हिमाचली
पहाड़ी भासा दे प्रेमी अपणिया भासा ताईं बड़े फिक्रमंद रैंह्दे। सारेयां जो ई लगदा
भई असां दी भासा दिन-ब-दिन मरदी जा’दी। एह् गल
काफी हद तक सही है। पर भासा
पर कम भी होआ दा। तकनीकी सहूलियत मिल्ला दी। सूबे दी भासा अकादमी कनै ऐनआईटी हमीरपुर
अनुवाद दा इक ऐप बणा दे। गूगल आळेयां कांगड़ी, मंडियाळी
कनै महासुवी बोलियां दे कीबोर्ड बणाई ते। अज असां हिमाचली
साहित्यकार भूपी जमवाल होरां नै इस बारे च ही गल करा दे। शायद तस्वीर थोड़ी साफ
होऐ। गल तकनीका दे बारे च है इस करी असां एह् सवाल जवाब हिंदिया च करा दे, तां जे समझणे जो असानी रैह्।
तकनीकी परिवर्तन और हमारी भाषा (एक)
पहाड़ी दयार: गूगल जीबोर्ड पर
हिमाचल की कांगड़ी, मंडियाली और महासुवी
बोली को शामिल किया गया है। सिर्फ इन बोलियों के चुनाव के पीछे क्या कारण रहे
होंगे? और इस काम में किन लोगों का योगदान रहा है?
पहाड़ी दयार: इन कीबोर्डों की
उपयोगिता क्या है? उपयोगकर्ता हिंदी के
कीबोर्ड की जगह इनका इस्तेमाल क्यों करेगा? क्या इस परियोजना
और एनआईटी द्वारा विकसित किए जा रहे अनुवाद ऐप का परस्पर कोई संबंध है? अगर नहीं है तो भी उस प्रोजेक्ट के बारे में भी बताएं।
भूपी जमवाल: जहाँ तक इन कीबोर्ड्स की उपयोगिता का प्रश्न है , यह तीनों अभी शुरुआती दौर में हैं। कहीं कहीं तो केवल नाम
और वर्णों के क्रम को ही बदला गया है। इन तीन भाषाओं के सम्बंध में यह ज्ञातव्य है
कि महासुवी कीबोर्ड में शब्द भंडार अत्यंत सीमित है। मण्डियाली में कुछ बेहतर है
जबकि कांगड़ी कीबोर्ड इन सबमें बेहतरीन बन पड़ा है। कांगड़ी कीबोर्ड में कई शब्दों को
वॉइस कमांड से भी अच्छे से टाइप किया जा सकता है। हालांकि एक सबसे बड़ी कमी इन
कीबोर्ड्स में यह है कि 'ळ ' के लिए
इनमें स्थान ही नहीं है। जबकि 'ळ' इंडिक
कीबोर्ड में पहले से उपलब्ध था।
अब, क्योंकि इन कीबोर्ड्स का अभी अपडेटेड वर्ज़न नहीं आया है, उपयोगकर्ता को इंडिक कीबोर्ड (मेरे मतानुसार) अधिक सुविधाजनक लगेगा।
एनआईटी द्वारा विकसित किए जा रहे कांगड़ी हिंदी अनुवाद डिवाइस का इन कीबोर्ड्स के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। एनआईटी का प्रोजेक्ट एक ऐसा डिवाइस तैयार करने का था जो कांगड़ी का हिंदी और हिंदी का कांगड़ी भाषा में अनुवाद कर सके । इस प्रोजेक्ट के प्रथम चरण में अनुवाद के लिए डेटासेट बनाना था जिसमें पचीस-तीस साहित्यकार सम्मिलित थे और बाद में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यूनिवर्सल डिपेंडेंसी के आधार पर कांगड़ी भाषा को क्वालीफ़ाई करवाना था , जिसमें हिमाचल प्रदेश के दो साहित्यकारों ने कार्य किया । यूनिवर्सल डिपेंडेंसी के अंतरराष्ट्रीय डैशबोर्ड पर वर्तमान में भारतवर्ष की कुल दस भाषाएं ही अब तक शामिल हो पाई हैं । हिमाचल प्रदेश की कांगड़ी भाषा इनमें से एक है।
पहाड़ी दयार: इन परिवर्तनों का
हिमाचली भाषा की मुहिम पर क्या असर पड़ेगा? क्या
अब हिमाचल की एक नहीं अनेक भाषाएं होंगी?
भूपी जमवाल: जहाँ तक हिमाचली भाषा प्रश्न है, यह वही भाषा है जिसे हम पहाड़ी भाषा के नाम से जानते रहे हैं। लेकिन लगभग हर पहाड़ी क्षेत्र की भाषा को पहाड़ी कहा जाता है, इसलिए हिमाचल प्रदेश की पहाड़ी भाषाओं को मिलाकर हिमाचली भाषा के सृजन की मुहिम छेड़ी गई। प्रदेश की कोई न कोई आधिकारिक भाषा तो होनी ही चाहिए परन्तु हिमाचल प्रदेश की एक भाषा बनाने की राह में अनेक भाषाओं का स्वतंत्र अस्तित्व एक बड़ा रोड़ा है। कांगड़ी , चम्बेयाली , मण्डियाली , कहलूरी , बघाटी आदि को कुछ हद तक मिलाकर एक बनाया जा सकता है। जनजातीय बोलियों को छोड़ भी दिया जाए तो भी सिरमौरी, महासुवी, कुल्लुवी,
पहाड़ी दयार: तकनीक भाषा के
प्रयोग की सुविधा बढ़ा रही है। इसके बरअक्स जीवन में हम अपनी भाषा बोली का कितना
प्रयोग कर रहे हैं? आगे भाषा का किस
प्रकार का भविष्य आप देखते हैं?
भूपी जमवाल |
सार्थक वार्ता तियैं बधाइयाँ
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और प्रगतिशीलता दिखाता, जानकारी और अनुभव सहेजे हुए बढ़िया और आवश्यक साक्षात्कार। भूप्पी जी का बहुत बहुत आभार भाषां बारे सटीक जानकारी देने के लिए। आभार पहाड़ी दयार।
ReplyDeleteसंपादक होरां कनै बिनतीयै जे इस गल बात जो हिमाचली च नुवाद करी नै दयार पर पोस्ट करणे दी किरपा करण कनै पहाड़ी पंचिया च भी पाई देन तां जे सारेयाँ पंचा जो जनकारी मिली सकै। प्रणाम जी
ReplyDeleteकमेंट बाक्स च जरूरी तवदीली करने ताईं संपादक महोदय कनै पहाड़ी दयार दा दिले ते आभार।
ReplyDeleteसार्थक गल बात।
ReplyDeleteपढ़ी करी कनै भूपिंदर होरां दे वचार जाणी करी खरा लग्गेया।
ReplyDeleteबा जी बा ।
ReplyDeleteसुआल जवाब हिमाचली भाषा बोली च ई होंदे तां सुन्ने पर सुआगा होंदा। मज़बूरी किछ रेही होंगी क्या पता। सराह्णा तां जरूरी ऐ।
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