पहाड़ी भाषा दी नौई चेतना .

Saturday, November 1, 2025

अनंत आलोक दी क्हाणी

 

 

अज पहाड़ी दिवस दे मौके पर पेश है अनन्त आलोक दी इक कैणी मतलब क्हाणी  

जिज्जा बेइंदा न बैठदा 

यदि समझने में दिक्कत आए तो अंत में हिंदी में कहानी का परिचय आप पढ़ सकते हैं। 

रेखांकन शशि भूषण बडूनी का है। 

                                

गुरजी री गाड़ी दे थिए बे हम चार आदमी | ना रे ना सिजे गुरजी न आथि इ | इ तो म्हारे स्कूलो दे पढ़ावणी आले गुरजी थिए | आहो बे, जेतणे ब माश्टर हुओं स्कुलो दे पड़ावणी आले सी सोब गुरजी माने जाओं गाँव दे |  सोबी ख गुरजी बोलों | हेम्बे, एब सोम्झे बे तुम ! स्कूलो रे माश्टर | सिजे गुरूजी तो भ्रागे खाए चेई साले ...लुच्चे-लफंगे, तिने तो गुरु रा नाव ब बदनाम कोरी रो राख दिया | ओरका, पोईली तो साले टेलीविजनो पांद आओ रे भाषण जाड़ों थे | एब लागा पोता जोब एक-एक कोरी रो सामणे आई करतूतो, एब पोड़ा राम जोब्ब भितरे खोटे, हाशी बे | राम पोड़ा | बेशक सारे गुरु जी सी बे एकशे न होंदे पोर इन्ने साले बश्वास खो पाया एब तो डोर लागों कोसी खरेसड़े गुरु जी बोलणी दा ब ! राम राम ! का जमाना आ गुआ ! जिउणा मुश्किल कोर पाया !

गाड़ी दा एक हाँ इ थिया बे रो होरो म्हारी साथी थिए नोयणी रे एक साब, साब एशे तो सी ब गाँव रे इ ओसदिये, पोर आजकली नोयणी नोग्रो दे रों | तेथी आपणे ड्यूटी कोरों, रो तेथी हुंदे रोय रों | मजाकिया पोर भोते, थुड़ी-थुड़ी बातो री एशि बात बणाओं जू  होसी होसी रो बाखी पुलटिओं | छोटे-मोटे कोदो रे रो मस्त आदमी | भई साब तो भोत देखे पोर तेशे न देखिये ! भोत एशे ओसदिये, मतलब का बोली सी अंग्रेजी दु जॉली पर्सन | मुओं दी मूछ एक न राखदे, चिकणे बोणी रो रोंदे | स्मार्ट तो पोयली ओसदिये गोयली जवान !  भोत कोम उम्री म साब बोण गोए | एशि किश्मत सोबी री न उंडी बई | मेणती तो ओसी दिए, जोबे दे आय ब रोये तोबे दे लोको पोता लाग गोवा जे एशा ब साब उओं | पोयली आदे आदमी  इ ब पोता न थिए जे एशा कुई डपाटमेंट ब उओं जिले दा | मितोर एशे जू यारो रे यार | बाकी का बोली बी एब !

म्हारी साथी रेके आदमी थिए सिंघा जी, इब बई भ्होत बोडिया आदमी ओसदिये | पोड़े-लिक्खे सोब्बी दे जादा, डाक्टर ! पढ़ाई डाक्टर ... सिज्जा न सुए लाणी आला न थिए ! डॉक्टरेट री पढ़ाई कोरणी आला डाक्टर ! पोर जेरा ब मान न आपणी पड़ाई रा | कुई गमंड न ! बिलकुल सिंपल आदमी | देखणी तो जाणियो पातले शे रो चुरकदे बेज्जाई | हांडों पोर सरक... सरक.. सरक .. , बई जे मात्मा गांदी ब उओं था न आज तो तेसी ब पाछू छाड़दों थे | जे कोईं पोयदल ब चालणु पोड़ो थो तो हामो दे एक किलो मीटर आगे रों | तिसरा आदमी थिया तिसरे कनारे रा | शास्त्री, नांव पोता न का तेसरू | इशु ब नाव दु का राखो, काम से मोतलब ओणा चेई | बंदा इ ब भोत बोडिया ओसदिया ! बात एशि तो मुओ मेंदी उंडी न छाड़दे रो जे बोल पाई तो लाख टक्के री एक्के | छोटे कोद-काठी रा मेणती रो गंबीर माणु | पांदे दा कोवि, लिखदा रों कुछ न कुछ | बई चोथा आदमी आं तो आपणी तो का लाणी बी बात, एशिए बे आलमाल |

नोकरी लागरी, दिन भोरी ड्यूटी कोरुं रो ब्याल्के रा जु टेम बोचों तेदी म आपणे लिखणी पोडणी रा काम | छुट्टी उयों तो दिन बोरी बेठा रों आपणी घुरी दा | एक द्कान ओसदी घोरे तिओं द्कानी पाछ एक घुरी शि ओस दी बे | तिंदी भीतरी कताबी री ल्मारी रो कंप्यूटर रो पोता न का-का | एसरे तो एके इ काम चाये घोरे कुई पावणा-दावणा ब आई रों | एसरा जी न बोल्दा भेइंडे निकलणी ख | बस एदी  में इ खुश ओसदिया, लिखदा रों रो भेद्जा रों पत्रिका, अखबार रो पोता न का का, दुनिया भोरी रु कबाड़ राखों कोठू कोरी रो | एब का लाणी बात शुणदा तो आथि न कोसरी | अम्मा थी तो बोलों थी जे म्हारे एक तो बेशक ओसदिया पोर काम सारे कोरों | कामो री कुई कणाच न एब बेन मानदा | कोविता रे पाछे पोता न कोथ-कोथ घुम गुआ मुल्को दा | नोखे शोंख एशे भईया जू का लाणी बात !

