पहाड़ी भाषा दी नौई चेतना .

Sunday, October 25, 2015

गल सिद्धी थी पर

हिन्‍दी दे वरिष्‍ठ कवि कुंवर नारायण दी कवता बात सीधी थी पर दा पहाड़ी अनुवाद पेश है।  

गल सिद्धी थी पर 


गल सिद्धी थी पर इक बरी 
भाषा दे चकरे च
ज़रा ढेरी होई नै  फसी गई ।

सै: मिली जाऐ इहा कोससा च
भासा पुट्ठी सिद्धी कीती
तोउ़ी मरोड़ी
घुमाई फराई
भई गल या ता बणै
या फिरी भासा ते बाह्र निकळै-
पर होया एह् भई भासा सौगी सौगी
गल होर भी घमळोंदी गई ।

सारिया मुसकला जो ठंडे दमागे नै समझे बगैर
मैं पेचे जो खोलने दे बजाए
बुरे हालें कसदा जा दा था
कैंह् कि इस करतबे पर मिंजो
साफ़ सुम्‍मा दी थी
तमाशबीनां दी शाबाशी कनै वाह वाह ।

आख़िरकार सैही होया जिह्दा मिंजो डर था
ज़ोर ज़बरदस्ती करने ते
गल्‍ला दी चूड़ी मर गई
कनै सैह् भासा च फिजूल घुमणा लगी पई।

हारी फारी नै मैं तिहा जो मेखा साही
उसा ई ठाह्री गडी ता।
उपरा ते ठीक ठाक
पर अंदर
न ता तिसा च कस था
न ताकत।

गल, जेह्डी शरारती याणे साह्ई
मिंजो नै खेह्ला दी थी,
मिंजो पसीना पूंह्जदेयां दिक्‍खी पुछणा लगी
तैं भासा जो 
सूह्लता नै बरतणा कदी नी सिक्‍खेया ?”

रचनाकार: कुंवर नारायण  
पहाड़ी अनुवाद: अनूप सेठी  

बात सीधी थी पर -

बात सीधी थी पर एक बार

भाषा के चक्कर में

ज़रा टेढ़ी फँस गई ।

उसे पाने की कोशिश में

भाषा को उलटा पलटा

तोड़ा मरोड़ा

घुमाया फिराया

कि बात या तो बने

या फिर भाषा से बाहर आये-

लेकिन इससे भाषा के साथ साथ

बात और भी पेचीदा होती चली गई ।

सारी मुश्किल को धैर्य से समझे बिना

मैं पेंच को खोलने के बजाय

उसे बेतरह कसता चला जा रहा था

क्यों कि इस करतब पर मुझे

साफ़ सुनायी दे रही थी

तमाशाबीनों की शाबाशी और वाह वाह । 

आख़िरकार वही हुआ जिसका मुझे डर था

ज़ोर ज़बरदस्ती से

बात की चूड़ी मर गई

और वह भाषा में बेकार घूमने लगी ।

हार कर मैंने उसे कील की तरह

उसी जगह ठोंक दिया ।

ऊपर से ठीकठाक

पर अन्दर से

न तो उसमें कसाव था

न ताक़त । 

बात ने, जो एक शरारती बच्चे की तरह

मुझसे खेल रही थी,

मुझे पसीना पोंछती देख कर पूछा

क्या तुमने भाषा को

सहूलियत से बरतना कभी नहीं सीखा ?”

कुंवर नारायण



इसा कवता पर पहाड़ी पंची दं पंचां दियां टिप्‍पणियां

नवनीत शर्मा:  बहुत खूब कने बड़ी मौके दी कविता। अनुवाद ता क्या ही ग्लाइये। बड़ा छैळ। मिंजो एह हिस्सा बड़ा पसंद आया या चुभ्भा किछ भी गलाई सकदे। बड़ी महीन मार है एह। कुथि असां भी भाषा ने एह ही ता नी करा दे? मिंजो नी लगदा भई अज भूत नेडैं औंहगा। 
सारिया मुसकला जो ठंडे दमागे नै समझे बगैर 
मैं पेचे जो खोलने दे बजाए
बुरे हालें कसदा जा दा था
कैंह् कि इस करतबे पर मिंजो
साफ़ सुम्‍मा दी थी
तमाशबीनां दी शाबाशी कनै वाह वाह ।

भूपेंद्र: बहुत उम्दा सेठी सर।नवनीत भाइयां दिया गल्ला कन्ने सहमत। सेठी सर शब्द-चयन बड़ा ही कमाल दा है जी ';नुवाद विच!

द्विजेंद द्विज: बिल्कुल कवता दे मकैनिकां वाळी भाषा।कवता जे कुथि है ता देह्ये देह्ये भाषा दे चुस्त मकैनिकां वला ई बचियो। कने मकैनिक इ मकैनिक दिया भाषा जो समझी सकदा। अनूप भाई जी बधिया👌
मोनिका शर्मा स्वार्थी: अनूप जी  बड़ीया बधिया कने जायज 100%सच्चाई है कवता दे अनुवादे चह।
सांख्‍यान बलदेव: सेठी जी ! मूल क्बीता ता मिंजो पता नि पर जेह्डा तुसें अनुवाद रिया सक्ला च लिख्या सैह बौह्त इ बधिया !

