पहाड़ी भाषा दी नौई चेतना .

Sunday, April 28, 2019

जाति व्यवस्थाः उदगम, विकास होर जाती रे अंता रा प्रश्न -2


अपणिया भासा च समाज दे बारे च, समाज दे विकासा दे बारे च लेखां दे मार्फत जानकारी हासल करने दा अपणा ही मजा है। समीर कश्‍यप होरां इक लेखमाला जाति व्‍यवस्था दे विकास पर लिखा दे हन। इसा माला दा पैह्ला मणका असां कुछ चिर पैह्लें पेश कीता था। फिरी पहाड़ी भाषा पर चर्चा चली पई। हुण एह लेमाला फिरी सुरू कीती है अज पढ़ा इसा दा दुआ मणका।


वैदिक आर्य कबीलेयां रा इथी बसीरे लोका के टकराव होर सहकार हुआ। जेता बिच वैदिक आर्य कबीले दास कबीलेयां जो हरायें होर तिन्हा जो गुलाम बनाई देहाएं। इथी ले दास शब्दा रा अर्थ गुलाम, दस्यु, लुटेरा होर असुर शब्दा रा अर्थ राक्षस बणी जाहां। ये हुआं उत्तर वैदिक काला बिच। ये काल हा 1000 ई. पू. ले 500 ई.पू तका रा। एता बिच वैदिक आर्य समाजा मंझ पैहली बार वर्ग सपष्ट रूपा के जन्मा लैहाएं। वर्णा रे बिच आनुवांशिक श्रम विभाजन, पैहली बार सजातीय ब्याह प्रथा री गल्ल होर वर्णा बिच जातियां रे प्रकट हुणे री गल्ला रे प्रमाण मिलहाएं। एस दौरा बिच यजुर्वेद, सामवेद होर अथर्ववेद रचे गए। जातियां रे प्रकट हुणे रा कारण था दास कबीलेयां जो हटाई कने तिन्हा जो दास बनाणा। शुद्र नावां री एक जनजाती थी जेता रा मुख्य ईलाका सिंध था। वैदिक आर्या ले एसा जाति रे हरने पर हारिरे कबिलेयां रे सारे वर्गा जो तिन्हें शुद्र नांव दितेया। यानि अधिनस्थ आबादी जो शुद्र वर्णा रा नावं दितेया गया।

अर्थशास्त्रा रे खंड तीना रे प्वाइंट 13 बिच कौटिल्य बोल्हाएं- शुद्र एक आर्य हा होर एजो बेची या गिरवी नीं रखी सकदे। एता कठे बाकायदा दंड रखीरा थी। पाणिनी रे कामा पर पतंजलि महाभाष्य लिखाहें होर स्यों बोल्हाएं- शुद्र स्यों आर्य थे ज्यों गांवां री सीमा रे भीतर हे रैहाएं थे। गांवा री सीमा ले बाहर कुछ अनार्य कबीले रैहाएं थे जिन्हां जो चार वर्णा री व्यवस्था बिच जगह नीं मिली री थी। ये पांझवां वर्ण या अंत्यज जाती बोली गई। हालांकि अझी तका अछूता रा जिक्र नीं आउंदा। मनुस्मृति बिच भी शुद्रा रे आर्य हुणे रा जिक्र आवहां। पहली बार ब्रह्मा रे मुहां ले ब्राह्मणा वाली परिकल्पना किती जाहीं।

ब्रुस लिंकन होर जॉर्नेस दुबेदिले दुनिया रे अलग-2 जगहा रे चरावाह समाजा पर अध्ययन कितिरा। स्यों बोल्हाएं भई चरावाह समाजा बिच तीन वर्ण हुआएं थे। पुरोहित, योद्धा होर आमजन यानी ब्रह्म, राजन्य होर विस्। ऋग्वेदा बिच चरवाहे समाजा रे वक्त वंशा रे मुखिया जो गृहपति बोल्हाएं थे। गृह हुआं था कबीला। चरवाहे समाजा ले 500 ई. पू. तक खेतीहर समाज बणी गया। खेतिहर समाज बणने ले जमीन होर मजदूर रा महत्व सामहणे आया। 10वीं सदी बीसी ले 7वीं सदी बीसी तक लोहा मिलणे ले वैदिक आर्य गंगा रे मैदाना बखौ बधे होर 500 बीसी तक बिहार होर बंगाला तक पौंहची जाहें। एस दौरा रे बारे बिच जानणे कठे रोमिला थापरा री गिफ्ट इकानॉमी पर कल्चरल पास्ट होर आर एस शर्मा री वर्ग पूर्व सामाजिक संस्तरीकरण (प्री क्लास स्ट्रैटीफिकेशन) महत्वपूर्ण कताबां ही। वैदिक आर्य नौवें कबीलेयां के संघर्ष होर सहकारा के तिन्हौ बी आपणे चार वर्णा बिच समेटी करहाएं थे। अगर भारता रे समाजा जो समझणा हो ता डी डी कोशाम्बी री कताबा जरूर पढनी चहिए। जाती रे उदगमा पर इतिहासकार सुविरा जायसवाला री कताबा बी जरूर पढनी चहिए।