पांचवें म्हारे गुरजी, बई मानगे बात | हामो मेंज सोबी दे बजुर्ग पोर एकदम नोजवान री साथी नोजवान | एक से बढ़ के एक शटराले मारों, जिंदादिल आमदी | हामो तो पोता न बई पोर लोको गेदा शुण राखा जे घोरे भोत काम कोरों | तकड़े जिमीदार रो एशि का चीज जू घोरो दी आथि न | होस्णी आली कविता तो खूब लिखो ब रो शणाओ ब बोड़े मोज़े से |

कुल मलाई रो एशि ओसदी बात जे सारे कोविता रे आदमी थिए | जाओं थे ब्याओ में, एक दोस्त ओस दिया सी ब कोवि तेसरा ब्या ओसदिया | एक कोवि रे ब्याओ ख न डोवे तोब कोथ जाणो बी ! तोब चाल रोये सारे | हास्सी मज़ाक ठाठे लांदे ! एषा तो आजकली कोस्सी ओसदिया टेम ! इए बे कोईं ब्या कारजों में जांदे जे थोड़ी भोत हास्सी मज़ाक कोरपा | “आज बचारा दुर्गु ब शईद ओजाणा बी |” गुरजी ए म्हारी बातो दा तोड़का लाया, रो सोबी ए ताड़ी मारी रो  हासी रे फ्वारे छाड़े |देइं एजा ध्यान थोई जे हामे पोंयची केथे रोये | आं तो आय ब आगली बेरिया रोया इथे उदा |” साब बोलणी लागा रो सोब चुप उई गोए | “रे तुमे चिंता न कोरो साब जी आं तुओं राचणी न देंदा, तुमे राम से बेठे रो |” गुरजी मोड़ काटदे शटेरिंग गमाया रो यू टर्न लोय रो नोए रोड़ो पांद गाड़ी दबाई दी | “लो जी इ लागा तारा मजुटली रा रोड़ | बस तुमे थुड़ी देर आपणी खुट्टी एल शेप में राखो, कुई पन्दरा मिंट में हाम पोंच ब जाणे |” बोलदे-बोलदे गुरजी ए देशबोर्डो पांदे दा मोबाइल चोका रो टेम ब देखा | “ठीक पांच बाजे हाम ब्याओ आले रे बेड़े दे ओंणे, एबी चार बाजी रो चवाली मिंट ओये | ”ओह ! आमे तो बोड़े शिग्गे पौऊँचे |” बाँव तानी रो डॉ साब बोलणी लागे | सोब एकी रेके री काणी देखि रो मुंडो दे हाथ फेरी रो उंडे पुंडे लागे घिसरणी | बेठे-बेठे सोब जोणे खोड़ी ब रोये थे एब | सोब आपणे-आपणे पाकिस्तान उंडे पुंडे घस्राई रो इनो ख राम लागे देणी | बेठी बेठी रो पिड़ो  लाग रोई थी | होस्दे-खेल्दे रोस्ता कोब कोट गोआ पोता इ न लागिये | गुरजिए गाड़ी बेक कोरो रो लाई दी | ड्रेवर साइड रा काला बोटण उबेख खेंचा रो सारे शीशे बोंद ओये गोए गाड़ी रे |

एक-एक कोरी रो सोब जोणे बाइंडे निकली रो उंडे-पुंडे ख झाड़ो पाछी पीठ फेरी रो खोड़े ओई गोए | उबके दी वाज आई

“लाड़े दा मामा आया रे नंधार

आया  रे नंधार ...

निले घोड़े दे शवार ...|”

साब मेरी काणी देखि रो बोलणी लागे “ये गीत मामा ...” हाँ मोये बीच में इ बात पाकड़ी | तुम बिलकुल ठीक पछाण कोरी साब, इ मामे रा स्वागत लागरा उणी | ठीक टेम रे हाम ब आए रो इनरे मलोखी ब आए बेड़े म ! मलोखी मतलब मामे इ ओ बे सी संस्कार गीत जिनो लिखणी री बात कोरों थे तुम साब जी | आज इनो सोब गीतो हाम रिकॉर्ड कोरोंगे रो तोब लिखोंगे | एक पंथ रो दू काज | ब्याओ रा ब्या रो काम रा काम | “बिलकुल ठीक बोलो तुयें |” मेरी काणी देखि रो डॉ साब बोलणी लागे | शास्त्री ब मूंड लकाणी लागा | सोबी ए आपणी आपणी बेलटी एशि कोशी जेशे एबी जाणो इन रे परेट कोरनी कोईं | साब रो डॉ आपणी कंवगी काड़ी रो मुंडो लागी पजोड़णी | मेरी रो शास्त्री री मुंडो तो पोयली क्रिकेटो रे मदान, हामो तो जरूरत आथी न कान्वगी री रो ना हम राखदे फाग्टो दी कान्वगी | हाम तो टोपी लाई रो राखों बई साची शि बात | न शीशा देखणा न बाल बणाणे | चलो बई चलो एब भोत उई गुए नोखरे | किये बोलो तुमे इ देख रोणे ब्याओ दे  कोसरे |” गुरजिए साब रो डॉ री पीठी दा स्यारा देई रो ऊबे ख दकेये | पाछे-पाछे दे आं रो शास्त्री ब चाल पोड़े | दो चार मिंट में हाम ब्याओ आले रे बेड़े दे थिए | म्हारे सामणे पारली काणी म्लोखी ! आगे-आगे बूढ़े–खाड़े तिनोरे पाछे नोजवान रो छूटू सोबी दी पाछे बोइरो, मुंडो पांद चुंटी लाई रो ओई री थी खोड़ी |

बोइरे मुओं दा चुंटी रा पाला थाम राख था जेशी ब्लो इनो कोयदी षडान लागरी उओं | ब्याव आले रे ग पांच–सात बोइरो मुंडो ग चुंटी और मुओं रे हाथ लायरो लांबी लेर देई रो लागरी थी ब्याव री गितो गाणी | एक लांबी शी बोइयर थी तिनरी ठोकणी, जिओं ख सी सोब बुआ बोलों थी | हाम बेठिये नाथी बस तिनरी गितो लागे शुणणी | हाम एक आदमी पुछा तो तिणीये बताओ जे इनो गितो री सार तो इए जाणो बे बुआ | इ बुआ भोत दुरके दी आई री |  “आछा जी, तोबे तो इ म्हारे बेगे काम की ओसो |” साब मेरी काणी देखियो लागे बुलणी | मोये बोलो बात करूँ | “ना ना गुरु जी एबी न, एबी इनो आपणे टोल दियो निपटाणे दाणिक |” साबे हाथ हिलाया | “देइं शुणो तो तुयें ... चुपे रो उदे |” डॉ बीचो दा बोला | बुआ ए लांबी लेर मारी रो पाछे दी रेकी बोइरो ब लागी गाणी “

