दी दुकान इन्‍हां सारयां दा अड्डा होंदा था तित्‍थू भ्‍यागा-भ्‍यागा सारे चा:ई दे बहानें कठरोंदे थे। जेह्ड़ा राती साई देणा भुली गिया होए सैह् ताह्लू चाबी पकड़ाई छुट्टी करी लैंदा था। 

इक साह्ब थे तिन्‍हां दा नां याद नीं ओआ दा। सैह् सारिया मुंबई दे पहाड़ियां च ठाकरे दे नाएं ते मशहूर थे। तिन्‍हां दी भासा कनैं गलबात करने दा तरीका ठाकरी था। सैह् छे बजे ते पैह्लें तयार होई ने चा:ई दिया दुकाना पूजी जांदे थे। इक घंटा इंतजार करने ते बाद सैह् नोटांक (पेग) चढ़ाई लेंदे थे। फिह्री तिन्‍हां जो कोई गड्डी चलाणे ताईं नीं पुच्छी सकदा था। पुछणे आळे दी ठाकरी क्‍लास लगी जांदी थी। एह् कोई टैम है, गलाणे दा, राती क्‍या होया था। अब अपण ने छुट्टी कर लई है…….. 

जिन्‍हां दी गड्डी पटरिया पर थी सैह् ठीक थे। कुछ लोकां दा ता ऐह् हाल था कि दो-तिन दिन कमाणा कनैं चार दिन ताश कुटणी कनैं पीणा। ताश कनैं पीणे च ता लगभग सारे ही शामल थे पर जेह्ड़े राती जो पींदे थे। तिन्‍हां दी किश्‍ती ता फिरी भी तरा दी थी। जिन्‍हां जो राती दिने दा भान ही नीं था। तिन्‍हां दा ता बेड़ा पार ही था। एह् देह्ये इक दो ही होंदे थे। 

ताशा दी मैह्फिल छड़यां दिया खोळिया च भ्‍यागा ही सजी जांदी थी। राती 8 पीएम वाळी घंटी बजणे तक चलदी रैंह्दी थी। सैह् ताशा च रमिया ने मिलदा-जुलदी सीप खेलदे थे। मैं जादातर पहाड़िए ही इस खेला जो खेलदे दिक्‍खे। इस जो पैसयां लाई जुअे साही भी खेली सकदे कनैं बगैर पैसयां ते भी। खेलणे आळयां सौग्‍गी दिक्‍खणे आळयां जो भी मजा ओंदा था। एह् डरेबर भाऊ जादातर चा:ई दी बाजी लांदे थे। खेलणे कनैं दिक्‍खणे आळे बदलोंदे रैह्दें थे पर चाह कनैं गप-गड़ोंजयां दी मैह्फिल चलदी रैंह्दी थी। 

गलांदे न ताश करे सत्‍यानाश। सीपा खेलणे वाळे गलांदे थे हारणे वाळे पर खोती होई गई। इत कई माह्णुआं दियां जिंदगिया पर खोती होई गई। दिन ताश कुटणे च बीती जांदा था राती नौशादरे वाळी गैरकानूनी दारु। होशा ताईं टेम ही नीं था। 

होर जादा मनोरंजन नीं थे। एह् दोह्यो व्‍यसनी-एडीक्‍ट बणाणे वाळे थे। ऊपरे ते दिहाड़ियां वाळा टैक्‍सी चलाणे दा रोजगार। दिहाड़ी भले ही ठीक थी पर लगणा ता चाही दी। न फंड-बोनस, न छुट्टी-रिटायरमेंट, न मेडिकल, न बीमा। रोज खूह् खुणना, रोज पाणी पीणा। जे बमारी-समारी लम्‍मी होई जाए ता न खांदया खाण न मंजे बाण वाळा हाल होई जांदा था। ताह्लू एह् पहाड़ी होणे वाळा कठेवा ही कम्‍में ओदा था। 

हालातां ते न्‍हट्ठी नैं मुंह लकाणे वाळी लापरवाही सोच दा हिस्‍सा थी। घह्रें भेजणे जोगी कमाई ता होई जांदी थी पर ग्रांए जो जाणे मुजब पैसे नीं कठरोंदे थे। इह्यां टेम बीतता रैह्ंदा था। मेरे बक्‍खें इक भाई रैंह्दे थे। काफी तेज थे, मिल्ला च यूनीयन लीडरी, गोआ ते सोना अणने दी फेल कोशश हारी-फारी टैक्‍सी डरेबरी। तिन्‍हां दी माता जी इन्‍हां जो मुल्‍खें नी नै ब्‍याह करने ताईं दो बरी आए। पैह्ली बरी इन्‍हा गप्‍पां च टाळी ने माता जी भेजी ते अप्‍पू नीं गै। माता जी जबरदस्तिया नैं ही  इन्‍हां दा ब्‍याह होया। हुण एह् अपणे टबरे सौग्‍गी हिमाचल च रैहा दे। 

