महेश वर्मा : जलरंग |
अज मराठी भाषा दे कवि वसंत आबाजी डहाके होरां दियां पंज कवतां दी त्रिधारा पेश है। मूल कवतां सौगी हिमाचली पहाड़ी कनै हिन्दी अनुवाद दा नंद लेया। पहाड़ी अनुवाद कुशल कुमार होरां कीतेया कनै हिन्दी अनुवाद शुभांगी थोरात होरां दा है। मूह्रला चित्तर महेश वर्मा होरां जलरंग पर बणाया है कनै असां जो प्यारे नै दित्तेया है। महेश होरां हिन्दिया दे छैळ कवि भी हन।
वसंत आबाजी डहाके |
होणा किछ भी नीं होणे वाळा
है थोड़ीया देरा बाद सड़कां खुली जाणा, थोड़े पत्थर खिलरयो, सीसे, माण्हुआं दे खूने दे किछ दाग । बरखा दा इक छैबर पोणा कनै सैह् भी धयोई जाणे। |
घडणं काहीच
घडणार नाहीय थोडया
वेळानंतर रस्ते मोकळे असतील. थोडे
दगड विखुरलेले. काचा. माणसाच्या
रक्ताचे काही डाग. पावसाची
एक सर येईल नि तेही धुतले जातील. |
घटित कुछ नहीं होगा। कुछ समय बाद सड़कें खाली होंगी, थोड़े पत्थर बिखरे हुए, काँच, मानवी खून के कुछ दाग. बारिश की एक बौछार होगी और वें भी धुल जाएंगे। |
जीणे दियां छवियाँ कविता दे सादे होन भौएं सजेयो, कुसी भी किस्मां दे लफ्जां नै, रुक्खे दा इक पत्ता भी नीं हिलदा। जाह्लू असां दे चफिरदे दी दुनिया, होळें होळें असां जो निगळा दी हुंदी, ताह्लू कविये दे गळे च फसयो लफ्ज, समीक्षा दे दायरे च नीं औंदे होआ
जो नांह् ने खुरचणे तिकर ही हुंदी लफ्जां दी धार कविये दियां हाखीं खुड़ीयां होणे तिकर ही तिस दे चेहरे पर पढ़ी जाई सकदियां जीणे दियां छवियाँ। सैह् बंद होईयां ता किछ भी नीं बचदा जहा्ंरा मीलां दे डरौणे लाके च। पर एह् तां पता ही नीं हुंदा अजकला देयां लवारस भड़कीलयां लफ्जां च लिखियां सुर्खियां जो। |
जगण्याच्या प्रतिमा कवितेच्या
साध्या किंवा अलंकृत, कोणत्याही
प्रकारच्या शब्दांनी झाडाचं
पानदेखील हलत नाही. जेव्हा
आपल्या सभोवतालचं जग आपल्याला
हळूहळू गिळून टाकत असतं, तेव्हा
कवीच्या घशात अडकलेले शब्द समीक्षेच्या
कक्षेत येत नाहीत. हवेला
नखांनी ओरखडण्यापुरतं असतं
शब्दांचं धारदारपण. कवीचे
डोळे उघडे असतात तोवरच त्याच्या
चेहऱ्यावर वाचता येतात जगण्याच्या
प्रतिमा. ते
मिटले की काहीच उरत नाही हजारो
योजनांच्या भणभण प्रदेशात. अर्थात
हे गावीही नसतं समकालीन बेवारशी भडक अक्षरांच्या मथळयांच्या. |
अस्तित्व की छवियाँ कविता के सरल या अलंकृत, किसी भी प्रकार के शब्दों से, पेड़ का एक पत्ता भी नही हिलता। जब हमारे आसपास का जगत, धीरे धीरे आप को निगल रहा होता है, तब कवि के गले में अटके हुए शब्द, समीक्षा के दायरे में नहीं आते। हवा को नाखूनों से खरोंचने के लिए ही होता है शब्दों का तीखापन. जब तक कवि की आँखें खुली हों तब तक ही उसके चेहरे पर पढ़ी जा सकती है अस्तित्व की छवियाँ। जब वें मिट जाती हैं तो कुछ भी नहीं बचता हजारों योजन के भयावह प्रदेश में। किंतु यह तो पता ही नहीं होता है समकालीन लावारीस भडकीले अक्षरों मे लिखी सुर्खियों को |