“लो जी लो चाय पकोड़े खाओ, दुर्गु जेरा ख बीजी ओस दिया, एबी आला तुमो मिलणी | तुम राम से बेठो |” दो आदमी आए रो तिने चाय रे ग्लास रो नमकीन-बिस्कुट, पकोड़े री प्लेटो पकड़ाई | “हाशी बे भूख ब लाग री एब तो, खांदे ब रो, रो शुण दे ब रो |” गुरुजिये बोलो रो फोटाफोट प्लेट खाली कोर दी | म्लुखी रा स्वागत उणी लागरा था | टिक्के री रस्म, जेतणे मोर्द बूढ़े-नोजवान रो छूटू सोबी रा टिक्का | टिक्के में चोंकी चड़ाय रो टिक्का लगाओं, चोंकी द्वारो पांद रखी जाओं तोब मुओं दा लाड्डू देओं रो एक सूट | जेसरा टिक्का उओं सी थाली दे दश–बीष रुपैये राखला रो उतर जाला चोंकी पांदे दा | जेतणी बोइरी छूटी उल्ली म्लुखणी में, तिनरे सोबी रे टिक्के लाले रो माला पाले टाटी दी, लाड्डू ख्लाय रो मू मिठ्ठा कोरले |

शास्त्री ए बीच में छेड़ कोरी “हारे गुरु जी म्हारा ब कोरले इ टिक्का ? म्हारे ब खाणा था एक –एक लाड्डू |” सोब होसणी लागे, “कोरले तो कोरले बे ठोर जाओ जेरा” बुआ ए बात ताड़ पाई | टिक्के दा बाद मिलणा-चालणा उया रो म्लुखी री सेवा पाणी | हामो मोका मिल गोया बुआ री साथी बात कोरणी रा | हाम सोब बुआ रे दौरे  बेठ गुए रो लागे पुछणी जे कुण जे कुण संस्कार गीत हुए ब्याव रे एब्बी तक ? बुआ ए बोलो “तारे आणे दे पोयली कार संस्कार ओई गुआ क्योंकि सी ब्याव दा तीन दिनों पोयली ओ जाओं | मतलब कार रख देओं तेदरु गीत शणा देऊँ आं तुमो ख | बाकी तो तारे सामणे गाओंगे हाम, शुण दे रोइओ | शुणो

“लिखे-लिखे चिट्ठी बाना बानी जी नो भेजे...

आवना कि ना बानी तेरी राह में

निवें-निवें आवना, जरुरी ए”

अहा ! बुआ जी थारी जीबी पान्द तो साक्षात सुरसती बैठी ओसदी धनो तुमो ख | “ए तो थियु नोसु यानी दुल्हे री काणी दु रो लाड़ी री काणी दु केशो गावों बुआ जी” मुए बात आगे बड़ाई तो | “हाँ बेटा लाड़ी आले गाले... “शुणो बे

“लिखे-लिखे चिट्ठी बानी बन्ने जी नो भेजे

अइयो जी अइयो बाना मेरी राह में

निवें-निवें अइयो जरुरी ए |”

भई क़माल ओसदिये म्हारे संस्कार रो धनो तुम बुआ जी | तुम तो रस गुल देयों कानो दा आहा | बस तेतणीय ख एक बोइयर आई रो बुआ बलाई रो लो गुई | तोब हम रो गये थैठे !

हम ब उट्ठे तो घोरो पाछी दी पुडूये रो आवाज आई, तो हम ब तिओं काणी ख ओई हुए | खूब पुडुआ लाग्रा था ! बोइरे नाची नाची रो बेड़ा खुद दिया था | हम शुणणि लागे !

“जिज्जा भेंइदा न बैठदा कुर्शी बिना ...

जिज्जा भेंइदा न बैठदा कुर्शी बिना ...

जेशु केले रु ठूण्ड...

तेशो मेरे जिज्जे रु मूड...

जिज्जा भेंइदा न बैठदा कुर्शी बिना ...

जिज्जा भेंइदा न बैठदा कुर्शी बिना ...”

 होस्सी होस्सी रो बाक्खी दी पिड़ो लाग गुई | शास्त्री रो साब तो होस्सों बोइरी रा पुडुआ देखी देखी रो ...| हम उन्डू-पुंडू लागे देखणी “म्हारा एक बन्दा कोम ओसदिया कोथ डेया ? मोये बुल्लू तो सोब लागे देखणी ..” “ओहो साची बे डाक्टर कोथ उटा ? एबे का कोरी ?”  साब लागे बोलणी !


कहानी के बार में 

आत्मकथात्मक शैली में लिखी गई यह कहानी हिमाचल के संस्कार गीतों के साथ साथ सिरमौरी की विवाह परंपरा की कुछ रस्मों की ओर संकेत करती है। इस सिलसिले की यह कहानी दो तीन खंडों में आएगी। पहले खंड में जिला सिरमौर में विवाह संस्कार गीतों को पहले दिन से यानी जिस दिन कार रखी जाती है, जिसे चिट्ठी भेजना भेजना भी कहा जाता है, वहाँ से विवाह संस्कार गीत देखने को मिलते हैं।

कहानी में कुछ रस्मों तक के गीत गाने के बाद, विवाह संस्कार पर किया जाने वाला लोकनृत्य (पुड़वा) दिखाया गया है, उसी के तहत कहानी का शीर्षक गीत है जिज्जा भेइंदा न बेठदा कुर्शी बिना।

कहानी की शुरुआत जिला भाषा अधिकारी के साथ इन विवाह संस्कार गीतों के डोकुमेंटशन के एक सफर पर निकलने से होती है। और विवाह समारोह स्थल पर इस यात्रा के साथ विवाह के गीत एक बुजुर्ग महिला के द्वारा प्रेक्टिकल रूप से गाए जाते हुये रेकॉर्ड भी किए जाते हैं और कुछ जिज्ञासाएँ भी शांत की जाती हैं उस बुजुर्ग महिला/गायिका से पूछ कर।    

अनंत आलोक

कवि, कहानीकार और अनुवादक।

तलाश (काव्य संग्रह-2011 ), यादो रे दिवे (सिरमौरी में हाइकु अनुवाद-2016), 

मिस 420 (ऑडियो उपन्यास-2021) पॉकेट ऍफ़. एम्. पर उपलब्ध एवं चर्चित | 

स्कैंडल पॉइंट और अन्य कहानियाँ- 2022 में प्रकाशित और चर्चा में |

सिरमौर कला संगम, हिमोत्कर्ष द्वारा सम्मानित।


Friday, September 26, 2025

अशोक दर्द दियां कवतां

चित्रकृति:सुमनिका 

 
पेश हन अशोक दर्द होरां दियां कवतां। 


   

धुप्प छां

पहाड़ां साई धुप्प छां ढौंह्दा रिया।

रोज तिल तिल करी छलौंदा रिया।।

 

