पहाड़ी भाषा दी नौई चेतना .

Sunday, February 18, 2024

पंजाबी कविता

 


सन 1980-81 च मैं गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी अमृतसर ते एम फिल कीती। कताबां लैणे ताईं असां हाल बजार च रवि साहित्य प्रकाशन जांदे थे। तिन्हां व्हाल हिंदिया कनै पंजाबिया दियां कताबां हुंदियां थियां। बाद बिच भी जदूं भी अमृतसर जाणा होया, रवि साहित्य प्रकाशन दा फेरा जरूर पाया। रविंदर रवि होरां दा एह् कविता संग्रह गंढां तिन्हां ई फेरयां दा हासिल है। 2003 च यूटीआई छड्डेया तां समाने सौगी कई कताबां भी घरैं भेजी तियां। एह् कताब भी वाया मुंबई धर्मसाळा पूजी। किछ चिर पैह्लें तेज भाई होरां एह् टोळी लई कनै कुछ कवतां दी गठ पहाड़िया च खोली। मैं कोसस कीती पंजाबिया ते हिंदिया च करने दी। रवि होरां गठां दी महिमा लग-लग तरीके नै गाइयो है। कइयां जगहां मेह्ते गठ ना खुल्लै। मैं अंबरसरे दे पुराणे साथी राज ऋषि होरां ते गठ खुलाह्ई। कइयां कवतां चा ते दो अज पेश हन।  - अनूप सेठी

मूल पंजाबी - रविंदर रवि, पहाड़ी - तेज कुमार सेठी, हिंदी - अनूप सेठी     


गट्ठां दा चक्करव्यूह

दित्यालुये  'च ऑमलेट

गट्ठ बणी नै बैठेया ।

 

तार, तार उळ्झियो

डबल रोटी

 

छुरिया दे तिक्खेयां दन्देयां हेठीयें

जो वी बची निकळदा

कांटे बिच्च,

गट्ठी सांह्यीं,

उळझी जान्दा ।

 

गट्ठां जो गट्ठां

खाअ दींयां ।

 

गट्ठां जो गट्ठां

धिया दीयां ।

 

गट्ठां जो गट्ठां

बचाअ दींयां ।

 

गट्ठां जो गट्ठां

जमाअ दींयां ।

 

इक मुद्दता ते लाड़ी

गट्ठड़ीया सांह्यीं बज्झी नै बैठीयो -

खुह्लदी ही नीं

अणजमिया धीया दे संकल्पे विहारे बिच्च उळझीयो ।

 

पुत्तर

गळ  गट्ठड़ूये सांह्यीं

बाह्रीयें हासदे खुह्लदे भी

अन्दरीयें घुटेयो, बटोह्यो बैहट्ठेयो ।

 

 

 

गट्ठ ही मा

गट्ठ ही बुढ़ा है ।

 

गट्ठ हर रिस्ता,

आप कनै  अनापा है।

 

गट्ठ वातावरण है,

वर है, स्राप है।

 

गट्ठ ही है रब, धर्म,

सबद गट्ठ जाप है।

 

गट्ठ पिण्ड, बह्मण्ड,

गर्भगर्भ-पात है।

 

गट्ठ राजनीत है, कनै

सत्ता- संताप   है ।

 

गट्ठां गट्ठीं सौग्गी

फेरे लई लै !

गट्ठां जो गट्ठीं दे

झगड़े पई गै !

 

गट्ठां बिच्च गट्ठीं

फुल्ली पईयां !

 

गट्ठां च ते निकळदियाँ

गट्ठां दा इक अनन्त सिलसिला -

चक्रव्यूहे संह्यीयें,

मेरैं आळे दुआळैं

फैल्लीय्या !