ओपरिया नजरां नैं दिक्‍खिए ता इक मस्‍ती थी। रोज पैसे ओंदे, रोज मुकी जांदे पर जिंदगी रामे नै चलदी थी। कोई परबंध नी, बचत नीं। जिन्‍हां टबर मुंबई लई अंदे तिन्‍हां दा इक अध खोळिया दा जुगाड़ होई गिया। छड़यां ते एह् बी नीं होई सकया। किरदार मते थे पर सारयां दी क्‍हाणी इक ही थी।  



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हर एक की कहानी एक ही थी    

पहाड़ी बोलने और होने का यह भाईचारा एक जरूरत भी था। तब सभी लोग अपनी-अपनी भाषा में ही बात करते थे। सब के लिए हिंदी बोलना सहज नहीं था। बोलने वाले की हिंदी से उस की बोली-भाषा का पता चल जाता था। गांव से आने वाले बुर्जगों और बच्‍चों को यहां की भाषा से तार जोड़ने में बड़ी मुश्किल होती थी। गांव से आई एक लड़की बसुआर मांग रही थी। दुकानदार ने मुझे आवाज दी तब उसे हल्‍दी मिली। व‍ह दुकान वाला कई दिन तक इस बात पर हंसता रहा। उसके गुजराती लहजे में बसुआर बोलना भी मजेदार लगता था। 

अंग्रेजी का रुतबा तो था पर वह देश की देसी भाषाओं से बड़ी उम्‍मीदों का दौर था। मु्ंबई नगरपालिका के हिंदी स्‍कूल में मेरे साथ तेलगू, उड़िया और गोआ के कोंकणी भाषी बच्‍चे भी पढ़ रहे थे। देश को आजाद हुए मुश्किल से बीस साल हुए थे। महात्‍मा गांधी जी के विचार और भाषा प्रेम लोगों को रास्‍ता दिखा रहा था। लोगों को लगता था आने वाला समय हिंदी और देसी भाषाओं का है। यह अलग बात है कि इस बहम से मुक्‍त होने में ज्‍यादा समय नहीं लगा। 

अपने पहाड़ी भाई ज्‍यादातर टैक्सियां ही चलाते थे। मिलों में और दूसरी नौकरी करने वाले बहुत कम  लोग थे। टैक्सियां चलाने वालों में तीन तरह के लोग थे। एक टैक्‍सी मालिक, दूसरे कमीशन पर टैक्‍सी चलाने वाले और तीसरे टैक्सियां धो कर टेक्‍सी ड्राईवर बनने का प्रशिक्षण लेने वाले। रात को ड्राईवरों का खाना बनाना भी इनके प्रशिक्षण का हिस्‍सा था। 

एक-एक खोली में पांच-पांच, सात-सात रहते थे। कोई नियम नहीं, अपने समय और अपने हिसाब से टैक्‍सी निकालने और बंद करने की आजादी थी। मेरे पड़ोस में छड़क रहते थे। उनका यह हाल था कि सारे बर्तन मोरी में ही रहते थे। जिस बर्तन की जरूरत पड़ती थी उस को मांज कर काम चला लेते थे। टैक्‍सी मालिक और फिक्‍स टैक्सी चलाने वालों को तो फिर भी फिक्र होती थी। 

दूसरे ड्राईवरों की छुट्टी के दिन उसकी टैक्‍सी चलाने वाले पत्रकारों, लेखकों, कलाकारों की तरह फ्रीलांस होते थे। इनको एक दिन पहले बुक करना पड़ता था। चाय की दुकान इनका अड्डा होता था। वहां सुबह-सुबह सब चाय के बहाने इकट्ठे होते थे। जो रात को सूचना देना भूल गया होता था वह तभी चाबी दे कर छुट्टी कर लेता था। 

एक साहब थे (उनका नाम याद नहीं आ रहा है)। वे सारी मुंबई के पहाड़ियों में ठाकर के नाम से मशहूर थे। उनकी भाषा और बात करने का तरीका ठाकरी था। वह छे बजे से पहले तैयार होकर चाय की दुकान में पहुंच जाते थे। एक घंटा इंतजार करने के बाद वे नोटांक (पेग) चढ़ा लेते थे। उसके बाद कोई उन्‍हें टैक्‍सी चलाने के लिए नहीं पूछ सकता था। पूछने वाले की ठाकरी क्‍लास लग जाती थी। यह  कोई टाईम है, बोलने का, रात को नहीं बोल सकता था। अब अपुन ने छुट्टी कर ली है…….. 