9
वीं होर 10वीं शताब्दी रे वैदिक रिकार्ड बिच एक गांवां मंझ 36 वर्णा रे हुणे री गल्ल कीतिरी। मिथिला रा 14वीं शताब्दी रा रिकार्ड हा वर्ण रत्नाकर जेता बिच 96 वर्णा रा जिक्र कितिरा। साफ तौरा पर लगहां भई ये 96 जातियां री गल्ल करी करहाएं। 14वीं होर 15वीं शताब्दी तका वर्ण होर जाती रा कई जगहा मिक्स प्रयोग हुई करहां था पर ज्यादातर जाती रा अलग प्रयोग हुई करहां था। पहली बार अंत्यज जातियां रा प्रमाण मिलहां 500-400 ई. पू महाजनपदा रे दौरा बिच। 

600
ई.पू. ले 300 ई.पू. तका वर्ण-वर्ग व्यवस्था अस्तित्वा बिच आई चुकीरी थी। सजातीय ब्याह होर जातियां रा ढांचा बणी गईरा था। सीमाबद्ध राज्या (टैरिटोरियल स्टेट) रे ढांचे बणे होर 16 महाजनपद 300 ई.पू. तका कायम रैहे। एस काला बिच पैहली बार गुलाम या दास श्रमा रा भारी पैमाने पर इस्तेमाल हुई करहां था। हालांकि एस वक्त ज्यादातर राजे जनजातियां रे राजे थे। वैदिक आर्य आए ता इन्हा जनजातियां रा भी ब्राह्मणीकरण हुआ होर तिन्हें क्षत्रिय हुणे रा दावा कितेया। ये वक्त बुद्धा रा काल था। एस वक्त मुख्य धर्मा रे तौरा पर बौध होर जैन पैदा हुए। एस समय दास श्रम मुख्य रूपा ले शुद्र होर अंत्यज जातियां करी करहाईं थी। खेती रा काम, दस्तकारी होर घरेलू काम इन्हारे जिम्मे था। वैश्य मुख्य तौरा पर मुक्त किसान थे। मौर्य साम्राज्या (400-182 ई.पू.) रा पतन 182 ई.पू. बिच हुई गया। उत्पादक वर्ग मुख्य रूपा के शुद्र होर वैष्य थे। कॉमन इरा (सीई) री शुरूआत हुणे तका ये व्यवस्था चलदी रैही। पैहली शहरी क्रान्ति अगर हड़प्पा थी ता दूजी शहरी क्रान्ती महाजनपद थे।

राज्यसत्ता राजे रे हाथा बिच केन्द्रित थी। भूमी लगाना कठे ब्राह्मण अधिकारी लगाईरे थे। कौटिल्ये लिखीरा भई काराधान होर सिंचाई व्यवस्था बगैरा रा प्रबंध ब्राह्मण हे करहाएं थे। होर ब्राह्मणा जो ईनामा रे तौरा पर जमीना दिती जाहीं थी। जेता जो अग्रहार बोल्हाएं थे। ब्राह्मणा री प्रशासका री भूमिका थी। एस काला बिच ये बी देखणेयो मिलहां भई सुख सुविधा री चीजा, सोम रस होर शराब बगैरा रा प्रचलन बधी जाहां। खेती रे उपकरणा री जरूरत बधाहीं होर मुद्रा अर्थव्यवस्था पैदा हुआईं। बाजार बी एस दौरान ही पैदा हुआं। पैदावार बधणे ले व्यापार होर वाणिज्य री जरूरत पैदा हुणे ले व्यापारी वर्ग उत्पन्न हुआं। इतिहासकार आर एस शर्मा एताजो शुद्र-वैष्य उत्पादन व्यवस्था या प्राक सामंती किसान अर्थव्यवस्था रा नावं देहाएं। कलियुगा रे बारे बिच दसया जाहां भई एस युगा बिच वैश्या कर देणा बंद करी देणा होर शुद्रा आदेशा री अवहेलना करनी। वैश्य वर्णा रे समृद्ध गहपति यानि अमीर वैश्य किसान व्यापार बखौ चली जाहें। जबकि गरीब वैश्य किसान (ज्यों व्यापार नीं करी पांदे) शुद्र किसान बणी जाहें। एतारा समयकाल हा 1 ई. ले 6 ई. तक। जेता जो आसे कलियुगा रे संकटा रा काल बी बोली सकाहें। बौहत ज्यादा लगाना रे दबाबा री बजह ले वैश्य बगावता करी करहाएं थे। अमीर वैश्य व्यापार बखौ जाई करहाएं थे। दास श्रमा री बगावता री वजह ले स्वतंत्र किसाना जो शुद्र जातीयां रा स्टेटस दितया गया। 