 

 गट्ठां

गट्ठ- त्रुप्पी च बीतै जिन्दड़ी

गट्ठीं-त्रुप्पेयां बिच्च सब रिस्ते

तने बिच्च गट्ठीं, मने बिच्च गट्ठीं

गट्ठीं बस्तर, गट्ठां वाणी

गट्ठीं हेठ अल्प है वस्तु

गट्ठीं च पळचोईयो सारी क्हाणी

 

गट्ठीं बिच्च घटोह्येया आप्पा

गट्ठीं बिच्च बज्झीयो अज़ादी

गळे बिच्च गट्ठीं, जीब्भा च गट्ठीं

दिले बिच्च गट्ठीं, सोच्चा च गट्ठीं

गट्ठीं दी जून भुगतदे   प्राणी

सुफने गट्ठीं , होस्सा च गट्ठीं

 

हुण जाल्हू जे तेरा चेत्ता औयै

गट्ठीं बद्धेया जिस्म दुह्स्सै बस

तू  कुती भी नज़री नी औयै

तेरैं अन्दर :  हीरा'च गट्ठीं

घरे आळीया दे खमीरा  'च गट्ठीं

तेरिया हरिक तस्वीरा   'च गट्ठीं

*

धरतू कनै अस्माणे छूआ करदे

सीह्स्सेयां दे इस बणैं अन्दर

गट्ठीं 'चा ते गट्ठीं  फुट्टणे सांह्यीं

बिम्बां ' चा ते बिम्ब निकळदे औह्न

गट्ठो- गट्ठीं चलदे जाइये

फुटदे, टुटदे, भुरदे जाइए

 

दरे बिच्च वी, दुआल्लां   'च गट्ठीं

मन्दर, गुरुद्वारे   'च गट्ठीं

सिस्टम उळ्झेयो, उळ्झियो नीति

बैह्सां 'च वीबचारां ' च गट्ठीं

हर प्राणी  गट्ठीं  दा  गुम्बद

उळ्झी गेह्या संसारे  'च गट्ठीं ।

गांठों का चक्रव्यूह

नाश्ते में ऑमलेट

गांठ बना बैठा है

 

तार, तार उलझी हुई

डबलरोटी

 

छुरी के तीखे दांतों में से

जो भी बच निकला है

कांटे में

गांठ सरीखा

उलझ जाता है

 

गांठों को गांठें

खा रही हैं

 

गांठों को गांठें

अराध रही हैं

 

गांठों को गांठें

बचा रही हैं

 

गांठों को गांठें

जमा रही हैं

 

एक मुद्दत से पत्नी

गठड़ी जैसी बनी बैठी है-

खुलती ही नहीं

अजन्मी बेटी के संकल्प लिए व्यवहार में उलझी

 

बेटा

गल-गांठ की तरह

बाहर हंसतेखुलते भी

अंदर घुटे, बटे हुए बैठे हैं

 

 

 

गांठ ही मां

गांठ ही बाप है

 

गांठ हर रिश्ता

आप और अनाप है

 

गांठ वातावरण है

वर है, श्राप है

 

गांठ ही है रब, धर्म

सबद गांठ जाप है

 

गांठ पिंड ब्रह्मांड

गर्भ, गर्भपात है

गांठ राजनीति है और

सत्ता-संताप है

 

गांठों ने गांठों संग

फेरे ले लिए

गांठों को गांठों के

झगड़े पड़ गए

 

गांठों में गांठों पर

फूल पड़ गए

 

गांठों में से निकलता है

गांठों का एक अनंत सिलसिला

चक्रव्यूह की तरह

मेरे आसपास

फैल गया है

 

 

गांठें

गांठ-जोड़ में बीते जिंदगी

गांठ-जोड़ में सब रिश्ते

तन में गांठें, मन में गांठें

गांठ हैं कपड़े, गांठें वाणी 

गांठों तले अल्प है वस्तु 

गांठों में उलझी सकल कहानी

 

गांठों बीच घट गया आपा

गांठों बीच बंधी आजादी

गले में गांठें, जीभ में गांठें

दिल में गांठें, सोच में गांठें

गांठ की यानी भोग रहे प्राणी

सपने में गांठें, होश में गांठें

 

अब तेरी याद जो आए

गांठों में बंधा शरीर दिखे बस

तू कहीं भी पजर न आए

तेरे अंदर : हीर में गांठें

पत्नी के खमीर में गांठें

तेरी हरेक तस्वीर में गांठें

 

धरती और असमान छू रहे

शीशों के इस जंगल अंदर

गांठों से गांठों के अंकुर जैसे

बिंब से बिंब नकलते आएं

गांठ गांठ चलते जाएं

फूटते, टूटते, झरते जाएं

 