जिन की गाड़ी पटरी पर थी वे ठीक थे। कुछ लोगों का तो यह हाल था कि दो-तीन दिन कमाना और चार दिन ताश खेलनी और पीना। ताश और पीने में लगभग सारे ही शामिल थे पर जो रात को ही  पीते थे, उनकी कश्‍ती फिर भी तैर रही थी। जिन्‍हें रात दिन का होश ही नहीं था। उनका ता बेड़ा पार ही था। इसे तरह के एक दो ही लोग होते थे।

ताश की महफिल सुबह ही सज जाती थी। रात को 8 पीएम वाली घंटी बजने तक चलती रहती थी। ताश में रमी से मिलता-जुलता सीप का खेल था। मैंन ज्‍यादातर पहाड़ी लोगों को ही इसे खेलते देखा है। इसे पैसे लगा कर जुए की तरह भी खेल सकते हैं और बगैर पैसों के भी। खेलने वालों के साथ देखने वालों को भी मजा आता था। इसे ड्राईवर भाई ज्‍यादातर चाय की बाजी लगा कर खेलते थे। खिलाड़ी और दर्शक बदलते रहते पर चाय और गप्‍पबाजी की महफिल चलती रहती थी। 

कहते हैं न कि ताश करे सत्‍यानाश। सीप खेलने वाले कहते थे हारने वाले पर गधी हो गई। यहां कई जिंदगियां इस गधी गेड़ में खो गईं। दिन ताश पीटने में बीत जाता था रात नौशादर वाला गैरकानूनी दारु। होश के लिए समय ही नहीं था। 

मनोरंजन ज्‍यादा नहीं थे। यह दोनों व्‍यसनी-एडिक्‍ट बनाने वाले थे। ऊपर से टैक्‍सी चला कर दिहाड़ी लगाने वाला रोजगार। दिहाड़ी भले ही ठीक थी पर लगनी तो चाहिए। न कोई फंड-बोनस, न छुट्टी-रिटायरमेंट, न मेडिकल, न बीमा। रोज कुंआ खोदना, रोज पानी पीना। यदि बिमारी लंबी हो जाए तो खाने के भी लाले पड़ जाते थे। तब यह पहाड़ी होने की एकता ही काम आती थी। 

हालात से भाग मुंह छिपाने वाली पलायनवादी लापरवाही सोच का हिस्‍सा थी। घर में भेजने लायक  कमाई तो हो जाती थी पर गांव में जाने के लिए पैसे जुट नहीं पाते थे। ऐसे ही समय बीतता रहता  था। मेरे पड़ोस में एक रहते थे। काफी तेज थे, मिल में यूनीयन लीडरी, गोवा से सोना लाने की असफल कोशिश, हार कर टैक्‍सी ड्राईवर। इनकी माता जी इनको गांव में ले जाने के लिए दो बार आईं। पहली बार इन्‍होंने बातो में फुसला कर माता जी को वापस भेज दिया और खुद नहीं गए। आखिर माता जी की जबरदस्‍ती से इनका विवाह हुआ। वे अब अपने परिवार के साथ हिमाचल मे रहा र‍हे हैं। 

सतही तौर पर देखा जाए तो एक मस्‍ती थी। रोज पैसे आते थे, रोज खत्‍म हो जाते थे पर जिंदगी आराम से चलती थी। कोई प्रबंध नहीं, बचत नहीं। जो परिवार लेकर मु्ंबई आ गए उनका एक आध खोली का जुगाड़ हो गया। अकेलों से तो य‍ह भी नहीं हो सका। किरदार बहुत थे पर हर एक की कहानी एक ही थी। 

मुंबई में पले बढ़े कवि अनुवादक कुशल कुमार
2005-2010 तक मुंबई से हिमाचल मित्र पत्रिका का संपादन किया।
चर्चित द्विभाषी कविता संग्रह मुठ भर अंबर।


Wednesday, October 16, 2024

तूःलियां दे डजैन

 


अज मैं लैपटॉप खोल्या ता अपणे ब्लौगां च इक ब्लॉग सुज्झा गल सुणा। सन 2005 ते 2010 तक जदूं हिमाचल मित्र पत्रिका असां चलाई थी तां तिसा च मैं एह् कॉलम शुरु कीता था - गल सुणा। सारयां  जो एह् पसंद भी आया था। तां इस नांए दा ब्लॉग बणाई ता। इस च दो ई पोस्टां पइयां। फिरी एह् कुतकी औटळी गया। इस च पैह्ली पोस्ट थी - तू:लियां दा डजैन 
जरा क पढ़ी नै दिखा भला। क्या पता तुसां जो भी गल खरी ही लग्गै।  


बड़े साल पैह्लें इक दिन मैं कनै मेरा इक दोस्त इक्की हटिया च थे बैठयो। धर्मसाळा, कचैहरी अड्डे पर। तदूं हाली काफी हाउस हई नी था खुल्लेया। कालजे च पढ़दे थे। अप्पू जो कलाकार कनै इंटलैक्चुअल समझदे थे। पढ़दे, लिखदे, ड्रामयां करदे। सिगटां फूकदे। काळियां चाहीं पींदे। बैह्सां करदे। कोई बड़ी गूढ़ी गलबात थी लगियो। मेरे साह्मणें मेजे पर तूलियां दी डब्बी थी पइयो। मैं गल्लां घट कीतियां। इक्क इक्क तूली ड्ढी नै इक डिजैन बणाई पाया। तिंग-बड़िंगा। कई मंजिला। असां गल्लां छड्डी नै तिदा ई मतलब लगी पै कढणा। 