शुद्र पैहले बटाईदारा रे रूपा बिच पैदा हुए फेरी निर्भर स्वतंत्र किसान बणे। पैहली बार शुद्र जातीयां मुख्य तौरा पर किसान जातियां बणी। उत्तर वैदिक काला बिच खेती रा काम वैश्य करहाएं थे। पर एस संकटा ले बाद शुद्र निर्भर किसान होर वैश्य व्यापारी बणी गए। वैश्य हुणे रे बावजूद छठी सदी ई. बिच कन्नौजा रा राजा हर्षवर्धन बणहां। यानि 1 सदी ई. ले 5, 6 सदी ई. तक उत्पादन व्यवस्था बिच बदलाव हुआं। वैश्य व्यापारी बणहाएं होर शुद्रा रा किसानी मुख्य पेशा बणी जाहां। मुद्रा रा प्रचलन हुआं। बाह्मणा जो भूमी अनुदान मिल्हाएं। क्षत्रिया जो बी भूमि अनुदान दिते जाहें थे। एता के बाह्मण होर क्षत्रिय जमींदार या भूस्वामी रे रूपा बिच उभराहें। अस्पृश्यता पर विवेकानंद झा रा बौहत अच्छा अध्ययन हा। एस काला बिच अश्पृश्य जातियां अब अर्ध दास या दास श्रमा री आपूर्ति करदी लगाहीं। स्यों आपणी सेवा कृषक श्रम या सेवा प्रदाता रे रूपा बिच देहाएं। इन्हां जातियां बिच चर्मकार, चांडाल या होर चरवाही जातियां आवहाईं थी। वेदा बिच ये मिलहां भई चर्मकारा रे पेशे रे प्रति कोई हेय दृष्टि के नीं देखदा था। 

वैदिक कर्मकांडा री सामग्री चमड़े रे झोले बिच हे रखी जाहीं थी। इधी कठे चर्मकार प्रतिष्ठित जाति थी। तरीजी सदी ई. बिच सामंतवादा रे परिपक्व हुणे पर अस्पृश्यता बडे पैमाने पर फैली। शुद्र अब हीन शुद्र होर अहीन शुद्रा बिच बंडही गया। हीन शुद्रा बिच निषाद, चांडाल बगैरा जातियां शामिल किती गई। होर तिन्हा जो अस्पृश्य मनी के चार वर्णा ले बाहर करी दितया गया। प्रारंभिक बौध ग्रंथा बिच मांस खाणे वाले जो हीन बोलया गया। बुद्ध धर्म मांस भक्षणा रे खिलाफ था। पर 1000 ई. तका ब्राह्मण खुद बड़े पैमाने पर मांस भक्षण करहाएं थे। होर यह 11वीं होर 12वीं सदी ई. बिच बधलेया। छठी सदी ई. बिच वराहमिहिर दसहाएं भई सभी राजयां जो हर धार्मिक समारोहा बिच पशु रा मांस खाणा चहिए। इधी ले साबित हुआं भई मांस भक्षणा ले अछूत नीं बणे। चौथी होर पांजवीं सदी ई.पू. बिच पैहली अछूत जातियां रे प्रमाण मिलहाएं। पर अश्पृश्यता री शुरूआत मांस भक्षणा ले हुणे रा कोई प्रमाण नीं मिलदा। चौथी-पांजवीं सदी ई.पू. बिच एकी-एकी धार्मिक अनुष्ठाना मंझ हजार-हजार जानवर काटी दिते जाहें थे। तेबे हे ता बुद्ध धर्म अहिंसा री मांग करी करहां था। तेहड़ा हे जैन धर्म भी अहिंसा री हे गल्ल करी करहां था। पर बुद्ध धर्मा रे पतना रे कारणा जो देखणे ले पता लगहां भई कर्म होर अहिंसा रा सिद्धांत जाति व्यवस्था जो सुदृढ़ बनाणे बिच इस्तेमाल किते जाणे री संभावना थी। कर्म होर पुनर्जन्मा रे सिद्धांता रा प्रभाव बी जाति व्यवस्था जो मजबूत करने वाला था। बुद्ध धर्मा रे अहिंसा रे सिद्धांता के जीव हत्या पाप घोषित हुई गई। जेता के शिकार करने वाली होर चरवाहा जातियां एस धर्म ले बाहर हुई गई। भिक्षु बणने री शर्त थी भई सैनिक, औरत, कर्जे वाला किसाना रा दासत्व ले मुक्ति पाणा जरूरी हा। बुद्ध धर्म जाति प्रथा कठे चुनौती नीं बणी पाया। हालांकि ये धर्म ब्राह्मणा रे वर्चस्वा कठे जरूर चुनौती बणया। जैन होर बौद्ध धर्मा बिच क्षत्रियां जो वरीयता दिती जाहीं थी। क्योंकि इन्हा धर्मा री शुरूआत करने वाले क्षत्रिय राजवंशा ले हे आइरे थे। इधी कठे बुद्ध धर्मा पर ब्राह्मणे हमले किते। तेहड़े हे जैना पर बी खूब हमले हुआएं थे। दरअसल हिंदुआं रे कई मत बी आपु बिच हमले करी करहाएं थे। कश्मीरा लिखीरी राजतरंगणी बिच पता लगहां भई कई राजे वैष्णव, शैव होर शाक्त समेत कई मत एकी दूजे पर धन संपदा कठे हमले करहाएं थे।

