पहाड़ी भाषा दी नौई चेतना .

Friday, August 11, 2023

ठगड़े दा रगड़ा आळे हिमेश होरां दी याद



अपणे मशहूर कॉलम ठगड़े का रगड़ा आळे व्यंग्यकार रतन सिंह हिमेश होरां दी 

इक पहाड़ी गजला सौगी तिन्हां जो याद करा दे देवंद्र धर।   


हिमाचल प्रदेश दे प्रगतिशील लेखक संघ दे पैह्ले प्रधान जिन्हां ऐ संघ शुरू किता था, स्वर्गीय रतन सिंह हिमेश दी समाजी कनै साहित्यिक काबलियत कुण नी जाणदा? हिमाचले दे लिखणे पढ़णे वाले साहित्यकार जे तिन्हां बारे नीं जाणदे हुंगे ता ए तिन्हां दी बदकिस्मती है। हिमेश होरां बारे अपणी जानकारी रखणा बड़ा जरूरी है। इञा करी नै सैह् अपणी अपणी अदबी बरासत जो पछाणी सकदे कनै संभालि नै रक्खी सकदे।

स्वर्गीय रतन सिंह हिमेश होरौ  दे बारे किछ भी ग्लाणे  दी जरूरत नी है। तिन्हां दे बारे सब्भी जाणदे थे। सैह् मन्ने होए मजाकिया साहित्य, लिखारी अखबार नबीस, कवि कनै अखबारां च भी लिखदे रहे। अपनी लेखनी दे रस्ते असां दे समाज दियां गलत गल्लां दा खुली नै, निडर होई नै मखौल बणाई नै लिखदे थे। होर ता होर सैह् हिमाचले दे मुंडुआं (विद्यार्थियां) दे पैह्ले लीडर थे, जिन्हां हिल स्टूडेंट्स कौंसिल बणाइ्र नै, तिसा दे जनरल  सैक्टरी  बणी  नै  सन उन्नी सौ पंजाह दे साला च हड़ताल चलाई थी।

रोज़ छपणे वाले हिन्दी अखबार 'जनसत्ता' च तुस्सां रतन सिंह हिमेश दे सै मशहूर लेख ठगड़े दा रगड़ा पढ़े हुंगे ता तुस्सां दी यादां च सैह् अज्ज भी जिंदा होणे (रगड़ा राम)। मरहूम रतन सिंह हिमेश च मज़ाक लिखणे दी गज़ब दी समझ थी। तिन्हां दा हास्सा इतना जबरदस्त था कि जिस बेल्ले सैह् शिमले माल पर घुमदे थे, सारेयां जो पता चली जांदा था कि हिमेश होरां माल पर घुम्मा दे हन। अपणे मजाके नै सैह् बड्डे सरकारी अफ्सरां जो भी नी बक्शदे थे। तिन्हां जो हिन्दी, उर्दू , अंग्रेजी, पहाड़ी भाषा बड़ी  बधिया करी ने औंदी थी।

हिमाचले दे ताह्ल्लू मुख्य सचिव पी के मट्टू कनै लोक संपर्क विभाग दे डरैक्टर एच के मिट्टू हुंदे थे। जनाब उर्दू दियां मात्रां लाई नै बड्डा भारी मखौल बणाई दित्ता। तुस्सां भी दिक्खा:-

ये ऊर्दू ज़बान भी कितनी बजरबट्टू है।

ज़ेर लगाओ तो मिट्टू है, पेश लगाओ तो मट्टू है।

(ज़हर कणे ज़बर उर्दू लिखणे दी मात्रा हुंदी।)*

 

पेश है रतन सिंह हिमेश होरां दी इक पहाड़ी ग़ज़ल

 

अण्डे बी, औ मुर्गियां बी, खाई गिया अफ़सर

होर दिक्खा मुंह खोली आई गिया अफ्सर

बंदरा  ते जियां - कियां फ़सल बचाई थी

खेतां बिच्चे सड़क बणाई  गिया अफ्सर

बदना रा फूल खिला ताजा -ताजा ग्रांवे

काण्डे नज़रा रे पहाड़ गड़ाई गिया अफ्सर

बीबिया रा डर शहरे, जेबे ग्रांए आया

लुगड़ी रा घड़ा गटकाई गिया अफ़्सर

ग्रांमा रे तो बणी गे नाई बी अमीर जी

बालां रा जे फैशन चलाई गिया अफ्सर

असा खे तां छोटा जेया लकड़ू नसीब नीं

जंगला रा जंगल  पचाई  गिया अफ्सर

मन्तरी रे नांवे जे शराब कट्ठी कित्ती

मन्त्री दा नांव लई चढ़ाई गिया अफ्सर

रोटी कपड़े नीं बीबी मंगदी तलाक जी

पता नीं जी पट्टी क्या पढ़ाई गिया अफ्सर

ग़ज़ल तां दफ्तरा च घड़ी लौ हिमेश जी

ताह्लू  क्या करह्गे जे आई गिया अफ्सर

 * उर्दू सीखने/ पढ़ने वालों के लिये कभी कभी बड़ा मसअला हो जाता है उर्दू में ऐराब का ज़ाहिर न होना। यानी जैसे हिन्दी में छोटी ‘इ’ की मात्रा या छोटे ‘उ’ की मात्रा होती है, उर्दू में उसके लिये ”ज़बर, ज़ेर, पेश” होते हैं, लेकिन वो लिखते वक़्त ज़ाहिर नहीं किये जाते। अब “मुकम्मल” लिखा हो तो यह मुकम्मिल भी हो सकता है, मुकम्मुल भी पढ़ा जा सकता है, मिकम्मुल भी पढ़ा जा सकता है।

ज़बर ज़ेर के फ़र्क़ से कई मरतबा अर्थ का अनर्थ हो जाता है, ‘मुकम्मल’ और ‘मुकम्मिल’ दो अलग लफ़्ज़ हैं और अलग अर्थ लिये हुये हैं। लेकिन लोग मुकम्मिल को भी मुकम्मल के मानी में ले लेते हैं। वहाँ तक तो मामला फिर भी चल जाता है, जहाँ अर्थ न बदल रहे हों, मसलन काफ़िर को काफ़र कह दिया, मगर जहाँ अर्थ/ मानी बदल जायें वहाँ यह ग़लती बहुत बड़ी हो जाती है। अजमल सिद्दीकी, रेख्ता से साभार 

देवेंद्र धर 

काव्य-संग्रह 'ज़मीन तलाशते शब्द' हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी से पुरस्कृत (1991), सुबकते पन्नों पर बहस (2023)। हिमाचल प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक सदस्य। शिमला से प्रकाशित साप्ताहिक हिमाचल जनता, हिमालय टाईम्स, शैल समाचार में संपादकीय सहयोग। दैनिक 'हिमाचल दस्तक' के लिए नियमित रिपोर्टिंग। न्यूज पोर्टल खबर हिमाचल सेके लिए नियमित कार्य। आस्ट्रेलिया से नियमित साहित्यिक डिजिटल मीडिया सच्ची मुठभेड़का संपादन, संचालन। आजकल भारत में है। 



No comments:

Post a Comment