दर के बीच दीवार में गांठें

मंदिर, गुरुद्वारे में गांठें

सिस्टम उलझे हैं, है उलझी नीति

वाद में भी, विचार में गांठें 

हर प्राणी गांठों का गुम्बद

उलझ गया, संसार में गांठें ।

ਗੰਡਾਂ ਦਾ ਚੱਕਰਵਯੂਹ

ਨਾਸ਼ਤੇ  ' ਆਮਲੇਟ

ਗੰਢ ਬਣੀ ਬੈਠਾ ਹੈ

 

ਤਾਰ, ਤਾਰ ਉਲਝੀ ਹੈ

 ਡਬਲ ਰੋਟੀ

 

ਛੁਰੀ ਦੇ ਤਿੱਖੇ ਦੰਦਿਆਂ ਹੇਠੋਂ

ਜੋ ਵੀ ਬਚ ਨਿਕਲਦਾ ਹੈ,

ਕਾਂਟੇ ਵਿਚ,

ਗੰਢ ਵਾਂਗ,

ਉਲਝ ਜਾਂਦਾ ਹੈ !

 

ਗੰਢਾਂ ਨੂੰ ਗੰਢਾਂ

ਖਾ ਰਹੀਆਂ ਹਨ !

 

ਗੰਢਾਂ ਨੂੰ ਗੰਢਾਂ

ਧਿਆ ਰਹੀਆਂ ਹਨ !

 

ਗੰਢਾਂ ਨੂੰ ਗੰਢਾਂ

ਬਚਾ ਰਹੀਆਂ ਹਨ !

 

ਗੰਢਾਂ ਨੂੰ ਗੰਢਾਂ

ਜਮਾ ਰਹੀਆਂ ਹਨ !

 

ਇਕ ਮੁੱਦਤ ਤੋਂ ਪਤਨੀ

ਗੱਠੜੀ ਵਾਂਗ ਬੱਝੀ ਬੈਠੀ ਹੈ

ਖੁੱਲ੍ਹਦੀ ਹੀ ਨਹੀਂ

ਅਜਨਮੀਂ ਧੀ ਦੇ ਸੰਕਲਪੇ ਵਿਹਾਰ ਵਿੱਚ ਉਲਝੀ

 

ਪੁੱਤਰ,

ਗੱਲ ਗੰਢ ਵਾਂਗ,

ਬਾਹਰੋਂ ਹੱਸਦੇ, ਖੁੱਲ੍ਹਦੇ ਵੀ

ਅੰਦਰ ਘੁਟੇ, ਵੱਟੇ ਬੈਠੇ ਹਨ !

 

 

ਗੰਢ ਹੀ ਮਾਂ,

ਗੰਢ ਹੀ ਬਾਪ ਹੈ !

 

ਗੰਢ ਹਰ ਰਿਸ਼ਤਾ,

ਆਪ ਤੇ ਅਨਾਪ ਹੈ .

 

ਗੰਢ ਵਾਤਾਵਰਨ ਹੈ,

ਵਰ ਹੈ, ਸਰਾਪ ਹੈ !

 

ਗੰਢ ਹੀ ਹੈ ਰੱਬ, ਧਰਮ,

ਸ਼ਬਦ ਗੰਢ ਜਾਪ ਹੈ

 

ਗੰਢ ਪਿੰਡ, ਬ੍ਰਹਿਮੰਡ,

ਗਰਭ, ਗਰਭ-ਪਾਤ ਹੈ !

 

ਗੰਢ ਰਾਜਨੀਤੀ ਹੈ, ਤੇ

ਸੱਤਾ-ਸੰਤਾਪ ਹੈ !

 

ਗੰਢਾਂ ਨੇ ਗੰਢਾਂ ਨਾਲ

ਫੇਰੇ ਲੈ ਲਏ !

ਗੰਢਾਂ ਨੂੰ ਗੰਢਾਂ ਦੇ

ਝੇੜੇ ਪੈ ਗਏ !

 

ਗੰਢਾਂ ਵਿੱਚ ਗੰਢਾਂ

ਫੁੱਲ੍ਹ ਪਈਆਂ!