Tuesday, April 2, 2019

पहाड़ी भासा दे बारे चर्चा – अज के हलात कनै गांह् दी चिंता




कुछ चिर पैह्लें अहां दयारे पर अपणिया भासा पर चर्चा करने ताईं छे सुआल ईमेल कनै वट्सऐप पर कइयां लेखकां जो भेजे थे। डाका च चिठियां नी पाइयां। दयार कागजे पर नीं छपदा। इंटरनेट पर ब्‍लॉग ही है। कोशिश एह करदे भई इस च पहाड़ी भासा कनै समाज दी नौईं चेतना जो मूह्रेंर रखिए। इसा ई कोशिशा च एह् सुआल खरेड़े हे। करीब दस लेखकां जुआव भेजे। सीनियर लेखकां जो असां नी मनाई सके। इक जुआब एह भी आया, पैह्लें पहाड़ी दी जगह हिमाचली करा। अहां जो एह् स्‍टैंड गैर-जरूरी लग्‍गा। अहां दा हिमाचली नां नै कोई वरोध नीं है। अहां ताईं दोयो इक्‍को ई हन। फिरी भी अहां तिन्‍हां दा स्‍टैंड सिर मत्‍थें लाया। खैर, जिन्‍हां लेखकां जुआब भेजे, तिन्‍हां दा सार कनै अपणे विचार जोड़ी नै कुशल कुमार होरां इक्‍की जगह सुआल-वार कट्ठा करी ते कनै अनूप सेठी नै अपणी गल भी रखी है। कुछ दिन पैह्लें दुर्गेश नंदन होरां स्‍नेहा भेज्‍या भई सैह् भी जवाब लिखणे दी त्यारी करा दे। अहां तिन्‍हां नै गुजारिश कीती भई अहां दिया इसा गल-बाता पढ़ी नै अपणी गल गांह् बधान। उम्‍मीद है तिन्‍हां दे वचार भी अहां जो मिलगे।