चुणना मिंजो किछ चुणने दा
मौका ही नीं है। सब किछ सिरे पर लदया जा दा। एह् लै। एह् लै। दूर चोट देई दें तां भी हटी ने औंदा रैहन्दा कनै तगड़ी जप्फी मारी बही जांदा छुटी भी नीं सकदे, छडी भी नीं
हुंदा मिंजो एह् नीं चाही दा जे गुस्सा भी करां तां इस जो सुणनेवाळा कोई नीं है. कोई भी किछ नीं सुणदा सिर्फ एह् ही सणोह्ंदा रैहन्दा एह् लै। एह् लै। |
निवड मला
काही निवडायची संधीच नाही. सगळं
काही लादलं जातंय मस्तकावर. हे
घे. हे
घे. दूर
भिरकावून दिलं तरी परत
येत राहतं आणि
घट्ट बिलगून बसतं. सुटता
येत नाही,
सोडवता येत नाही. मला
हे नकोय असा
आक्रोश केला तरी तो
ऐकणारं कुणी नसावं. कुणीही
काही ऐकत नाही. फक्त बोलणं ऐकू येत राहतं हे
घे. हे
घे. |
चयन मेरे पास चुनने के लिए कोई विकल्प ही नहीं बचा है। सब कुछ सिर पर थोपा जाता है। यह लो। यह लो। दूर फेंक दिया तो भी वापस आता रहता है और कसकर चिपक जाता है छूट नहीं सकता, उस से
पिंड छुड़ाया नहीं जाता मुझे यह नहीं चाहिए चिल्लाता रहता हूँ पर शायद सुननेवाला कोई है नहीं। कोई कुछ भी नहीं सुनता केवल चिल्लाहट सुनाई देती है यह लो। यह लो। |
पुतळे पुतळयां
जो क्या समझा ओंदा, तुसां
खड़ेरी ते ता सैह् खड़ोई रैह्ंदे; तुसां
थल्लें खिंजदे ता सैह् थल्लें आई जांदे। पुतळयां
जो कैसी दी भी जरूरत नीं
हुंदी बरखा-धुप्पा
च खड़ोणे दी। जरूरत
हुंदी तुसां जो ही पुतळयां दी। तिह्नां
जो तुसां खरेड़दे, फुल-हार पनांह्दे, कनै
तुसां दा गौं बदलोई जाऐ ता दुअे
पुतळे खरेड़ी दिंदे; फिर
तिन्हां देयां गीता-ऊतां
गांदे। एक
पुतळा खरेड़या ता तुसां इक
पिंजरा तयार कर दे कनै
तुसां खरेड़यां पुतळयां दे गीत जेड़े
नीं गांदे तिन्हां
जो तिस च पाई दिंदे। दुअे
पुतळे खरेड़दिया वेल़ा पैह्लके
पुतळयां खड़ेरने वाळयां जो तिह्नां
देयां चबूतरयां च दबी दिंदे। तुसां
खड़ेरेयो इक्की-इक्की पुतळे दे पैरां हेठ लब्बड़ां
बंद करी, हत्थ पिछें बन्ह्यो माण्हू
दबयो हुंदे हन। इक्क
पुतळा थल्लें औऐ ता तिस
दे टुट्टेया मलवे ते एह् खुड़दा जांदा। काह्ली
ता अपणया हत्था लाल फुल्ल
औणे हन इस
ताईं वाट दिखणे वाळयां दे हिस्सें धूड़, खोपड़ियाँ,
हडियां औंदियां। जे
पुतळयां ढैह्णे नैं चबूतरे नीं टुटदे ता
एह् भी पता नीं लगणा था। |
पुतळे पुतळयांना काय कळतं, तुम्ही उभे केले की ते उभे राहतात; तुम्ही खाली ओढलं की ते खाली येतात. पुतळयांना कसलीच गरज नसते उन्हापावसात उभं राहण्याची. गरज असते तुम्हालाच पुतळयांची. त्यांना तुम्ही उभे करता, हारबीर घालता, आणि तुमची मर्जी फिरली की दुसरे पुतळे उभे करता; मग त्यांची गाणबिणी गाता. एक पुतळा उभारला की तुम्ही एक पिंजरा तयार करता आणि तुम्ही उभारलेल्या पुतळयांचं गाणं जे गात नाहीत त्यांना त्यात टाकता. दुसरे पुतळे उभारताना पहिले पुतळे उभारणाऱ्यांना त्यांच्या चौथऱ्यात चिणता. तुम्ही उभारलेल्या प्रत्येक पुतळयाच्या पायाखाली ओठ बंद असलेली, हात मागे बांधलेली माणसं दडपलेली असतात. एक पुतळा खाली आला की त्याच्या चौथऱ्याच्या भग्न अवशेषांतून हे उघड होत जातं. कधीतरी आपल्या हाती लाल फुलं येतील म्हणून वाट पाहाणाऱ्यांच्या वाटयाला येते ही राख, कवटया, हाडं. पुतळे कोसळून चौथरे नष्ट झाले नसते तर हेही कळलं नसतं |