 

ਗੰਢਾਂ ਵਿੱਚੋਂ ਨਿਕਲਦੀਆਂ

ਗੰਢਾਂ ਦਾ ਇੱਕ ਅਨੰਤ ਸਿਲਸਿਲਾ--

ਚੱਕਰਵਯੂਹ ਵਾਂਗ,

ਮੇਰੇ ਆਲੇ ਦੁਆਲੇ

ਫੈਲ ਗਿਆ ਹੈ!

 

 

ਗੰਢਾਂ

ਗੰਢ-ਤੁੱਪ ਦੇ ਵਿਚ ਬੀਤੇ ਜੀਵਨ

ਗੰਢ-ਤੁੱਪ ਵਿਚ ਸਭ ਰਿਸ਼ਤੇ

ਤਨ ਵਿਚ ਗੰਢਾਂ, ਮਨ ਵਿਚ ਗੰਢਾ

ਗੰਢਾਂ ਵਸਤਰ, ਗੰਢਾਂ ਵਾਣੀ

ਗੰਢਾਂ ਹੇਠ ਅਲਪ ਹੈ ਵਸਤੂ

ਗੰਢੀ ਉਲਝੀ ਸਗਲ ਕਹਾਣੀ

 

ਗੰਢਾਂ ਦੇ ਵਿਚ ਘੱਟਿਆ ਆਪਾ

ਗੰਢਾਂ ਵਿਚ ਬੱਝੀ ਹੈ ਆਜ਼ਾਦੀ

ਗਲ ਵਿਚ ਗੰਢਾਂ, ਜੀਭ ' ਗੰਢਾਂ

ਦਿਲ ਵਿਚ ਗੰਢਾਂ, ਸੋਚ ' ਗੰਢਾਂ

ਗੰਢ ਦੀ ਜੂਨ ਭੁਗਤਦੇ ਪ੍ਰਾਣੀ

ਸੁਫ਼ਨੇ ਗੰਢਾਂ, ਹੋਸ਼ ' ਗੰਢਾਂ

 

ਹੁਣ ਜਦ ਤੇਰਾ ਚੇਤਾ ਆਵੇ

ਗੰਢੀ ਬੱਝਾ ਜਿਸਮ ਦਿਸੇ ਬੱਸ

ਤੂੰ ਕਿਧਰੇ ਵੀ ਨਜ਼ਰ ਨਾ ਆਵੇ

ਤੇਰੇ ਅੰਦਰ : ਹੀਰ ' ਗੰਢਾਂ

ਪਤਨੀ ਦੇ ਖਮੀਰ ' ਗੰਢਾਂ

ਤੇਰੀ ਹਰ ਤਸਵੀਰ ' ਗੰਢਾਂ

 

ਧਰਤੀ ਤੋਂ ਅਸਮਾਨ ਛੂਹ ਰਹੇ

ਸ਼ੀਸ਼ਿਆਂ ਦੇ ਇਸ ਜੰਗਲ ਅੰਦਰ

ਗੰਢ 'ਚੋਂ ਗੰਢ ਦੇ ਫੁੱਟਣ ਵਾਂਗੂੰ

ਬਿੰਬ 'ਚੋਂ ਬਿੰਬ ਨਿਕਲਦੇ ਆਵਣ

ਗੰਢ ਗੰਢੀ ਤੁਰਦੇ ਜਾਈਏ

ਘੁੱਟਦੇ, ਟੁੱਟਦੇ, ਭੁਰਦੇ ਜਾਈਏ

 

ਦਰ ਵਿਚ ਵੀ, ਦੀਵਾਰ ' ਗੰਢਾਂ

ਮੰਦਰ, ਗੁਰੂ-ਦਵਾਰ ' ਗੰਢਾਂ

ਸਿਸਟਮ ਉਲਝੇ, ਉਲਝੀ ਨੀਤੀ

ਵਾਦ ' ਵੀ, ਵਿਚਾਰ ' ਗੰਢਾਂ

ਹਰ ਪ੍ਰਾਣੀ ਗੰਢਾਂ ਦਾ ਗੁੰਬਦ

ਉਲਝ ਗਿਆ, ਸੰਸਾਰ ' ਗੰਢਾਂ


रविंदर रवि का ब्लॉग  


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