कुशल कुमार: पहाड़ी दयार पर हिमाचली पहाड़ी भासा दी चर्चा च द्धिजेंद्र द्धिज, पवनेंद्र ‘पवन’, चंद्ररेखा ढडवाल, रमेश चंद्र ‘मस्‍ताना’, सुरेश भरद्धाज ‘निराश’, मुक्‍त कंठ ‘कश्‍यप’, राजीव कुमार ‘त्रिगर्ती’, नवीन शर्मा कनै भूपेंद्र भूपी    इन्हां नौ लखारियां अपणे जवाब भेजे। पैह्ला सुआल था। असां दा पहाड़़ी लेखन मुल्‍के दियां दूइयां भासां दे मुकाबलें च कुतु खड़ोंदा। द्धिज जी दा मनणा है कि कुती नीं। मस्‍ताना कनै सुरेश भारद्वाज जी दी स्‍हाबें पिछें नीं है। कम करने कनै-कनै प्रचार प्रसार होणा चाही दा कनैं मान्‍यता मिलणा चाही दी। पवनेंद्र पवन, त्रिगर्ती, चंद्रलेखा, कनै भूपी जी बालदे, भासा पिछें है। इन्‍हां दे स्हाबें मता सारा स्‍तरीय लीखणे दी जरूरत है। भासा खरी कनैं समृद्ध है पर कम उतणा नीं होया। मुक्‍तकंठ दे लेखें भासा खरी कनैं लोक माड़े।नवीन शर्मा जी दे स्‍हाबें भासा समृद्ध कनैं संस्‍कृत दे नेड़े है, इस ताईं तुलना जरूरी नीं। निचोड़ एह भई भासा च दुईंया भासां दे मुकाबले कम घट होया या जेड़ा होया सैह भी गांह नी आई सकया। कम कनै कम्‍में दी पच्‍छैण होणा चाही दी।

अनूप सेठी: अहां जो अपणिया भासा नै प्रेम है। इहा दा चा है। तांह्ई ता खौह्दळ पाइयो। आसावादी होणा भी जरूरी है। पर असलियत दा साह्मणा भी करना पौंदा। हाखीं बंद करी नै सच नीं बदलोंदा। जरा क रमाने नै सोचा भला, पहाड़िया च हिंदिया दे पासंग बराबर भी लखोया है? तिसा हिंदिया च जिसा जो दो सौ साल भी नीं होए, मराठी, तमिल, बंगला दे बक्‍खें भी खड़ोई सकदी एह?मिंजो ता, चाळी साल पैह्लें जदूं मैं कालजे च पढ़दा हा, तां भी पहाड़ी भासा दा आदिकाल लगदा हा, कनै अज चाळियां सालां परंत भी, इक दो जण्‍यां जो छड्डी नै सैह्  ई बेलबूटे नजरी औंदे। मिंजो पता है, मतेयां नराज होई जाणा है, फिरी इग्‍नोर करी देणा है, पर जो सुझदा सैह् गलाणा ता पौणा ई है। होई सकदा मैं गलत ई होआं। अंदर बक्‍खैं नजर फेरी लैणा चाहिदी। सिर्फ हिमाचल सूबे दे गुण गाई नै, कुदरतां दे गीत गाई नै दूइयां भासां दी बराबरी नीं होई सकदी।

कुशल कुमार: दुआ सुआल था पहाड़ी भासा च इतनी समर्थ्‍या है कि अजकिया जिंदगिया दा अन्‍नोह-बाह् दौड़ कनै सारे ढक-पळेस लखोई सकदे या फिरी एह् चीलां दे डाळुआं झुलाणे जोगी ई है? इस सुआले च सारे सहमत हन कि भासा च समर्थ्‍या है। जेह्ड़ी कुसी भी भासा च है।  जे पंजाबी, राजस्‍थानी, डोगरी, भोजपुरी च है ता पहाड़ी च भी है। भासा च लफ्जां दी दौलत कनै मुहाबरयां दा खजाना है। चीलां दे डाळुआं वाळे भी बडे कवि थे। डाळु भी झुलणा चाही दे, एह भी भासा दी खूबसूरती है। एह व्‍याकलता भी है कि पहाड़ी सुंदरता तिक्‍कर ही कैंह् सीमित है। जीणे दी पीड़ा जो चतेरने दी जरूरत है। इसा च सब किछ लखोया कनै किछ होर भी जोर लाई छैळ कनै दुईंयां भासां दे लफ्ज लई नें लीखणे दी जरूरत है। अजके स्‍हाबें बदलोई नें हाजमा खरा रखा। जे इसा न्‍हसदिया जिदंगिया बिच अपणी होंद बचाई के रखी सके। हालात देह्ये हन जे चीलां दे डाळु भी झुलदे रेंह्गे ता बची रेह्णा है। इसते गांह बधणे दी जरूरत है। जीणा कनैं गलाणा इक होंणा चाही दा। आखिर च ऐह असां दे उप्‍पर है। डाळुआं ते लम्‍मी डुआरी मारी जाए।

अनूप सेठी: मेरी मुस्‍कल एह् है भई मेरी भासा चाळी साल पुराणी है। मुंबई च बोलणे दा मौका नीं मिलदा। जे लिखणा होऐ ता लफ्ज नीं मिलदे। (लफ्ज ताईं भी अक्‍खर ई दमागे च औंदा, पर अक्‍खर अक्‍खर है शब्‍द शब्‍द।) मेरी छड्डा पर हिमाचले च चाळी साल पुराणी भासा जिंदा है? सैह् कितणी क बदलोई?