पुतले पुतलों को क्या पता, आप ने खड़ा किया तो वे खड़े रहते हैं; आप उन्हें खींचते हैं तो वे नीचे आते हैं। पुतलों को कोई भी जरूरत नहीं होती धूप-बारिश में खड़े होने की। बस आप को ही जरूरत होती है पुतलों की। आप उन्हें खड़ा करते हैं, हारवार पहनाते हैं, और जब आप खफा हो जाए तो दूसरे पुतले बना देते हैं; फिर आप उनके गीत गाते हैं। एक पुतला खड़ा किया तो आप एक पिंजरा बना देते हैं और आपने जिन्हें बनाया उन पुतलों के गीत जो गाते नहीं उन्हें उस में डाल देते हैं। नये पुतले बनाते वक्त आप पुराने पुतले बनाने वालों को उन के चबूतरों में गाड़ देते हैं। आप के द्वारा खड़े किये गये हर पुतले के नीचे जिन के होंठ बंद हैं, जिनके हाथ पीछे बंधे हैं ऐसे कई लोग दबा दिए होते हैं। एक पुतला नीचे आ जाता है तब उस के चबूतरे के टूटे अवशेषों से यह जाहिर होता रहता है। कभी तो अपने हाथों में लाल फूल होंगे इस का जिन्हें इंतजार है उन्हें मिलती है राख, खोपड़ीयाँ, हड्डीयां। पुतले ढह नहीं जाते चबूतरे टूट नहीं जाते तो यह भी ज्ञात नही होता। |
व्यवहार घर-घरां
ते लोक सड़कां पर आई गियो, बंदूकां
दियां गोळियां साही। इस
ताईं कुसा गाळीया च अपणे मुंहें लुकाइऐ दंगाईयों
जो एह् समझा नीं ओआ दा। तिह्नां
देयां वग्ती नेतयां जो मुहां
लुकाणे ताईं बयान देणा पोआ दे। बंदोबस्ते
ताईं आयो सपाहीयां दी हालत खराब है। छोटे
छोटे बच्चे हात्थां च फुलां दे गुलदस्ते लई सरेआम
घुमा दे। बच्चयां
देया हत्थां च फुल्ल नीं जियां बंब हन इस
ताईं डरी गईयो भड़काऊ भीड़ चराहे-चराहे
पर लोक हन कनै सैह् बिलकुल शांत हन। तिसा
शांतिया ते डर लगा दा राजनीतिक
चकरिया दे कारवाई बहादरां जो। हुण
कुण कदेह्या फट्टा बचांगा अपणिया डुब्बदिया
नेतागिरिया जो इस
ताईं सैह् व्याकुल होई तोपा दे तिनके दा स्हारा। ऊपर
खिड़कियां ते थल्लें झांकी नैं अण्दाजा
लगा दे। थल्लें
सड़का पर लोक जरूरता
दियां चीजां लै दे,
इक्की-दुए नै गलबात करा दे, हासा दे, उपरले
लोक जणता देस मरीइया कनैं सूतकें बैठ्यो
बच्चे
खेला दे,
खेलदयां याण्यां दियां जोरे दियां चींडां नीं
सणोह्न इस ताईं कन्नां ढका दे वग्ती
नेते। शांतीया नें चला दा सारा व्यवहार। |
व्यवहार घराघरांतून
नागरिक रस्त्यांवर आलेले आहेत, बंदुकीच्या
गोळयांसारखे. त्यामुळे कुठल्या गल्लीत तोंड लपवावे हे दंगलखोरांना कळेनासे झाले आहे. त्यांच्या औटघटकेच्या नेत्यांना काढावी
लागताहेत निवेदने चेहरे झाकायला, बंदोबस्तासाठी