जदूं ड्रामे लई नै दुयां सैरां जो जांदे तां असां दोआ जणे रातीं यो मटरगश्ती करदे। फिरी कुतकी जाई नै बही जांदे। कोठयां पर। पैड़ियां पर। रस्तयां च। चुपचाप। गलबात नी करदे। हटी नै औंदे तां लगदा जणता बड़ियां गैरियां गल्लां करी नै आए। सारियां उआजां तां साढ़े अंदर ई बजा दियां हुंदियां। बार सिर्फ तूह्लियां दी डब्बी ई हुंदी। खिड़-खिड़ करदी। ए दोस्त हुण बी है। पर इञा राती जो अणबोलियां गल्लां करने दा मौका नी मिल्ला। कई साल होई गै। हुण तिनी बी तूह्लि‍यां दी डब्बी छडितियो। लाइटर रखी लेह्या। 

इन्हां दिनां ते होर पैलें मांमेयां दें जांदे थे तां ओथी किस्मा-किस्मा दा बालण हुंदा था। तिस च सन्याडू बी हुंदे थे। बियूळे दियां सुकियां छिटियां। चिटियां। चुत्थी-चुत्थी नै चमड़ी धेड़ी दिंदे तां निकळदियां चिटियां छिटियां। सुक्की नै एह् अंदरे ते पोलियां होई जांदियां। चुल्हे च पा तां धूं पिछले पासे ते निकळणा लगी पौंदा। छोटे हुंदेयां इन्हां सन्याडुआं दियां सिंगटां पींदे थे। तदूं असली सिगटां पीणे दी हिम्मत कुजो च थी। 

मजेदार गल है। बियूळे दियां हरियां छिटियां मास्टरां देयां हत्थां च हुंदियां थियां। अपर उपड़दियां मुंडुआं देआं हत्थां पर थियां। बुढ़ेयां जो भी पसंद हुंदियां थियां हरियां छिटियां। लप-लप करदियां। पैल्कयां मास्टरां कनै बुढ़ेयां जो झफणे दा शौक हुंदा था। बैड़ू कनै छोरू दिख्या नी कि हत्थें खुर्क लगी पौंदी थी। ब्यूळे जो इन्हां दा ई साप लग्गा होणा। ब्यूळे दियां हरियां छिटियां खड्डां, नाळुआं, चोआं च पत्थरां हेठ दब्बी दिंदे थे। छिटियां दी खल्ल फुल्ली नै ढिल्ली होई जांदी। फिरी सैही बुढ़े तिन्हां पूल्यां जो बार कड्ढी नै सपड़ां पर झफदे। ऐसा झफदे भई चमड़ी उदळी जांदी। छाला ते बणदा सैल कनै छिटी बणदी सन्याह्डू। सैला ते बणदी रस्सी। गोरी चिट्टी कनै नर्म। इस सैला नै मंजेयां भी बुणदे। ब्यूळे दा कर्मफल ई होणा। झफणा कनै झफोणा। बा भई बा। ब्यूळा तेरा भी मुकाबला नीं। पत्तर खादे डंगरेयां। मार खादी छोकरुआं। कनै सैला नै बुणेयो मंजे पर सौणा दादुएं। 

इक बगत ए बी था भई दातण बणे दी करदे थे। कदी कदी तिरमिरा बी मिली जांदा था। मरूदां, खोड़ां, नींबुआं दे पत्तेयां नै दंदा मांजिए तां बड़ी देर सुआद मुहां च रैंह्दा। खोड़ां दिया छाली दी बीड़ी कनै बंग्गां परांदुआं दे सगुन गोदां च पांदियां थियां नूहां कनै धियां। तुलसिया दे बूटे बगैर घर सुन्ना ई रैंह्दा था। पूजा करनी होऐ तां अंबां दे पत्तर। हवन करना होऐ तां अंबां दियां समधां। बेद गडणी होऐ तां केळे दे धड़। पतळां बणाणे ताईं टौरया दे पत्तर। कुसी जमाने च टौरया दे छतरोड़ू बी बणदे थे। बंझां दियां टोकरियां, डल्लां, चंगेरां, छाबड़ियां, छक्कू। खजूरां दियां पंदीं कनै बिन्ने। पुआलां दियां बंदरियां। 

पलियां, गोडां, मकानां, कोठ्यां, मैल-दुमैल्यां बणाणे ताईं तां टाली, ची, दयार सेवा च हाजर रैंह्दे ई थे। बंझ कनै ओई भी बाल लाई दिंदे थे। एह थे बड-बडे बूटे। जाली तक धरती पर खड़ोते रै, डाळुआं नै हौआ झुलांदे रैशहीद होई नै मकानां दियां थमियां कनै कड़ियां बणे। बूटेयां, रुक्खां, फुल्लां, बेलां नै स्हाड़ा खाण-पीण, खेती-बाड़ी तां चल्ली-ई-चल्ली, लोकाचार, लग्गचार भी बूटयां बगैर पूरा नीं होया। जमदेयां, पळदेयां, खांदेयां, बैंह्देयां, कमांदेयां, मरदेयां, बूटे साढ़े अंग-संग रैंदे आए। लकड़ी न होऐ तां दाह-संस्कार नी होई सकदे। 