ललित मोहन शर्मा: गल्ला दी चूड़ी मरी गई।

अनूप जी मज़ा ई आई गया। खरे अनुवाद पहड़िया च करी ने पहाड़ी न्य न्य रूप कने शब्दां दे लिबास च  भासा दे अंग अंगः च नोई जान मुश्किल ते मुश्किल वचारं दा वजन सहने द  दम रखगि।
गलतिय जो  जल्दी भूली जांदे मरिया खातर।
सुरेश भरद्वाज निराश: सारिया मुस्कला जो ठन्डे दमागै ......................:त्माश्बीना दी शाबाशी कनै वाह वाह।  बड़ा छेल कने सटीक शव्द इस्तमाल करी ने कितिया  अनुबाद जे कवता जो इक सुंदर रूप दिया दा बाह अनूप जी वाह।

अनूप सेठी : सारयां पंचां दा धन्नवाद। अनुवादे च मेरा खास योगदान नीं है। कुंवर नारायण होरां लिखियो ही बड़ी छैळ है। मूल हिंदी तुसां भी पढ़ा। अनुवादे च कोई कमी लगह्गी तां जरूर दसनयों।
ललित मोहन शर्मा: धन्यवाद अनूप एक अच्छी कविता से मिलाने के लिये। बात और शरारती बच्चे की उपमा वाह क्या बात है।
सुशील पठाणीया: अनुप जी छोटी सोच बड्डे बोल 
माफ करी दिनेयो... सारीया कबता अनुवाद बडा़ छेळ कने बधिआ 
पर इक लैना दे बारे फिरी सोचनो .....';जरा ढेरी होई ने फसी गई';.....
ठीक नी लग्गा दी
सुशील पठाणीया: ';जरा कर अडी गयी'; बाकि तुसां दिखा

Saturday, October 17, 2015

अवतार सिंह संधू 'पाश'

अवतार सिंह संधू 'पाश' दिया
इक्की कविता दा प्हाड़ीअनुवाद


सबते खतरनाक

मिह्णती दी लुट्ट सबते खतरनाक नीं हुन्दी
पुळसा दी मार सबते खतरनाक नीं हुन्दी
गद्दारी - लाळ्चे दी मार सबते खतरनाक नीं हुन्दी
बैह्ठ्ठयाँ बठोह्याँ पकड़ोई जाणाँ बुरा ता हुन्दा
डरियाँ देह्यिआ चुप्पा च जकड़ोई जाणाँ बुरा ता हुन्दा
अपण सबते खतरनाक नीं हुन्दा
कपटे दे रौळे च
ठीक होई ने भी दबोई जाणा बुरा ता हुन्दा
कुसी जुगनुएँ दिया लोई च पढ़ना बुरा ता हुन्दा
मुट्ठीं जिक्की नै टैम कढणा बुरा ता हुन्दा
सबते खतरनाक नीं हुन्दा ।

सबते खतरनाक हुन्दा मुड़दा सान्तिया ने भरोई जाणा
तड़छ नी होणा सब जरी लैणा
घरे ते जाणाँ कम्मे पर
कने कम्मे ते घरे जो हटणा
सबते खतरनाक हुन्दा
असाँ देयाँ सुपनेया दा मरना।

सबते खतरनाक सैह घड़ी हुन्दी
जेह्ड़ी तुसाँ दे मून्ने पर चलियो भी
तुसाँ दियाँ हाक्खीं च रुकियो हुन्दी
सबते खतरनाक सैह हाख हुन्दी
जेह्ड़ी सब किछ दिक्खी ने भी जम्मियो बर्फ हुन्दी
जिसदी नजर दुनिया जो प्यारे ने चुमणा भुली जान्दी
जेह्ड़ी चीज्जाँ ते उठदिया अह्न्नेपणे दिया भाफ्फा पर ढळी जान्दी
जेह्ड़ी रोज्जे दे बह्ड्डे जो पीन्दी पीन्दी
इक बेनसाणे दोहराव दे पुठफेरे च गुआच्ची जान्दी
सबते खतरनाक सैह रात हुंदी
जेह्ड़ी रूह्ई दे गास्साँ पर ढळ्दी
जिसा च सिर्फ उल्लू बोलदे कने हू हू कर्दे गिद्दड़
म्हेसा दे बंद दरुआज्जेआँअ-चगाट्ठाँ   ने सच्ची जांदे

सबते खतरनाक सैह गीत हुंदा
तुसाँ देयाँ कन्नां तिकर पुजणे ताएँ
जेहड़ा  सोग गीत पढ़दा
डरेयाँ लोक्काँ देआँ दरुआज्जेआँ पर
जेहड़ा गुंडेआँ साह्यीं अकड़दा।