 रक्खियां पल्याई छुरियां जिन्हां।

जाई अंगणे उन्हां दे बौंह्दा रिया ।।

 

केई लग्गे मगर मेरे हत्थां धोई।

फिरी बी बेफिक्र होई सौंदा रिया।।

 

केई ढकियां थियां  ख्वाबां दियां।

कदी लूंह्दा रिया कदी गौंह्दा रिया ।।

 

बिच्च रस्ते च जेह्ड़े  छड्डदे रेह् ।

उन्हां लोकां ने रस्ते कठौंदा रिया।।

 

बुणे - पट्टु कंबल मैं बुह्तेरे अपर।

भर हीयूंदे मैं नंगा ठह्णौदा रिया।।

 

इत्थे मिल्या नी मैहरम दिले दा कोई।

अंदरो अंदर मैं उम्रां घटौंदा रिया।।

 

लोकां थप्पी ने दाह् लाई झूठी ।

मिठिया गल्लां मैं रोज ठगौंदा रिया।।

 

जाह्लु कित्ती मती मैं भलमाणसी।

ताह्लु हट्टियां घराटां लटौंदा रिया।।

 

नी अपणे होए नी पराए लग्गे।

इदेह् रिश्ते मैं उम्रां हंडांदा रिया।।

 

कन्ने सूरजे दे मैं चलदा रिया ।

कदी चढ़दा रिया कदी घ्रोंदा रिया।।

 

दिक्खी नौंएं तमासे दुनिया दे ।

कदी हसदा रिया कदी रौंदा रिया।।

 

लेई दर्दे दिले दे अल्फ़ाज़ नित।

गीतां-  नज्मां दी मालां परौंदा रिया ।।


  2  

दिक्खी ने चुप रेई गिया...

उपजाऊ खेतर होई गे बंजर दिक्खी ने चुप रेई गिया।

वारे पारे खूनी मंजर दिक्खी ने चुप रेई गिया ।।

 

कुते राम बणादा बड्डा कुत्ते अल्लाह ताला ए।

रोज लड़ादे मस्जिद मंदर दिक्खी ने चुप रेई गिया।।

 

टुकड़े खातर लड़ियां बिल्लियां खूब तमासे कित्ते ।

बिल्लियां दे जज बणी गे बंदर दिक्खी ने चुप रेई गिया।।

 

भाईयां भाईयां बिच्च झमेले जोरू जोर जमीनां दे।

उट्ठदे नौंएं रोज बवंडर दिक्खी ने चुप रेई गिया।।

 

नैतिकता ईमानदारी ते कन्ने देस प्यारे दे।

खुन्ने होई गे सारे संदर दिक्खी ने चुप रेई गिया।।

 

पैसे सुट्टो करो पढ़ाई आज्ज जमाना पैसे दा ।

बणे दुकानां विद्या मंदर दिक्खी ने चुप रेई गिया।।

 

जिन्हां हत्थां उपकार हुंदे थे ओ बी इक्क जमाना था।

उन्हां हत्थां आज्ज पैने खंजर दिक्खी ने चुप रेई गिया।।

 

खूब कमाईयां कित्तियां लोकां काले धंधे करी करी।

बैट्ठे केई बणी सिकंदर दिक्खी ने चुप रेई गिया।।

 

बुक्कल़ी बिच्च छुपाई छुरियां मुक्खे राम उच्चारा दे।

बाहरे चिट्टे काले अंदर दिक्खी ने चुप रेई गिया।।

 

पापां धरती गेई भरोई खूब सुणाया रोई ने।

किच्छ नी बोल्ले पीर पैगंबर दिक्खी ने चुप रेई गिया।।


  3  

कबता के लिखणी

दिले नी जेकर प्यार ता कबता के लिखणी ।

धोखे च रक्खै यार ता कबता के लिखणी ।।

 

हौन्न बूट्टे सब  ठुंडे ठुंडे  ते पौंग्र सुकी  सुकी ।

होए बदली सब नुहार ता कबता के लिखणी ।।

 

जे दूर बसेरे हौन्न दिल रुचेयां दिलदारां दे ।

अते हवै नी रुत बहार ता कबता के लिखणी ।।

 

दूर जाणी हवै जानी ते बिखड़े रस्ते हौन 

कने हौन सराबी कहार ता कबता के लिखणी ।

 

अपणा आप जलाणा  दुनिया दियां दर्दां ने ।

जे नी समझै संसार ता कबता के लिखणी । ।

 

एहसास नी समझै कोई डुल्ले बरकेयां पुर ।

अते नी मिलै दरकार ता कबता के लिखणी ।।

 

  4  

साह्ड़े हिमाचले दी नी रीस कोई...

अजेह् बी साह्ड़ेयां पहाड़ां च प्रेम प्यार जिंदा ऐ।

निक्केयां बड्डेयां दा आदर - सत्कार जिंदा ऐ ।।

 

अणछूयां रस्तेयां पर जित्थे विचरते देवते ।

चिट्टी चांदिया भरोई साह्ड़ी धार जिंदा ऐ ।।

 

इत्थे झूरिया गंगिया दी मिट्ठड़ी तान जिंदा ऐ ।

ढोल नगारेयां मिट्ठड़ी झंणकार जिंदा ऐ ।।

 

नौआं जमाना आया लोक लाक्ख बोल़ण ।

साह्ड़ा सुनार जिंदा ऐ साह्ड़ा लोहार जिंदा ऐ ।।

 

रैह्न्दे भाईयां साई हिंदू मुस्लिम ते सिक्ख ईसाई।

साह्ड़ेयां पहाड़ां च मोहब्बता दी नुहार जिंदा ऐ ।।

 

करी सकेया नी कोई पहाड़ां दा बाल़ बांका ।

साह्ड़ी संस्कृति जिंदा ऐ साह्ड़ा संस्कार जिंदा ऐ ।।

 

हरणातरां जातरां नुआल़ेयां दे इत्थे नाच जींदे ।

हास्सेयां ठट्ठेयां दी मिट्ठड़ी फुहार जिंदा ऐ ।।

 

पिज्जां ककड़ां दी बणां च हुंकार जिंदा ऐ ।

मोरां मोनाल़ां दी उच्चड़ी उडार जिंदा ऐ  ।।

 

पच्छिमी सभ्यता भवें कितणें ई रंग लाए ।

लोहड़ी सैंरी ते रल़ियां  दा साह्ड़ा हर त्योहार जिंदा ऐ ।।

 

पच्छिमी हवा नी साह्ड़ा किच्छ बिगाड़ी सकदी ।

साह्ड़ेयां पहाड़ां दी ठंडड़ी बयार जिंदा ऐ ।।

 