माता दां अपणेया जायां नै बड़ा गाढ़ा कनै गूढ़ा सरबंध हुंदा ऐ। बूटे दी कुर्बानी भी घट नीं ऐ। बूटा जींद्यां जी तां साह्ड़े जन्मे ते मौता तक साथ दिंदा ई ऐ, मरी नै बी साढ़े कम्मैं ई औंदा। जे असां रुक्खे जो बड्ढी लइए तां भी तिनी कदी थम्मी, कदी सोठी, कदी पैड़ी बणी नै खड़ोई जाणा ऐ कनै जे रुक्ख अपणिया मौती मरगा तां बी तिनीं साहड़यां अगलियां पुश्तां ताईं धरत-समाधी लई लैणी। लक्खां साल पुराणे रुक्ख धरती हेठ सुत्तेयो हन। सुत्तेयो सुत्तेयो ई सै: कार्बन बणी गै। कदी सै: सांजो कोयला बणी नै सेक दिंदे, कदी हीरा बणी नै चमक। तिन्हां दा धर्म ई ऐ देणा। तिन्हां दा कर्म ई ऐ देणा। 

मेरा दिल करदा मैं घरैं औंआं तां देह्ळी पर मत्था टेकी नै कदम अंदर रखां। थमियां गैं पूजां तां तिस बूटे जो जफ्फी पाई लेयां जिनी अपणिया छातिया पर आरे दी धार झेलियो। खिड़किया ब्हाल जाई नै खड़ोआं तां तिह्दियां डाळियां च पींग पई जाऐ। मैं बड्डा झूटा लेयां कन पत्तेयां नै भरयो बूटे दे सिरे पर हत्थ फेरी औंआं। जिनीं मेरिया जिंदगिया च खिड़कियां खोलियां, तिते गैरा दोस्त होर कुण होई सकदा। मैं तूलियां दे डजैन बणां भौएं रातीं जो चुपचाप बैठां, दोस्त तां सौगी ई है। मेरे अंदर।   

Thursday, August 29, 2024

मुंबई डायरी

 


अपणिया जगह छड्डी लोक मुंबई पूजे। न अपणे ग्रां भुल्ले, न शहर छुट्या। जिंदगी पचांह् जो भी खिंजदी  रैंह्दी कनै गांह् जो भी बदधी रैंह्दी। पता नीं एह् रस्साकस्सी है या डायरी। कवि अनुवादक कुशल कुमार दी मुंबई डायरी दी दूई किस्त पढ़ा पहाड़ी कनै हिंदी च सौगी सौगी। (चित्र- सुमनिका : सॉफ्ट पेस्टल कागज पर)

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काजू बण 


मुंबई दियां चालीं च लोकां ब्‍हाल अपणियां-अपणियां खोळियां कमरे ता होंदे थे। इसते लावा लगभग सारियां सुवधां साझी तौर पर बंडणा पौंदियां थिह्यां। होर ता होर ग्रांए दिया बाईं साही पाणिये दा इक ही नळका होंदा था। एह् नलके ग्रां दियां बाईं साही लोकां दे मेलमिलाप कनै-कनैं नौकझोंक दे भी अड्डे होंदे थे। इक सोच एह् भी है कि दुनिया दी अगली बडी लड़ाई पाणिएं ताईं बी होई सकदी। एह नळके इसा गला दी गवाही दिंदे थे। चाली च रैह्णे वाला कोई बंदा कुसी ते अपणा सुख-दुख कुछ बी लुकाई नीं सकदा था। 

अजकल जिसा प्राईवेसी निजता दा फैसन है तिसा दा ता एह् हाल था कि इक्की घरे च तुड़का लगदा था  ता सारिया चाली जो पता लगी जांदा था भई क्‍या बणा दा। सारयां रिश्‍तेदारां कनैं ओणे वाळयां परौण्ह्यां जो सारे जाणदे थे। कोई नोआं तरफेन परौह्णा आई जाऐ ता सारिया चाली च ब्रेकिंग खबर बणी जांदी थी। पता नीं कुण है, नोंआ ही है, पैह्लें ता कदी दिक्‍खया नीं। कुछ देह्ये भी होंदे थे जिन्‍हां ते परोह्णे दे जाणे दा इंतजार भी करी नी होंदा था। परोह्णे पचांह्-पचांह् पूजी ने परोह्णे दी पूरी जांच पड़ताल करी तिस सौगी चाह्-नाश्‍ता करी नैं भी जान नीं छडदे थे। 

पु. ला. देशपांडे दे नाटक बटाटया ची चाळ च बी इक बंदे दे व्रत रखणे दिया खबरा ने सारी चाल बकळोई जांदी। इन्‍नीं खरे खांदे पींदें खाणा छड्डी नैं व्रत कैंह् रखी लै। देह्या क्‍या होई गिया इसने। सारी चाल सुखशांते पुछणे दे भाने कठरोई नें सलाहां देणा पूजी जांदी। इक जाए दो आई जाह्न, इसदी कोई नी सुणै सब अपणी ढफळी बजाई चले जाह्न। इस नाटके च इस जबरदस्‍ती वाळे घरूचारे दिया तकलीफां कनैं-कनैं अजकणी फ्लैंटा वाळी संस्‍कृति पर भी टिप्‍पणी है। जिसा च बक्‍खला माह्णू सालां इकी बिल्डिंगा च दरवाजे ने दरवाजा होणे ते बावजूद पखला माह्णू ही होंदा। 

