पहाड़ी भाषा दी नौई चेतना .

Thursday, July 25, 2024

मुंबई डायरी

अपणिया जगह छड्डी लोक मुंबई पूजे। न अपणे ग्रां भुल्ले, न शहर छुट्या। जिंदगी पचांह् जो भी खिंजदी  रैंह्दी कनै गांह् जो भी बदधी रैंह्दी। पता नीं एह् रस्साकस्सी है या डायरी। कवि अनुवादक कुशल कुमार दी मुंबई डायरी पढ़ा पहाड़ी कनै हिंदी च सौगी सौगी। पेंटिंग : सुधीर पटवर्धन    


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काळयां पत्‍थरां दा छलोया पहाड़

जिह्यां इक्‍की घरे च कई माह्णू रैंह्दे, तिह्यां ही इक्‍की माह्णूए च कई माह्णू, इक्‍की घरे च कई घर, इक्‍की ग्रांए च कई ग्रां कनैं इक्‍की शैह्रे च कई शैह्र होंदे। मुंबई, दिल्‍ली या कुसी भी शैह्रे दे नाएं ते असां दे मने च जेह्ड़ी तस्‍वीर बणदी, तिसा तस्‍वीरा च तिस शैह्रे च रैह्णे वाळी जादातर अबादी शामल नीं होंदी। असां साही ज्‍यादातर लोग तिसा दा हिस्‍सा नीं होंदे। सैह् शैह्रां दिया पचाळिया कुतकी नेह्रियां कूंणा च तिसा तस्‍वीरा ते हटी नै इक बड़ी लग कनैं औक्‍खी जिंदगी जीणे ते ज्‍यादा घसीटा दे होंदे। अंतर ग्रां च बी होंदे पर जीणे दियां स्थितियां च इतणा अंतर नीं होंदा। उपरे ते भाई चारा, समाजे दा दवाब कनैं जड़ां इक होणे दे कारण माड़ी देह्ई सहानुभूति कनैं कठेवा होंदा। शैह्रां च भी एह् जड़ां खास करी नैं पैह्लिया पीढ़िया दे बड़े कम्‍में ओंदियां। एह् पीढ़ी जेह्ड़ी जड़ां दे दूर पराईया जमीना च रोजी-रोटी तोपणा आईयो होंदी। 

जेह्ड़े नेवी, मिलटरी, सरकारी या दूईंया नौकरियां पर लगी नैं बाह्र जांदे, तिन्‍हां जो इन्‍हां जड़ां दी इतणी जरूरत कनैं किह्लपण नीं होंदा। तिन्‍हां ब्‍हाल नौकरिया दे फंग होंदे कनैं जड़ां ब्‍हाल हटणे दे मौके कने दस्‍तूर बी होंदा। सैह् बाह्र जाई नैं भी ग्रां ते दूर नीं होंदे।

दो दिन पैह्लें ही इक मिल्ला। सैह् हिमाचल जाई ने आया था। तिसदा सुआल था – सुअरगे साही जमीना  छडी तुसां ऐत्‍थू कजो फसयो। तिस जो ता जवाब देई ता पर एह् सुआल मेरे होश सम्‍हालने ते बाद ही मेरे पिछें पिया गया था। 

मैं सोचदा एत्‍थू मुंबई च देह्या क्‍या था? असां दे बुजुर्गां 1800 सौ मील ते पैह्लें साह् ही नीं लिया। ग्रां च देह्ये  क्‍या दुख तकलीफ थे। जिस ताईं सैह् तिन्‍नां-तिन्‍नां दिनां दी इक बड़ी ही कठण मसाफरी करी नै बंबई पूजदे थे। समाने दा बौझा चुकी मीलां पैदल चलणे ते बाद ढिळकदियां बसां मिलदियां थिह्यां। लकड़ें देह्यां बैंचा दियां सीटां वाळियां खड़-खड़ करी हिलकदियां रेलां। खिड़कियां ते होआ सौगी क्‍योलयां दा धूं जादा ओंदा था। जाह्लू रेला ते उतरदा था माह्णू ता कपड़यां समेत मूंह भी काळा होई गिया होंदा था। 

एूत्‍थू मुंबई च बी आई नैं क्‍या मिलदा था। गैरजां च चटाईयां दे बिस्‍तरे,  टेक्सियां धोणे दी मजूरिया कनैं डरैबर बणने दा सुपना। तैह्ड़ी गडियां घट होंदियां थियां। गडियां कनैं डरैबरां दा भी रुतबा भारी होंदा था। एही इक गल थी जिसा ताईं असां दे गबरू कताबां बेची डरैबर बणना मुंबई दौड़ी ओंदे थे। तिस जमाने च ठीक-ठाक पढ़यां दी दिल्लिया या हिमाचल च नौकरिया दी जुगत बणी जांदी थी। घट पढ़यां दे हिस्‍से फौजा ते लावा हिमाचल दे  नैड़े-तैड़े जेह्ड़े कम ओंदे थे, तिन्‍हां दिया तुलना च मुंबई आई डरैबर बणना फायदे दा सौदा था। एह् अंदाजा इसा गला ते लगाया जाई सकदा कि तैह्ड़ी मुंबई दे टैक्‍सी ड्राइबर इंडियन आईल साही पीएसयू कनैं सरकारी नौकरियां दी तुलना च अपणी टैक्‍सी चलाणा पसंद करदे थे। 