बेईमानिया ठग्गिया इ नी इत्थे पुच्छदा कोई ।

साह्ड़ा ईमान जिंदा ऐ साह्ड़ा ऐतवार जिंदा ऐ ।।

 

रक्खदा बुक्कतां  प्यासेयां दी प्यास बुझाणे दियां।

साह्ड़ा नौण जिंदा ऐ साह्ड़ा पणिहार जिंदा ऐ ।।

 

गिटपिट अंग्रेजिया च दुनिया लाक्ख लायै ।

साह्ड़िया हिमाचलिया दा अपणा मयार जिंदा ऐ ।।

 

साह्ड़े हिमाचले दी नी कोई रीस दर्द ।

जालु तक एह् चन्न सूरज ते संसार जिंदा ऐ ।।

 

  5  

मुश्कलां के करगियां

मुश्कलां के करगियां उसदा जनाब ।

परां च जिसदे हौसला है बेहिसाब ।।

 

नित नी भरोइयां रैंदियाँ नदियां कदी ।

रक्खयो सम्हाली दोस्तों चढ़दा शबाब ।।

 

धुप्प छां सब वक्त दे ई खेल ने ।

गरीबियाँ नी रैंदियाँ नित नी नबाब ।।

 

अपणे पसीने पुर जिसजो विश्वास है ।

अध्धे अधूरे रैंहदे नी उसदे ख्वाब ।।

 

पढ़ी नी सकेया ओ बी चाला वक्त दा ।

उंगलियां प करदा रिया जेहड़ा हिसाब ।।

 

खरा नी हुन्दा अंहकरियां ने उलझणा ।

खरा नी दैणा हरेक गल्ला दा जबाब ।।

 

कुत्ते दी जात अप्पू पुच्छैणी जांदी ऐ ।

उसदे अग्गे सुट्टी ने दिक्खो कबाब ।।

 

माहणुए दे बिच्च माहणु पढ़णे दी ।

दर्द नी दुनिया च मिल्दी कोई किताब ।।

अशोक दर्द
ख्यालां दी खुशबू (हिमाचली कविता संग्रह),
अंजुरी भर शब्द, संवेदना के फूल, धूप छांव, बटोही (हिन्दी कविता संग्रह),
सिंदूरी धूप (कहानी संग्रह)
,
मेरे पहाड़ में और महकते पहाड़ - कविता संग्रह (संपादित),
कई पुरस्कारां नै सम्मानित 
 

Thursday, August 28, 2025

मुंबई डायरी

 


 अपणिया जगह छड्डी लोक मुंबई पूजे। न अपणे ग्रां भुल्ले, न शैह्र छुट्या। जिंदगी पचांह् जो भी खिंजदी रैंह्दी कनै गांह् जो भी बदधी रैंह्दी। पता नीं एह् रस्साकस्सी है या डायरी। कवि अनुवादक कुशल कुमार दी मुंबई डायरी पढ़ा पहाड़ी कनै हिंदी च सौगी सौगी। किस्त छे। 

 

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 काळे समुद्दर

(मुंबई च 1909 च पैह्ली काळी-प्यूळी टैक्सी चल्ली थी कनैं 1920 दे आस्सें-पास्सें वाया कराची हिमचलियां दे पैर मुंबई दी धरती पर पई चुक्यो थे। मुम्बई च असां दी एह् यात्रा अज भी जारी है। असां एत्थू अपणी इक लग पच्छैण बी बणाइयो कनैं अपणिया भासा कनैं संस्कृति जो भी जीन्दा रक्खेया।)

कमलेश्वर जी दा इक नावल है ‘समुद्र में खोया हुआ आदमी’। तिस च इक्की माह्णुए  दे चाणचक समुदरे च गुआची जाणे दी कथा है। प्हाड़ां च मुंबई जो भी समुदर ही मनया जांदा। इत्थू इक समुदर खारे पाणिये दा ता है ही, होर बी मते सारे हन। माह्णुंआं दा  समुदरगरीबिया-अमिरिया दा समुदर, कितणे की गिणने। जिञा सारियाँ नदियां-नालू समुदरे च गुआची जांदे तिञा ही ऐत्थू सारे समुदर गुआच्यां माह्णुंआं नै ही भरोयो हन। एह् जिसदी गल्ल है तिस दा गुआचणा क्या -ता मिलणा क्या? सैह् पैह्लें ही अपणे आप्पे ते गुआची चुक्या था। सैह् पुतरां दमागी बमारिया दे लाजे तांई ही मुंबई अन्दया था। एह् लग गल है कि छड़यां दे डेरयां च लग ही मस्ती कनैं लापरवाही होंदी। इस साह्बें तिन्हां बुजुर्गां दा गुआचणा लाजमी ही था। इक रोज सैह् घरे ते निकळे कनैं हटी नै नीं आये।

तिन्हां जो ठेट ग्रांचड़ पहाड़िया ते लावा होर कोई भासा नीं औंदी थी। सैह् कुत्थू चली गै कनैं तिन्हां कने क्या होया होंगा? लोक तिन्हां ते कुछ पुच्छदे होंगे सैह् तिन्हां जो समझा नी औंदा होणा कनैं तिन्हां दा गल्लाया भी कुसी जो समझा नी ओआ दा होणा। सैह् कितणा, कुत्थू कनैं किञा जिये होंगे। कुन्नी कुछ खाणे जो भी दित्ता होंगा कि भुक्खे ही मरी गै होंगे। मेरे बाल मने पर एह् सुआल देह्या लखोया कि मटोंदा ही नीं।

मतयां सालां बाद इक अधेड़ जणासा कन्ने बी एह् देई घटना होई गयी थी। सैह् बी बचारी मानसिक लाजे ताईं आइयो थी। गलतिया नै दराजा खुल्ला रइया कनैं बेध्यानिया च सैह् काह्लू बाह्र निकळी गई पता ही नीं लग्गा। पजां-दसां मिंटा च हादसा होई गिया। उसते बाद सारियां संभव कोससां कनै संचार दे साधन होणे दे बावजूद तिसा दा कुछ पता नीं लग्गा। तिसा दे बारे च ता सोची ही नीं होंदा। पाणिए दा समुदर ता डुब्यां माह्णुआं दे जिस्मां बाहर सटी दिंदा। माह्णुआं दा समुदर ता साबतयां ही निगळी जांदा। इक शराब कन्नैं नशयां दा भी समुदर है। सैह् बी अंदरे ते नचोड़ी जिस्मां दे खोखयां छडी जांदा।