असां दे हिमाचली मुंबई दी इन्‍हां चालीं दे बसिंदे नीं थे। 1960 दे लगभग असां दे बुजुर्ग कालबा देवी, रामवाड़ी, गिरगांव, सतररस्‍ते दे गैरजां ते निकली नै लाड़ियां बच्‍चयां कनैं मुंबई च बसणा लगे। इन्‍हां जो मुंबई शैह्र कनै शैह्रे ते बाह्र साइन कोलीवाड़ा, चेंबूर, घाटकोपर, कुर्ले दे लाकयां च अतिक्रमण करी ने बणा दियां बस्तियां च ठकाणा मिल्ला। इन्‍हां लाकयां दी लग ही तस्‍वीर थी। बिजळी कनैं मूल सुबधां नीं दे बराबर थिह्यां पर जगहां खुलियां-खुलियां कनै कुदरत दा राज कनैं ग्रां वाळा ही महौल था। इस कारण इन्‍हां दे नीं होणे दी तकलीफ महसूस नीं होंदी थी। 

असल्‍फा जित्‍थू मेरा बचपन बीतया; चौंही पास्‍सें प्‍हाड़ कनैं काजूआं दा बण था। इस दे कारण इक घाटी देह्ई बणदी थी। इस ताईं इस लाके दा नां घाटकोपर था। तिन्‍ना-चौंही मीलां च पंच-सत छोटे-बड़े तळआ थे। जिन्‍हां जो खाड़ी गलांदे थे। इन्‍हां च बारा म्‍हीने पाणी रैंह्दा था। इन्‍हां बणां जो बड्डी-बड्डी कनैं खाड़ियां जो भरी-भरी बस्त्यिां बसा दिया थिंह्यां। इन्‍हां चालीं च ज्‍यादातर दवालां टीनां दिया कनैं छत्‍तीं मिट्टिया दे खपरैंला दिया होंदिया थिह्यां। एह् खपरैल लकड़िया दे ढांचे पर मेखां मारी जड़यो होंदे थे। जिह्यां दमाग ठंडा होए ता सारा शरीर बी शांत कनैं खुश रैंह्दा। तिह्यां ही इन्‍हां छतां हेठ पंखे या बिजलिया बगैर बी गर्मियां सुखे ने कटोई जांदियां थिह्यां। पर सारी बरसात खपरैलां दिया सैंटिंग दा ख्‍याल रखणा पोंदा था। जरा की बिगड़ी ता चोड़ा होणा लगी पोंदा था। इक तकलीफ होर थी,  दूईं-चौंही सालां च लकड़ियां सड़ी जांदियां थिह्यां। इस कारण इन्‍हां दा रख रखाव मैंहगा था। बाद च खपरैलां वाळियां छतां चली गईयां। गरमिया च तपणे वाळियां सिमेंटे दियां सीटां कनैं बिजळी भी आई गई। 

मेरे घरे साह्मणे जेह्ड़ा सारंया ते उच्चा काळा पहाड़ था; जिस जो छिलणे तांई रोज सुरंगां लगदियां थिह्यां कनै पत्‍थर बह्रदे थे। तिस दे दुअे पास्‍सें इक बेतरतीव बस्‍ती भी प्‍हाड़े चढ़ा दी थी। दूईं पासेयां ते जोर लगया था। इक टैम देह्या आया बस्तिया जो बचाणे ताईं सुरंगां बंद करना पईंयां। इस ते सैह् पहाड़ बी बची गिया पर माण्‍हुए दा जमीना नैं ढिढ ही नीं भरोंदा। इकी पास्‍सें पहाड़े खुणी-खुणी जेह्ड़ी जमीन निकळी तिसा पर तिनी बस्‍ती बणाई लई। दुअे पास्‍सें समुदरे दे उथले लाके (coastal wetland) कनैं खाड़ियां जो प्‍हाड़े दे पत्‍थरां नै भरी नै समुदरे ते भी जमीन खोई लई।    