मेरी इक होर मुस्‍कल है। जरा भी गैह्री गल लिखणी होऐ ता शब्‍द ई नीं मिलदे। हिंदिया ते लैणा पौंदे। अपणिया भासा च विज्ञान, दर्शन, मनोविज्ञान, समाजशास्‍त्र जेह् विषयां पर किञा लखोंगा? इन्‍हां दूंह् वाक्‍यां च ही दिखी लेया, व्‍याकरण पहाड़िया दा है, शब्‍द हिंदिया दे।

फिरी हिंदिया च आधुनिकता, उत्‍तर आधुनिकता दे दौर निकळी गै, पहाड़ी कितणी क गांह् बधी?  होर न सही, मेद है सैह् दिन छोड़ ई औंगा जदूं पहाड़ी साहित्‍य दी आलोचना पहाड़िया च लखोंगी।

कुशल कुमार: त्रिया सुआल था पहाड़ी लेखन कनै पाठकां दे रिस्‍ते दी कदेई सकल बणदी? इस ताईं होर क्‍या करना चाही दा? इस सुआले च भी सारयां दी सहमति है कि कोई सकल नीं बणदी। कोई नीं पढ़दा। लेखक कनै पाठक शरोतंया दा रिस्‍ता किछ घटदा जा दा। सब छापी नें मुफ्त बंडा दे खरीदी नै पढ़ने दी आदत नीं है।लोकां जो पहाड़ी लेखन कनैं नीं होऐ पर पहाड़ी भासा कनैं प्‍यार है। पर पहाड़ी पढ़ने दी बारीया  मते हत्‍थां खड़ेरी दिंदे। पढ़ने वाळे घट कनैं लीखणे वाळे जादा हन। इक्क लेखक ही दुए जो नीं पढ़दा। हासे मनासे दी मंचीय कवता सुणी कनै सराही जांदी। गंभीर कम्‍मे जो पढ़ने दी आदत कनैं लेखक-कवि बणने तैं पेहलें पाठक बणना जरूरी है। क्‍या करना चाही दा इस पर भी एह सोच है कि लेखक, पाठक आम आदमियां कनैं सरकार, तिन्‍नां जो कोस्‍त करना चाही दी। स्‍कूलां कालजां च प्रतियोगितां करना चाहीं दियां। कताबां दे पाठक सारीयां भासां च घटदे जा दे। जमाना नेट दा है। नेट कनै सोसल मी‍डिया पर भी मंचां साही हासे मनासे कनै छूछा लेखन ही जादा है गंभीर कम्‍म घट है।  निचोड़ त्रिगर्ती जीदे गलाणे च है। जाह्ली लेखन इक बधिया सकल लई नैं ओंदा ता सैह् पाठकां जो बेचैन करी दिंदा। तांही कोई सकल बणदी। पहाडि़या दा जेह्ड़ा भी आम आदमी सामाजिक कनै आर्थिक तौर ने थोड़ा हटी ने खड़ोत्‍या सैह् पता नीं कैंह् पहाड़िया ते भी हटी ने खड़ोणा चाहा दा। इसा बमारिया दा लाज जरूरी है पर कुसी वैदे भाल लाज़ नीं है। इस पर एही गल्लाया जाई सकदा कि भई पहाड़ी लेखन दी पाठकां कनै रिस्‍ते दी सकल सैही दैही है जदेही पहाड़ी भासा दी पहाड़ी माह्णुआं कनैं रिस्‍ते दी सकल है या बणदी जा दी।

अनूप सेठी: लेखक पाठक दे रिस्‍ते पर तां चाहिदा आळे मते हन। करने आळयां हत्‍थ खरेड़ी तेयो। इस स्‍हाबें ता परमात्‍मा ई मालक है। जेह्ड़े भाई अठवीं अनुसूची दी गल करदे, जेह्ड़े पाठकां दी चिंता करदे, तिन्‍हां जो मूह्रें औणा ई पौणा है। अपणी सूळी अप्‍पू ई चकणा पौणी है। मेरा सुझाव है, अखबारां पर जोर पाणा चाहिदा भई सैह् इक पेज या अद्धा पेज या इक कॉलम ई सही, पहाड़िया च खबरां दा देह्न। अपण-अपणे जिले च अपण-अपणिया बोलिया च तां जे कजा भी न पौऐ। कविता कहाणी नीं, सिर्फ खबरां। लोकां जो पहाड़ी सुझगी ता सैह् पढ़गे भी।