सबते खतरनाक सैह दिसा हुंदी
जिसा च रूह्यी दा सूर्ज घरोई जाएँ
कने जिसदिया मरिया धुप्पा दा कोई टुकड़ा
तुसाँ दे जिस्मे दे पूर्बे च खुह्बी जाएँ।

सबते खतरनाक सैह चंदर्मा हुंदा
जेहड़ा हर इक ह्त्या कांड ते बाद
सुन्नेयाँ अँगणा पर चढ़दा
अपण तुसाँ दियाँ हाक्खीं च मिरचाँ साह्यीं नी चुभदा।
मिह्णती दी लुट्ट सबते खतरनाक नीं हुन्दी
पुळसा दी मार सबते खतरनाक नीं हुन्दी
गद्दारी - लाळ्चे दी मार सबते खतरनाक नीं हुन्दी
बैह्ठ्ठयाँ बठोह्याँ पकड़ोई जाणाँ बुरा ता हुन्दा
डरियाँ देह्यिआ चुप्पा च जकड़ोई जाणाँ बुरा ता हुन्दा
अपण सबते खतरनाक नीं हुन्दा
कपटे दे रौळे च
ठीक होई ने भी दबोई जाणा बुरा ता हुन्दा
कुसी जुगनुएँ दिया लोई च पढ़ना बुरा ता हुन्दा
मुट्ठीं जिक्की नै टैम कढणा बुरा ता हुन्दा
सबते खतरनाक नीं हुन्दा

सबते खतरनाक हुन्दा मुड़दा सान्तिया ने भरोई जाणा
तड़छ नी होणा सब जरी लैणा
घरे ते जाणाँ कम्मे पर
कने कम्मे ते घरे जो हटणा
सबते खतरनाक हुन्दा
असाँ देयाँ सुपनेया दा मरना।


मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती


मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
जुगनुओं की लौ में पढ़ना
मुट्ठियां भींचकर बस वक़्हत निकाल लेना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता

सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना

सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नज़र में रुकी होती है
सबसे ख़तरनाक वो आंख होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्बैत से चूमना भूल जाती है
और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है
सबसे ख़तरनाक वो गीत होता है
जो मरसिए की तरह पढ़ा जाता है
आतंकित लोगों के दरवाज़ों पर
गुंडों की तरह अकड़ता है
सबसे ख़तरनाक वो चांद होता है
जो हर हत्याककांड के बाद
वीरान हुए आंगन में चढ़ता है
लेकिन आपकी आंखों में
मिर्चों की तरह नहीं पड़ता

सबसे ख़तरनाक वो दिशा होती है
जिसमें आत्मा  का सूरज डूब जाए
और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्मु के पूरब में चुभ जाए

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती ।

अवतार सिंह संधू 'पाश'
साभार: कविता कोष

पहाड़ी अनुवाद : द्विजेंद्र ‘द्विज’


Tuesday, October 6, 2015

कवि वीरेन डंगवाल

उत्‍तराखंड दे रहणे आळे जनकवि वीरेन डंगवाल 
किछ दिन पैहलैं दिवंगत होए कवि वीरेन डंगवाल जी जो श्रद्धांजलि दे तौर पर तिन्हां दी इक कविता 'पीटी ऊषा' दा अनुवाद।
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पीटी ऊषा
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पीटी ऊषा

काळी जुआन हिरनी
अपणीयां लम्मियां तेज जंघा ने उडदी
मेरे गरीब देसे दी बिट्टी
हाखीं दिया लोई च जीन्दी है हाली
भुख्खा जो पछैणने आळी ल्हीमी
ता ही ता मुँहें उप्पर नी है
सुनील गावस्करे साहयी रंग
मत बैन्हदी पीटी ऊषा
नामे च मिल्लिया तिसा मारुती कारा च
मने च फणसोन्दियां भी
बल्कि हवाई झाजे च भी जाहंगी ता
पैरां रख्खी लियां गद्दिया पर
खांदी बरी
मुँहें ते सुमदी चपचप?
कोई गम नी
सैह जेहडे मनदे चुप डाठी जो सभ्यता
सैह दुनिया दे सबते खतरनाक खाऊ लोक हन।
मूल कविता : स्वर्गीय वीरेन डंगवाल
अनुवाद: नवनीत शर्मा

पी टी ऊषा

वीरेन डंगवाल

काली तरुण हिरनी अपनी लम्बी चपल टांगों पर
उड़ती है
मेरे ग़रीब देश की बेटी
आंखों की चमक में जीवित है अभी
भूख को पहचानने वाली
विनम्रता
इसीलिए चेहरे पर नहीं है
सुनील गावस्कर की-सी छटा
मत बैठना पी टी ऊषा
इनाम में मिली उस मारुति कार पर
मन में भी इतराते हुए
बल्कि हवाई जहाज में जाओ
तो पैर भी रख लेना गद्दी पर
खाते हुए
मुँह से चपचप की आवाज़ होती है ?
कोई ग़म नहीं
वे जो मानते हैं बेआवाज़ जबड़े को सभ्यता
दुनिया के
सबसे खतरनाक खाऊ लोग हैं.