लगभग बीह्-तीह् साल लग्गे। न बण बचे न तळ्आ। पहाड़ा दियां चूंडिया तिकर घर ही घर हन। पतळियां संगड़ियां गळियां हन। कुथी-कुथी ता छतरी बी नीं खुलदी। मिंजो ता इस लाके छडयो 25 साल होई गियो। पहाड़ियां कनैं राजस्‍थानियां मिली ने शिवे दा इक मंदर बणाया था। तिस च बारे-तुहारे प्‍हाड़ी गीत, भजन-कीर्तन चली रैंह्दे थे। इस मंदरे च इक नाटक भी खेल्या गया था। एह् भारतेंदु हरिशचंद्र दे नाटक अंधेर नगरी दी तर्ज पर तमाशा ही था। पालमपुर में जब बरखां होती हैं तो बीड़ें ढेह्-ढेह् पोती हैं। साही पहाड़ी गप्‍पां, चुटकले, ग्रां च दिक्‍खयो भगत कनैं फिल्‍मी मसाले थे। इस तमाशे दी टीमा च  अभिनेता, लेखक, निर्देशक सब कुछ पंज-सत लोग थे। बंशीराम जी शायद लेखक थे, निर्देशक प्रेम मेहरा, रणजीत...  होर लोकां दे नां याद नीं ओआ दे। मेरे पिता राजा बणयो थे। मैं इन्‍हां दियां रिहरसलां दा स्‍थायी दर्शक था। इसा मंडलिया दी इच्‍छा ऐताहासिक नाटक अमर सिंह राठोड़ मंचित करने दी भी थी पर सैह् पूरी नीं होई सकी।              

हिमाचल ते दूर होणे दे कारण हाली भी थोड़ा बौह्त कठेवा है। मुंडु, जागत, मठा, भाऊ साही लफ्ज कनैं गलाणे दे लग-लग लैह्जे कनैं सुरां मलाई ने कांगड़ा, हमीरपुर, मंडी, बिलासपुरे, ऊना जिलयां दे असां सारे मुंबईकर इक ही पहाड़ी भासा बोलदे ओआ दे। हुण क्‍या दसिए पहाड़ी गलाणे वाळे ही घटदे जा दे। हिमाचले साही एत्‍थू बी नौंई पीढ़ी गलाणे ते बचा दी।

 

सुमनिका : पेंसिल स्याही से कागज पर 

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काजू वन

मुंबई की चालों में लोगों के पास अपनी-अपनी खोलियां कमरे तो होते थे। इसके अलावा लगभग सारी सुविधाएं साझा तौर पर बांटना पड़ती थीं। गांव की बावड़ी की तर‍ह पानी का एक ही नल होता था। य‍ह नल भी बावड़ी की तरह लोगों के मेलमिलाप और नोकझोंक के अड्डे होते थे। एक सोच यह भी है कि दुनिया का अगला विश्‍व युद्ध पानी के लिए भी हो सकता है। यह नल इस बात की गवाही देते थे। चाल में रहने वाला कोई इंसान किसी से अपना सुख-दुख कुछ भी छिपा नहीं सकता था। 

आजकल जिस प्राईवेसी निजता का फैशन है, उस का तो यह हाल था कि ए‍क घर में तड़का लगता था तो सारी चाल को पता चल जाता था, क्‍या बन रहा है। सारे रिश्‍तेदारों और आने वाले मेहमानों को सारी चाल जानती थी। कोई नया अजनबी आ जाए तो सारी चाल में ब्रेकिंग खबर बन जाती थी। पता नहीं कौन है? नया ही है? पहले तो कभी देखा नहीं? कुछ ऐसे भी होते थे जो मेहमान के जाने का इंतजार भी नहीं कर पाते थे। वे मेहमान के पीछे-पीछे पहुंच कर उसकी पूरी जांच पड़ताल करके उसके साथ चाय-नाश्‍ता करने के बाद भी जान नहीं छोड़ते थे। 

पु. ला. देशपांडे के नाटक ‘बटाटया ची चाळ’ में भी एक बंदे के व्रत रखने की खबर से सारी चाल पागल हो जाती है। यह अच्‍छा खाता-पीता था, खाना छोड़ कर उपवास क्‍यों कर रहा है। इसके साथ ऐसा क्‍या हो गया। सारी चाल हालचाल पूछने के बहाने इक्‍कठा हो कर सलाह देने पंहुच जाती है। एक जा रहा था तो दो आ जा रहे थे, इसकी कोई नहीं सुन रहा थासब अपनी ढफली बजा रहे थे। इस नाटक में इस जबरदस्‍ती के भाईचारे की तकलीफों के साथ आज की एपार्टमेंट-फ्लैटों वाली  संस्‍कृति पर भी टिप्‍पणी है। जिस में वर्षों तक एक बिल्डिंग में दरवाजे से दरवाजा जुड़ा होने के बावजूद हम एक दूसरे से अजनबी ही बने रहते हैं। 

हमारे हिमाचली मुंबई की इन चालों के बासिंदे नहीं थे। 1960 के लगभग हमारे बुजुर्ग कालबा देवी, रामवाड़ी, गिरगांव, सात रास्‍ते के गैरजों से निकल कर बीबी-बच्‍चों के साथ मुंबई में बसने लगे। इन को मुंबई शहर और शहर के बाहर साइन कोलीवाड़ा, चेंबूर, घाटकोपर, कुर्ला के इलाकों में अतिक्रमण कर के बन रही बस्तियों में ठिकाना मिला। इन इलाकों की तस्‍वीर अलग ही थी। बिजली और मूल सुविधांए ना के बराबर थीं पर खुली-खुली जगहों पर कुदरत का राज और गांवों वाला माहौल था। इस कारण इन के न होने की तकलीफ महसूस नहीं होती थी। असल्‍फा जहां मेरा बचपन बीता, चारों  तरफ पहाड़ और काजूओं का वन था। इस के कारण एक घाटी जैसी बनती थी। इसलिए इस इलाके का नाम घाटकोपर था। चार-पांच मीलों में पांच-सात छोटे-बड़े तालाब थे जिन्‍हें खाड़ी बोलते थे। इन में बारह महीने पानी रहता था। 