इक होर गल, एह गल मिंजो हिंदिया ताईं भी सच लगदी, जदूं तक गरीब-गुरबा सलामत है, टुट्टयो-भज्‍जयो, बिगड़यो, फिणक्‍यो  ही सही, पर ग्रां अबाद हन, ताह्ली तिकर असां दी एह भासा रैहणी है।

इक गल होर, पढ़ने आळे घट ही हुंदे। सारी जनता पढ़ीक होऐ तो समाज सुधरी न जाऐ। एह् उन्‍म्‍हिया सदिया दा यूरोप नीं है जित्‍थी दे किसान भी कताबां पढ़दे हे।

कुशल कुमार: चौथा सुआल था कि अगलिया पीढ़िया तक तुसां दी गल-बात कियां पूजदी?इस दे जबावे दा सुर ऐही था कि कमी है। मुश्‍कल औआ दी पर पूजणा चाही दी। पजाणे दी जुगत होणा चाही दी। बच्‍चयां याणयां ने पहाड़िया च ही गल करना चाही दी। बड़ी ही सुंदर भासा है। अगलिया पीढ़िया जो पहाड़िया नैं जोड़नां चाही दा। संस्‍कार देणे दा कम बुजुर्ग, टीचर कनैं लिखारी ही करी सकदे। असां गलांदे, अगली पीढ़ी अपणयां बच्‍चयां ने गलांगी ता पूजी जाणी। प्‍हाड़ी छडा होर भी कख नीं ओंदा। हिंदी वीक, ग्रेजी कमजोर है कनैं प्‍हाड़ी बोलणे च सरमा ओंदी। निक्कियां गलां, लोक कथां, परम्‍परां, संस्‍कार, रीत-रूआज, जमणे ते मरने दे बाद  तिक्कर चलणे वाले गीत सब लखोई कनै ऑडियो वीडीयो रूपे च इंटरनेट पर रखणा चाहीदे। साहित्‍य ही पूजी सकदा। खूब लिखणा, छपणा कनै इंटरनेट पर प्रचार प्रसार होणा चाही दा।

अनूप सेठी: एह् भी कौड़ी सचाई है। अहां जो पता ई नीं है अपण्‍यां निक्‍के-याण्‍यां नै कुसा जबाना च कनै कुस तरीके नै गल करिए। अहां अपणे सयाणे होणे दे गुरूरे च रैहंदे, याणे अपणे तैशे च। जे अहां दा समाज संवेदनशील बणना लगगा,‘खूबसूरतिया जो समझणा लगगा, बजारे दे जादुए ते खबरदार रैंह्गा, तां शायद कुछ बदलाव होणा लगगा। पर मिंजो एह्  भी लगदा, भई जादा मीनमेख कढ्ढे बिना अपणा कम करदे चलिए। जो अहां जो ठीक लगदा, सैह् करदे रहिए। बाकी कल की कल जाणै। जेह्ड़े मेरे साही सोचदे, तिन्‍हां नै हत्‍थ पकड़ी नै कुआळ चढ़ने दी कोशिश करदे चलिए। थकी जांह्गे ता बसौंई लैंह्गे, नतीजे बखी कजो दिखणा।

कुशल कुमार: पंजुआं सुआल था अगली पीढ़ी पहाड़िया जो भासा बणाणे दा ख्‍यो करह्गी कि गीतां सुणदेयां गांह् बधी जांह्गी?इस सुआले दे जबावे च कुसी जो वेदण कनै पीड़ होआ दी। सान नीं है गलाणा अगली पीढ़ी कितणी की गंभीर होंगी। इंकलाब भी आई सकदा या ए‍ह भी होई सकदा अगली पीढ़ी गुजारा चलाणे जोग्‍गी भासा सिक्‍खी नैं तसल्‍ली करी लै कि असां भासा जींदा रक्‍खी लेई। एह असां दिया मेहनता पर है।  मुश्‍कल है सौए ते पंज लोग ही निकलणने मती मैद मत ला। भासा रोजी रोटी कन्‍ने जुड़ी जाए ता अप्‍पु ही गांह बधी जांदी। भासा नें प्‍यार जींदा कनै गांह नींणे दी सोच होणा चाही दी। असां जो प्रेरणा हौसला अफजाई देणा पोणी। अगलिया पीढ़िया जो संस्‍कार देणे वाळयां पर निर्भर है। जे हिब्रु साही कोमा च गईयो भासा जींदी होई सकदी ता असां दी ता हसदी खेलदी है। सोचणे च भी भासा लगदी। सोच्‍चा दी भासा अगलिया पीढ़िया च भी प्‍हाड़ी ही रैह ऐह् जरूरी है। इक जबाव किछ लग था असां दिया पीढ़िया च जोश है। फिल्‍मां बणा दियां। टैक्‍नालॉजी आई गईता इक इक अखर संभाळया जाई सकदा। प्‍हाड़ी दिलां दी भासा है, माऊं दी भासा है इसा जो कोई खतरा नीं है।