आलेल्या सैनिकांची दैना उडाली आहे. छोटी छोटी मुले हातांत फुलांचे गुच्छ घेऊन हिंडताहेत
सर्रास. मुलांच्या हातांत फुले नसून जणू काही बॉम्ब आहेत म्हणून घाबरून गेलेला आहे चिथावणारा जमाव. चौकाचौकांत लोक आहेत आणि ते कमालीचे शांत आहेत. त्या शांततेची भीती वाटते आहे राजकीय वर्तुळातील कारवायाखोरांना. आता कुठले फळकूट वाचवील आपल्या बुडत्या पुढारीपणाला म्हणून कासावीस होऊन शोधताहेत ते काडीचा आधार. वरून खिडकीतून खालच्या रस्त्यावर डोकावत अदमास घेताहेत. खालच्या रस्त्यावरची माणसे गरजेच्या गोष्टी घेताहेत, एकमेकांशी बोलताहेत, हसताहेत. वरची माणसे देश मेल्यासारखी सुतकात बसली आहेत. मुले खेळताहेत. खेळताना होणारे त्यांचे मुक्त चीत्कार ऐकू येऊ नयेत म्हणून कान झाकून घेताहेत हंगामी नेते. शांतपणे चाललेले आहेत सगळे व्यवहार. |
व्यवहार नागरिक अपने अपने घरों से सड़कों पर आ गए हैं, बंदूक की गोलियों की तरह। इसलिए किस गली में अपना चेहरा छिपायें दंगाईयों की समझ में नहीं आ रहा। उनके अल्पकालीन नेताओं को बयान देना पड़ रहा है चेहरे छिपाने के लिए। सुरक्षा के लिए तैनात जवानों की दुर्दशा हो गयी है। छोटे छोटे बच्चे हाथों मे फूलों के गुलदस्ते लेकर घूम रहे
हैं सरेआम बच्चों के हाथों मे मानो फूल नहीं बम हैं इसलिए सहम गयी है भड़काऊ भीड़ हर चौराहे पर लोग हैं और वे बिलकुल शांत हैं। उस शांति से डर लगता है राजनीतिक हलकों में सक्रिय कारवाईखोरों को। अब कौनसी लकड़ी बचाए उनकी डूबती नेतागिरी को इसलिए वे ढूँढ़ रहे हैं तिनके का सहारा। ऊपर से, खिड़की से नीचे झांक कर अनुमान लगा रहे हैं। नीचे सड़कों पर खड़े लोग आवश्यक चीजें ले रहे हैं, आपस में बातें करते है, हँसते
हैं, ऊपर के लोग इस तरह बैठे हैं जैसे देश की मृत्यु पर पातक
लग गया हो बच्चे खेल रहे हैं, खेलते वक्त उन की मुक्त किलकारियाँ सुनाई न दें इसलिए कान ढँक रहे है हंगामी नेता। शांति से चल रहे हैं सब व्यवहार। |
कुशल कुमार |
शुभांगी थोरात |
बड़ीयाँ जब्स जबरजस्स कबतां। कनै ऊनुवाद भी कमाल दा। कवि जिन्हयां सियास्ता दे कोहलये च पड़ोई नै तेल्ले सांह्यीं नचड़ोआ दा होयैं। तीस् च ते जेहड़ी धुण्सखार न्हस्सां ते चढ़ी नै दमागे च देह्यी चराS दी भई खळवळी मचाई देया दी होयै। माहणुसता हलाल होईनै भी चींगी नी सका दी। इक्क पत्ता भी नी कम्बा दा डरे दी हौआ इतनी सहमी यैय्यी यो। कवतां दे नुवादां च भी ठण्डीयां त्रयोळियां मसूस होआ करदीयां।
ReplyDeleteऐसे ऐसे परयास जारी रैह्नन्ग तां प्हाड़ीया दी पैठ भी जाब्बू रैह्णणी इञ्यां लग्गा दाS।
शुद्धि:कोहलये :- कोहलूये
ReplyDeleteतीस् :- तिस्
खूप छान... ज्येष्ठ साहित्यिक आदरणीय श्री. वसंत आबाजी डहाके सरांच्या चित्रलिपी कवितासंग्रहातील कविता मी वाचलेल्या आहेत.
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