एह् 1980 तिकर चलया। उसते बाद पटरोल अंबर छूणा लगी पिया। उपनगरां च ऑटो-रिक्‍सा आई गिया। इक दौर देह्या बी आया जे सीएनजी नी ओंदी ता हिमाचली टैक्सियां वाळे टैक्सियां कनैं मुंबई जो आखरी जय महाराष्‍ट्र करने दिया हालता च पूजी चुक्‍यो थे। जे‍ह्ड़ा हुण करोना ते बाद हिमाचलियां दा मुंबई नै टैक्‍सी व्‍यवसाय वाळा संबंध लगभग खत्‍म होई गिया। इस तैह्ड़ी ही खत्‍म होई जाणा था।        

एह् बड़ी अजीब गल है। हिमाचल च मेरे घरे ते धोलाधार सुझदी थी। ऐत्‍थू मुंबई च काळयां पत्‍थरां दा छलोया पहाड़। इस जो होर छिलणे ताईं रोज 1 बजे कनैं 5 बजे सुरंगा लगदियां थियां। प्‍हाड़े ते पत्‍थर बह्रदे थे। इन्‍हां पत्‍थरां जो पीह्णे ताईं क्रेशर लगयो थे। भ्‍यागा ते लई ने संझा तिकर खटारा ट्रक ढोह्-ढुहाई करदे रैंह्दे थे। इक्‍की पास्‍सें दिन भर मजदूर-मजदूरनियां तसलयां भरी-भरी पत्‍थरां क्रेशरां च पादें कनैं दुअे पास्‍सें तयार रेता-गिट्टियां ने ट्रकां भरना लगी रैंह्दे थे। सारा दिन होआ च धूड़ा दा राज होंदा था। मेरी मा चौबी पैह्र इसा धूड़ा पूंह्जणा लगी रैंह्दी थी। संझा जाई क्रेशर बंद होंदा था ता चैन पोंदी थी।

क्रेशरां दे बक्‍खें इक दस्सां खोळियां दी चाल थी। तिसा चाली च कूणे वाला कमरा मेरा घर था। क्रेशरां कनैं मेरे घरे दे बिच इक पतळी देह्ई कच्‍ची सड़क थी। ऐत्‍थू म‍राठिया च कमरे जो खोळी बोलदे कनैं इकी सैधी ने बणया कमरयां दी लेणी जो चाल बोलदे। मुंबई च चालीं च रैह्णे-जीणे दी इक नूठी संस्‍कृति थी। मराठी च इस पर मता सारा साहित्‍य लखोया। मराठी दे हास्‍य व्‍यंग लेखक पु. ला. देशपांडे दा इक बड़ा परसिध व्‍यंग कथा संग्रह है बटाटया ची चाळ। तिस पर इस नाएं दा इक बड़ा मजेदार नाटक मुंबई च अज भी मंचित होंदा रैंह्दा।    

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काले पत्‍थरों का छिला हुआ पहाड़

 जैसे एक घर में कई इंसान रहते हैं, उसी तरह एक इंसान में कई इंसान,  एक घर में कई घर, एक गांव में कई गांव और एक शहर में कई शहर होते हैं। मुंबई, दिल्‍ली या किसी भी शहर के नाम से हमारे मन में जो तस्‍वीर बनती है, उस शहर में रहने वाली अधिकांश आबादी उस तस्‍वीर में शामिल नहीं होती है। हमारी तरह ज्‍यादातर लोग उसका हिस्‍सा नहीं होते हैं। वे शहर के पिछवाड़े किसी अंधेरे कौने में उस तस्‍वीर से हट कर एक बड़ी अलग और कठिन जिंदगी जीने से ज्‍यादा घसीट रहे होते हैं। गांवों में भी विषमताएं होती है परंतु जीने की स्थितियों में इतना अंतर नहीं होता है। ऊपर से समाज का दवाब,  भाईचारा और जड़ों के एक होने के कारण थोड़ी सी सहानुभूति और एकजुटता होती है। शहरों में भी यह जड़ें खास कर  पहली  पीढ़ी के बहुत काम आती हैं। जो जड़ों से दूर पराई जमीन में रोजी-रोटी ढूंढने आई होती है। 

जो नेवी, सेना, सरकारी या दूसरी नौकरियों के लिए बाहर जाते हैं, उन्‍हें इन जड़ों की इतनी जरूरत और अकेलापन महसूस नहीं होता है। उनके पास नौकरी के पंख होते हैं और जड़ों के पास लौटने के अवसर और दस्‍तूर भी होते हैं। वे बाहर जा कर भी गांव से दूर नहीं होते हैं। 