तिह्नां बुजुर्गां दे दूईं पुतरां दे ब्याह होए, बच्चे भी होए। पर सैह् दुनिया ते जल्दी चले गै। हालांकि ग्रां-घराँ दे कठेवे च दुःखां दे दिन बी रामे कनै ही सुखे नैं कटोई जांदे। बच्चे भी गांह् बधी जांदे। पर इन्हां दूई दियाँ लाड़िया भाल न कोई रोजगार था, न कमाईया दा कोई जरिया, न सूह्लत थी। फिरी भी इन्हां मुंबई नी छड्डी। एत्थू रही नैं याण्या दी जिन्दगी बणी जाणी एह् ही सोच्या होणा। अंगरेजिया दा भूत तेह्ड़ी बी जोरे पर था। खैर औखी-सोखी कट्टी दोह्यो चली गइयां।

एह् लगदा कि हुण ता माड़ा देह्या बदलाव आई गिया पर सोचा ता क्या होंदी कुड़ियां दी जिन्दगी? कुड़ियां जो या ता राज मिलदा या फ्हिरी तिन्हां दी अन्दरली सैह् कुड़ी बी इक डरौणे बणे च गुआची जांदी। कुच्छ होर ही होई जांदियां कुड़ियां। लोक बोलदे भाग-तकदीर किछ नी होंदे पर एह् ता भागां दी गल है कि कुड़ियां जो ब्याहे ते बाद कदेई जिन्दगी मिलदी है। मेरे ब्याहे कनै-कनै ब्याह होया था। सैह् दुईं-चौंही मीह्नयां च जळी ने मरी गई थी।

अपराधां ते ता दुनिया दा कोई पास्सा नीं छुट्या। शैह्रां च, खास करी गरीबां कनैं घट कमाइया आळयां दियां बस्तियां च ता जादा ही कोप होंदा। उपरे ते तेह्ड़ी उतर भारत च चंबल कनैं डाकुआं दा जोर था। ओत्थू दे लोग राजेयां-महाराजेयां साही डाकुआं दियां भादरिया दा बखान कर दे थे। एह् देइयां फिल्मां दा दौर ता हाली बी गिया नीं। इस ते भी बच्यां दे कोरयां मना कनैं सोचा पर क्या असर पौंदा होणा। कुल मलाई नैं सार एह् निकलदा भई, अपराधी बुरा इंसान नीं, भादर होंदा कनैं कई बरी इसा व्यवस्था च अपराधी होणा मजबूरिया सौग्गी-सौग्गी जरूरी भी होई जांदा।इन्हां बस्तियां च रैह्णे आळेयां बच्चयां दा इसा अपराधां दिआ दुनिया ते बचणा बड़ा जरूरी होंदा। जे इसा ते बची भी जाह्न ता नशयां दा लग फेर है। हुण ता ड्रग्स भी शामिल होई गिओ।

इक ता इन्हां बस्तियाँ च रैहणे वाळे कमियां, दुखां कने मुस्कलां दी जिंदगी जिया दे होंदे। तल्खी कनैं गुस्सा जादा होंदा। लड़ाई झगड़े झट गुनाह वणी जांदे। शराबे दियां भठियां-अड्डे, जूए दे अड्डे, लाटरिया साही मटका नांए दा इक जुआ है। हुण ता घटी ईया पर पैह्लें इस जुए दे शकीन शराबियां ते बी ज्यादा थे। पड़दे पचांह बैठ्या माफिआ गिरोह इस जो बड़े ही व्यवस्थित कारोबारे साही चलांदे थे। इस च लोग नंबरां पर पैसे लांदे थे। जिस दे छीं दे छे नम्बर निकली जाह्न तिस जो चुआनिया दे दो हजार मिल दे थे। इस ते अलावा माफिया करोबारां च जुआ, गैरकनूनी शराब, समग्लिंग, बन्दरगाह चोरी, फिल्मा दे टिकटां दी  काळाबजारी, रंगदारी साही कम्मां च बड़े खूंखार कनैं नामी गिरोह थे। इन्हां दे सरगने फौजी कमांडरां ते बी गांह बधी नै अज के कारपोरेट साही बपार करदे थे। देशां दिआं फौजां साही लाक्यां पर कब्जयां ताईं इन्हां दे अप्पू च युद्ध भी छिड़यो ही रैंह्दे थे। इन्हां सरगनयां कनैं गिरोहां तांई एह् बस्तिआं नौयां रंगरूटां जो भरती करी अपराधी बणाणे दी टरेनिंग देणे दा केंदर थिआं।

मिंजो कने स्कूले च इक दबंग पूरबिया मुंडू था। मार कटाई च गांह रैह्णे दे कारण छोरुआं दा हीरो था। तिस ते पढ़ाई ता पूरी होई नीं। बुढ़ें रेलवे च नौकरिया लगवाई ता। इस जो अंदर बैठणे ते जादा लोकला दिया छत्ती पर बही नै जाणे च जादा मजा औंदा था। ब्याह पैह्लें ही होया था इक बिट्टी भी थी। साहब भाई बणीं नौकरिया छडी लाका संभलणा लगी पै। तिस दिया अर्थिया च मैं पैह्ली बरी जब तक सूरज चांद रहेगा………..। नारा सुणया था। अज भी हर साल इक गणपती पंडाल च तिसदी तसवीर टंगोईयो मिलदी। तिस दी जिन्दगी ता गई पर तिस कनैं चार होर जींदे ही मरी गे।

इक बड़े पैसे आळे दा पुतर था। तिस जो मौज मस्ती करने जो पैसे घट पोंदे थे। ता सैह् अपणिया कारा च राती जो लुट मार करदा था। तिस दे फेरे च मेरा इक पहाड़ी मित्तर वकालत पढ़ी ने बकील बणदा-बणदा जेह्ला च पूजी गिया।

तुसां सोचा दे होणे गुआचयां माह्णुआं दियां कथाँ दा गुनाहां दे किस्सेयां ने क्या मेल है। मेल ता कोई नीं है पर गलाई नीं सकदे कुसी जो कुत्थू क्या मिली जाऐ। समुदरे च इक बरी पैरां हेठे ते रेत जमीन खिसकी जाए ता माह्णुए दा कोई बस नी चलदा।