इन वनों को काट-काट कर और खाड़ियों की राई करके बस्त्यिां बसाई जा रही थीं। इन चालों में ज्‍यादातर दीवारें टीन-पतरे की और छतें मिट्टी के खपरैलों की होती थीं। यह खपरैल लकड़ी के ढांचे में कीलें ठोंक कर जोड़े जाते थे। जिस तरह दिमाग ठंडा हो तो सारा शरीर भी शांत और खुश रहता है, सी तरह इन छतों के नीचे पंखे और बिजली बगैर भी गर्मियां सुख से कट जाती थीं पर सारी बरसात खपरैल की सैंटिंग का ख्‍याल रखना पड़ता था। जरा सा बिगाड़ होने पर पानी चूने लगता था। एक तकलीफ और थी,  दो-चार साल में लकड़ियां सड़ जाती थीं। इस कारण इन का रख-रखाव मंहगा था। बाद में खपरैल वाली छतें चली गईं। गर्मियों में तपने वाली सिमेंटे सीट और बिजळी भी आ गई। 

मेरे घर के सामने जो सबसे ऊंचा काला पहाड़ था, उसको छीलने के लिए रोज सुरंगें लगती थीं  और पत्‍थर बरसते थे। उस की दूसरी तरफ से एक बेतरतीव बस्‍ती भी पहाड़ पर चढ़ रही थी। दोनों  तरफ से जोर लगा हुआ था। एक समय आया जब बस्‍ती को बचाने के लिए सुरंग लगाना बंद करना पड़ा। इस से वह पहाड़ भी बच गयापर इंसान का जमीन से पेट ही नहीं भरता है। एक तरफ पहाड़ खोद कर जो जमीन निकली उस पर बस्‍ती बना ली। दूसरी तरफ समुदंर के उथले इलाके (coastal wetland) और खाड़ियों को पहाड़ के पत्‍थरों से भर कर पानी से भी जमीन छीन ली।  

लगभग बीस-तीस साल लगे। न वन बचे न तालाब। पहाड़ की चोटी तक घर ही घर हैं। पतली संकरी गलियां हैं। कहीं-कहीं तो छाता भी नहीं खुलता है। मुझे इस इलाके को छोड़े 25 साल हो गए हैं। यहां एक मंदिर भी है, जिसे हिमाचलियों और राजस्‍थानियां ने मिल कर बनाया था। इसमें अक्‍सर  पहाड़ी गीत, भजन-कीर्तन चलते रहते थे। इस मंदिर में एक नाटक भी मंचित हुआ था। यह भारतेंदू हरिशचंद्र के नाटक अंधेर नगरी की तर्ज पर एक तमाशा ही था। पालमपुर में जब बरसात होती है तो मेड़ें गिर-गिर जाती हैं। जैसी पहाड़ी गप्‍पें, चुटकले, गांव में देखी भगत (लोक-नाटक) और फिल्‍मी मसाले थे। इस तमाशे की टीम में अभिनेता, लेखक, निर्देशक सब कुछ पांच-सात लोग ही थे। बंशीराम शर्मा जी शायद लेखक थे, निर्देशक प्रेम मेहरा, रणजीत ठाकुरबाकी लोगों के नाम याद नहीं आ रहे हैं। मेरे पिता राजा बने थे। यह 1970-72 के बीच का समय रहा होगा। मैं शायद चौथी-पांचवी में पढ़ता था और इनकी रिहर्सलों का स्‍थायी दर्शक था। इस मंडली की इच्‍छा ऐतिहासिक नाटक अमर सिंह राठोड़ मंचित करने की भी थी पर वह पूरी नहीं हो सकी।           

यहां हिमाचल से दूर होने के कारण अभी भी थोड़ी बहुत एकता है। मुंडू, जागत, मट्ठा, पाहू जैसे लफ्जों और उच्‍चारण के अलग-अलग लह्जों और सुरों को मिला कर कांगड़ा, हमीरपुर, मंडी, बिलासपुर, ऊना जिलों के हम सारे मुंबईकर एक ही पहाड़ी भाषा बोलते आ रहे हैं। लेकिन पहाड़ी बोलने वाले ही कम होते जा रहे हैं। हिमाचल की तरह यहां भी नई पीढ़ी पहाड़ी बोलने से बचती है।   
मुंबई में पले बढ़े कवि अनुवादक कुशल कुमार
2005-2010 तक मुंबई से हिमाचल मित्र पत्रिका का संपादन किया।
चर्चित द्विभाषी कविता संग्रह मुठ भर अंबर।