दो दिन पहले हिमाचल घूम कर आया एक बंदा मिला। उसका सवाल था – स्‍वर्ग जैसी जमीन को छोड़ तुम यहां कहां फसे हो। मैंने उसे तो जवाब दे दिया परंतु यह सवाल मेरे होश संभालने के बाद से मेरे पीछे पड़ा है। 

मैं सोचता हूं यहां मुंबई में ऐसा क्‍या था, जिसके लिए हमारे बुजुर्गों ने 1800 सौ मील के पहले सांस ही नहीं ली। गांव में ऐसे क्‍या दुख तकलीफ थे, जिनके कारण वे तीन-तीन दिनों की एक बड़ी ही कठिन यात्रा कर के मुंबई भाग आते थे। सामान का बोझ उठा मीलों पैदल चलने के बाद हिलती-डुलती बसें मिलती थीं। लकड़ी के बैंचों वाली सीटें और खड़-खड़ करती रेलें। खिड़कियों से हवा कम और कोयलों का धुंआ ज्‍यादा आता था। जब रेल से उतरते थे तो कपड़ों के साथ मुंह भी काला हो गया होता था। 

यहां मुंबई में आ कर भी क्‍या मिलता था। गैरेजों में चटाईयों के बिस्‍तरे,  टेक्सियां धोने की मजदूरी और ड्राईवर बनने का सपना। उस समय गाड़ियां कम होती थीं और गाड़ियों के साथ-साथ ड्राईवर का रुतबा भी भारी होता था।  इसी एक बात के लिए हमारे युवा किताबें बेच कर ड्राईवर बनने मुंबई भाग आते थे। उस जमाने में ठीक-ठाक पढ़े-लिखों का दिल्ली या हिमाचल में नौकरी का जुगाड़ बन जाता था। कम पढ़े-लिखों के हिस्‍से में फौज के अलावा हिमाचल के आस-पास जो काम आते थे, उनकी तुलना में मुंबई आ कर ड्राईवर बनना फायदे का सौदा था। इस का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उस समय मुंबई के टैक्‍सी ड्राईवर इंडियन आईल जैसी  पीएसयू और सरकारी नौकरी की तुलना में अपनी टैक्‍सी चलाना ज्‍यादा पसंद करते थे। 

यह दौर 1980  तक चला। उसके बाद पैट्रोल आसमान छूने लगा और उपनगरों में ऑटो-रिक्‍शा आ गया। एक दौर ऐसा भी आया यदि सीएनजी नहीं आती तो हिमाचली टैक्सियों वाले टैक्सियों और मुंबई दोनों को आखिरी जय महाराष्‍ट्र करने की हालत में पहुंच चुके थे। हिमाचलियों का मुंबई से टैक्‍सी व्‍यवसाय वाला संबंध कोरोना के बाद अब जा कर खत्‍म हुआ। इसने तभी खत्‍म हो जाना था।      

यह बड़ी अजीब बात है। हिमाचल में मेरे घर से धौलाधार दिखती थी। यहा मुंबई में काले पत्‍थरों का छिला हुआ पहाड़। जिसे और छीलने के लिए रोज 1 बजे और 5 बजे सुरंगें लगायी जाती थीं। पहाड़ से पत्‍थर बरसते थे। इन पत्‍थरों को पीसने के लिए क्रेशर लगे थे। सुबह से लेकर शाम तक खटारा ट्रक ढुलाई करते रहते थे। एक तरफ दिन भर मजदूर-मजदूरनियां तसले भर-भर पत्‍थरों को क्रेशरों में डालते और दूसरी तरफ तैयार रेत-गिट्टियों को ट्रकों में भरने लगे रहते थे। सारा दिन हवा में धूल का राज होता था। मेरी मां इस धूल को पौंछने में लगी रहती थी। शाम को जाकर  क्रेशर बंद होते तो चैन पड़ती थी। 

क्रेशरों के बगल में एक दस खोलियों की चाल थी। उस चाल में कोने वाला कमरा मेरा घर था। क्रेशरों और मेरे घर के बीच एक पतल़ी सी कच्‍ची सड़क थी। यहां म‍राठी में कमरे को खोली बोलते हैं और एक सीध में बनी कमरों की पंक्ति को चाल बोलते हैं। मुंबई में चालों में रहने-जीने दी एक अनूठी संस्‍कृति थी। मराठी में इस पर बहुत सारा साहित्‍य लिखा गया है। मराठी के हास्‍य व्‍यंग लेखक पु. ला. देशपांडे का एक बड़ा प्रसिद्ध कथा संग्रह है बटाटया ची चाळ। उस पर इस नाम का एक बड़ा मजेदार नाटक मुंबई में आज भी मंचित होता रहता है।   

मुंबई में पले बढ़े कवि अनुवादक कुशल कुमार
2005-2010 तक मुंबई से हिमाचल मित्र पत्रिका का संपादन किया।
चर्चित द्विभाषी कविता संग्रह मुठ भर अंबर।

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