लेह्रां तिस जो कुसी भी कनारें लई जांदिआं। कनारे पर जीन्दा बची नैं लग्गै या मरी ने, तकदीरा दे हत्थें ही होंदा। पहाड़ा ते इक नौईं जिंदगी भ्याग तोपणा ओणें आळे कई इस समुदरे दे भी शकार बणे। इकना दुईं इसा दुनिया पर भी राज किता कनैं उसते बाद खरी जिंदगिया दा भी नन्द लिया। अज भी मौजां च हन कनैं कुछ जुआनिआ च ही जान गुआई चले गै। इक ता बचारा दो चार दिन पैह्लें ही आया था। तिस बचारे जो कोई होर समझी नैं ही मारी ता था।

एह् बड़े ही दुःखे आळी गल है कि एह् कथा बी हिन्दी फिल्मां साही राजी-खुशी वाळे मोडे़ पर लगभग पूजदी आईयो थी। इक्की माऊ दे दो पुतर थे। इक्की दी पढ़ी लिखी ठीक ठाक नौकरी लगी गइयो थी। दुआ डरैबर बणी गिया था। पर इसा कहाणिया दे किरदारां जो गुनाहां दे समुदरे दियां लैह्रां खिंजी नैं लई गइयां।

लाके दा कोई गुंडा तिह्नां जो तंग करदा था। इक रोज गल बधी गई कनैं मार कटाइया च सैह् मरी गिया। तिनों जेह्ला च पूजी गै। इक बरी जेह्ड़ा चिकडे़ च फसी जाऐ सैह् मंडोंदा ही चला जांदा। तिन्नों बाहर आये फ्हिरी कुछ होया। मा तिस सदमे कनैं बमारिया नै चली गई। पुत्तर जेह्ला च। एह् देह्या कुसी ने कुत्थी भी होई सकदा। मती बरी परिस्थितियां लचार करी दिंदियां पर माह्णुए दी अपनी सोच भी ता जिम्मेवार होंदी। मेद है तिह्नां कनैं गांह् सब ठीक होऐ। सैह् सुखी, स्वस्थ कनैं अपराध मुक्त जिंदगी जीण।

  

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 काळे समंंदर

(मुंबई में 1909 में पहली काली-पीली टैक्सी चली थी और 1920 के आसपास वाया कराची हिमाचलियों के चरण मुंबई की धरती पर पड़ गए थे। उसके बाद मुंबई में हमारी जो यात्रा आरंभ हुई वह आज भी जारी है। हमने यहां अपनी एक अलग पहचान भी बनाई है और अपनी भाषा के साथ-साथ संस्कृति को भी जीवित रखा है।)

कमलेश्वर जी का एक उपन्यास है ‘समुद्र में खोया हुआ आदमी’। उसमें एक इंसान के अचानक समुद्र में खो जाने की कहानी है। पहाड़ों में मुंबई को भी समुद्र ही माना जाता है। यहां एक खारे पानी का समंदर तो है पर और भी बहुत सारे समंदर हैं। इंसानों का समुद्र, गरीबी-अमीरी का समुद्र, कितनों के नाम गिनें। जिस तरह सारी नदियां और नाले समुद्र में आ कर गुम हो जाते हैं, उसी तरह ये सारे समुद्र भी गुम हुए इंसानों से ही भरे हुए हैं। जिसकी यह कथा है। उसका गुम होना क्या, तो मिलना क्यावह पहले ही अपने आप से गुम हो चुका था।उसके बेटे दिमागी बीमारी के इलाज के लिए उसे मुंबई ले कर आए थे। यह अलग बात है कि परिवार से अलग समूह में रहने वाले युवाओं के घरों में अलग ही मस्ती और लापरवाही होती है। इस हिसाब से उन बुजुर्ग का गुम होना लाजमी था। एक रोज वे घर से निकले और वापस नहीं आए। उन्हें ठेठ ग्रामीण पहाड़ी के अलावा और कोई भाषा नहीं आती थी। वे कहां चले गए और उनके साथ क्या हुआ होगा? लोग उनसे जो पूछते होंगे वह उन्हें समझ नहीं आता होगा और वे जो बोलते होंगे, वह भी किसी को समझ में नहीं आ रहा होगा। वे कितना, कहां और कैसे जिए  होंगे? किसी ने उन्हें खाने को भी कुछ दिया होगा या भूखे ही मर गए होंगे। मेरे बाल मन पर यह सवाल ऐसे छपे कि आज भी मिटे नहीं हैं।

बहुत साल बाद ऐसी ही मानसिक स्थिति वाली एक अधेड़ महिला के साथ भी ऐसी ही घटना हो गई थी। वह भी मानसिक बीमारी के इलाज के लिए आई थी। गलती से दरवाजा खुला रह गया और वह कब बाहर निकल गई पता ही नहीं चला। 5-10 मिनट में ही यह हादसा हो गया। उसके बाद सभी संभव कोशिशों और संचार के सारे साधन होने के बावजूद उसका कुछ पता नहीं चल सका। उसके बारे में तो सोच कर ही डर लगता है। पानी का समंदर तो डूबे हुए इंसानों के जिस्मों को बाहर फेंक देता है लेकिन इंसानों का समंदर पूरे के पूरे इंसान को ही निगल जाता है। इसके अलावा शराब और नशों का एक और समुद्र है। वह भी इन्सान को अंदर से निचोड़ कर शरीर के खोखे को छोड़ जाता है।

बुजुर्ग के दोनों बेटों के विवाह हुए, परिवार बसा और बच्चे भी हुए। हालांकि गांव में घरों के कठेवे में दुखों के दिन भी आराम से और सुख से कट जाते हैं। बच्चे भी आगे बढ़ जाते हैं पर उन दोनों की पत्नियों के पास न तो कोई रोजगार था न कमाई का कोई जरिया और न कोई सहूलियत। इसके बावजूद इन्होंने मुंबई नहीं छोड़ी। शायद बच्चों की जिंदगी बनाने के बारे में सोचा होगा। अंग्रेजी का भूत उस समय भी जोरों पर था। खैर, किसी तरह एक संघर्ष की जिंदगी काट कर दोनों चली गईं।

ऐसा लगता है कि अब थोड़ा सा बदलाव आया है। सच में देखा जाए तो लड़कियों की जिंदगी क्या होती है? लड़कियों को या तो राज मिलता है या फिर उनके अंदर की वह लड़की भी एक डरावने वन में खो जाती है। कुछ और ही हो जाती हैं लड़कियां। लोग कहते हैं कि भाग्य और तक़दीर कुछ नहीं होता है पर यह तो भाग्य की ही बात है। एक लड़की को विवाह के बाद कैसा जीवन मिलेगा। मेरे विवाह के साथ-साथ एक लड़की का विवाह हुआ था। उसने दो-चार महीने में ही आत्महत्या कर ली थी।