अनूप सेठी: अगलिया पीढ़िया दे साह्मणै मदान खुल्‍ला है। तिहा दे हत्‍थैं कागज कलम नीं है, मोबाइल कंप्‍यूटर है। सोशल मीडिया कनै टैक्‍नौल्‍जिया कामल करीत्‍या। इन्‍हा दा उजला पख भी नजरी औआ दा। पहाड़िया च फिल्‍मां बणना लगी पहियां। अजय सकलानिएं सांझ बणाई। पहाड़िया कनै हिंदिया च रिलीज होई। (एह जुदी गल है भई लोकां तिह्जो धरीड़ी खाणे दी भी कोशिश कीती)। अज पहाड़ी पंचिया च इक गद्दी फिल्‍मा दा टीजर भी आया। नौजवानां यूट्यूब पर गीतां, नाटियां दी बहार लाई तियोह्। इसनै भूगोल दियां हदां खत्‍म होई गइयां। पैह्लें मिंजो गीता दियां कैसटां हिमाचल या दिलिया मिलदयां थियां। हुण यूट्यूब पर मैं कइयां किस्‍मां दे गीत सुणी लैंदा। मजाकिया वीडियो भी अहां दिया भासा जो गांह् बधा दे। छोट-छोटे डबिंग आळे वीडियो बुड्ढे-ठेरे नीं, छुकरैह्दा ई सुणदा हुंगा। नईं ता तिन्‍हां बणाणे ई कजो हे।

कुशल कुमार: छिटुआं सुआल था आम जिंदगी जीणें ताईं सिर्फ इक्‍की भासा नैं कम चली सकदा कि इक्‍की ते जादा भासां जरूरी हन? अज कणे वग्‍ते च इक्‍की नै ता कम चली नीं सकदा। चली भी सकदा पर घटे ते घट हिन्‍दी अंग्रेजी ता चाही दी। चार पंज भाषां सिखणा चाही दियां। इक्‍की दा कोई मतलब नीं है। इक्‍की दा मतलब है अपणे आपे जो बंद करना। इक्‍की नैं तिसदा कम्‍म चली सकदा। जिन्‍नीं चुप रैह्णा कनैं इक्‍की ठारी रैह्णा होये या फिरी ब्र‍ह्मज्ञान हासिल होई गिया होऐ।। भाषां सिखणा इक्‍क गुण है। पर अपणियां मां बोली जो छडणा मूर्खता है। मतीयां भाषां सिखणे वाळा अपणिया मां बोलीया नीं छडी सकदा। अपणिया छडी नैं होरनां भाषां पचांह न्‍हसणा कतई अकला दा कम्‍म नीं है। जितणियां भाषां उतणा स्‍वा दा विस्‍तार होंदा। प्रदेसे दियां सारियां बोलीयां समझा ओणा चाही दियां। द्धिज जी दा बड़ा  ही छैळ जबाव है। हर भासा दी अपणी बांक है, अप-अपणा छळैपा है, अप-अपणा रस, अप-अपणा तुड़का कनै सुआद है। पर द्विज जी एह् गल्ल कुण समझाये तेज चीनी मसालयां कनै अजीनोमेटो साही ग्रेजी कनै किछ हिंदिया वाळे भी होर कुसी सुआदे ताईं जगह ही नीं छडा दे। मते हन, मुखर हन कनै ताकतवर भी हन। जिन्‍हां जो लगदा अंग्रेजा साही सैह भी अंग्रेजीया ने दुनिया पर राज करी सकदे ता होर भाषां कैत पाणईयां।

अनूप सेठी: एह् अहां दी खुसकिस्‍मती है जे अहां दा देस कनै समाज इतणा रंग-बरंबा है। दो तिन भासां अज आम गल है। मनोवैज्ञानिक गलांदे, जेह्ड़े जादा भासां जाणदे, तिन्‍हां दा दमाग तेज हुंदा। जादा भासां होन ता अप्‍पू चीएं कंपीटीशन भी होई जांदा। लेनदेन भी होई जांदा। इस च कोई सक नीं है।