अपराधों से दुनिया का कोई हिस्सा नहीं छूटा है। शहरों में, खासकर गरीब और कम कमाई वालों की बस्तियों में इनका ज्यादा ही प्रकोप रहता है। उस समय उत्तर भारत में चंबल और डाकुओं का बड़ा जोर था। वहां के लोग मिर्च-मसाला लगा कर डाकुओं की बहादुरियों का बखान करते थे। ऐसी फिल्मों का दौर अभी भी जारी है, जिनमें नायक अपराधों की दुनिया से आते हैं। इससे भी बच्चों के कोरे मन पर और सोच पर क्या असर होता होगा? कुल मिलाकर सार यह निकलता है कि भई अपराधी बुरा इंसान नहीं, बहादुर होता है और कई बार व्यवस्था में अपराधी होना मजबूरी के साथ-साथ जरूरी भी हो जाता है। इन बस्तियों में रहने वाले बच्चों का अपराधों की इस दुनिया से बचना बहुत जरूरी होता है। इससे बच भी जाएं तो नशों का एक अलग जाल है। अब तो ड्रग्स भी शामिल हो गई हैं।

एक तो इन बस्तियों में रहने वाले कमियों, दुखों और मुश्किलों की जिंदगी जी रहे होते हैं। तल्खी और गुस्सा ज्यादा होता है। छोटे-मोटे लड़ाई झगड़े झट से गाली गलौज और गुनाह में बदल जाते हैं। शराब की भट्टियाँ और अड्डे, जुए के अड्डे, लॉटरी की तरह मटका नाम का एक जुआ है। जो अब तो कम हो गया है लेकिन उस समय इसके शौकीन शराबियों से भी ज्यादा थे। पर्दे के पीछे बैठे माफिया सरगना इसको बड़े ही व्यवस्थित व्यापार की तरह चलाते थे। इसमें लोग एक से छह नंबरों पर दाव लगाते थे। जिसके छह के छह नंबर निकल जाते थे उसे चार आने के 2000 मिलते थे। इसके अलावा माफिया कारोबारों में स्मगलिंग, बंदरगाह चोरी, सिनेमा के टिकटों की काला बाजारी, रंगदारी जैसे अपराधों में लिप्त बड़े खूंखार और नामी गिरोह थे।

इनके सरगना फौजी कमांडरों से भी आगे बढ़कर आज के कारपोरेट की तरह व्यापार करते थे। देश की फ़ौजों की तरह इलाकों पर कब्जे के लिए उनके बीच युद्ध छिड़े रहते थे। इन सरगना और गिरोहों के लिए यह बस्तियां नए रंगरूटों की भर्ती करने और उन्हें अपराधी बनाने का प्रशिक्षण देने का केंद्र हुआ करती थीं। मेरे साथ स्कूल में एक दबंग लड़का था। मारपीट में हमेशा आगे रहने के कारण वह आवारा लड़कों का हीरो था। उससे पढ़ाई तो पूरी हुई नहीं पर पिता ने रेलवे में नौकरी लगवा दी। इस को लोकल में अंदर बैठने के बजाए छत पर ज्यादा मजा आता था। विवाह पहले ही हो चुका था एक लड़की भी थी।यह साहब नौकरी छोड़कर भाई बन गए और इलाका संभालने लगे। मैंने उसकी अंतिम यात्रा में पहली बार जब तक सूरज चांद रहेगा…  यह नारा सुना था। आज भी हर साल एक गणपति पंडाल में उसकी तस्वीर टाँगी जाती है। उसका जीवन तो गया साथ में चार और जीते जी मर गए।

 

एक बड़े पैसे वाले का बेटा था। उसको मौज मस्ती करने के लिए पैसे कम पढ़ते थे तो वह अपनी कार में रात को लूट मार करता था। उसके चक्कर में मेरा एक पहाड़ी मित्र वकालत पढ़कर वकील बनते-बनते जेल में पहुंच गया था।

आप सोच रहे होंगे कि खोए हुए आदमियों की कथाओं के साथ गुनाहों के क़िस्सों का क्या तुक है? कुछ कहा नहीं जा सकता है। जिंदगी में किसको कहाँ क्या मिल जाए? समुद्र में एक बार पैरों के नीचे से रेत खिसक जाए तो आदमी का कोई बस नहीं चलता है। लहरें उसे किसी भी किनारे पर ले जाती हैं। अब किनारे पर वह जिंदा पहुंचे या उसका मृत शरीर, सब तकदीर के हाथ होता है। पहाड़ों से एक नई जिंदगी की तलाश में आने वाले कई इस समुद्र के भी शिकार बने। दो चार ने इस दुनिया पर राज भी किया और उसके बाद अच्छी जिंदगी का आनंद भी लिया। आज भी मौज में हैं और कुछ जवानी में ही जान गवां कर चले गए। एक बेचारा तो दो-चार दिन पहले ही आया था, उसे कोई और समझ कर मार डाला गया था।

यह बड़े ही दुख की बात है कि यह कथा भी हिंदी फिल्मों की तरह राजी खुशी वाले मोड़ पर पहुंच रही थी। एक मां के दो बेटे थे। एक की पढ़ लिख कर ठीक-ठाक नौकरी लग गई थी, दूसरा ड्राइवर बन गया था। परंतु इस कहानी के किरदारों को गुनाहों के समुद्र  की लहरों ने अपनी तरफ खींच लिया।

इलाके का कोई गुंडा मां बेटे को तंग करता था। एक रोज बात बढ़ गई और  मारपीट में वह गुंडा मर गया। तीनों जेल में पहुंच गए। एक बार जो कीचड़ में फंस जाता है, वह और फँसता ही जाता है। वे तीनों जेल से बाहर आए और फिर से कुछ ऐसा ही हो गया। उसके बाद सदमे और बीमारी से माँ का देहान्त हो गया और बेटे जेल में हैं।

यह महज़ एक संयोग ही है। ऐसा किसी के साथ कहीं भी हो सकता है। कई बार परिस्थितियाँ लाचार कर देती हैं लेकिन इंसान की अपनी सोच भी कुछ हद तक तो जिम्मेदार होती होगी। उम्मीद है आगे सब ठीक हो। वे सुखीस्वस्थ और अपराधमुक्त  जिंदगी जीएं।

(चित्रकृति : एडवर्ड मंच। इंटरनेट से साभार)

मुंबई में पले बढ़े कवि अनुवादक कुशल कुमार
2005-2010 तक मुंबई से हिमाचल मित्र पत्रिका का संपादन किया।
चर्चित द्विभाषी कविता संग्रह मुठ भर अंबर।