पहाड़ी भाषा दी नौई चेतना .

Saturday, March 21, 2020

गुआची गिया कुत्‍थु मेरा ग्रां

गुआचओ ग्रांए दे घरे दा दुआर
एह् कवता वागड़ी बोलिया च हेमंत भट्ट होरां लिखियो है। एह राजस्थान दे डूंगरगढ़ कनै बांसवाड़ा जिलेयां दी बोली है। बोली है ता नाएं जो ई, मतियां बोलियां साही एह भी हुण थी ही समझा। हेमंत होरां दे साह्मणै अपणी मा बोली वागड़ी दा नां औंदा ता वचपन साह्मणै खड़ोई जांदा। कुछ साल पैह्लें इन्हां अपणे ग्रांए पर लिखियो इसा कवता दा जिक्र कीता था। असां जो लगेया, माऊ मासियां दियां धियां दे सुर मिली जाणे। सिद्धे वागड़िया ते हिमाचलिया च अनुवाद करना असां ताईं मुस्कल था। असां भट्ट होरां जो अर्ज कीती, इसा कवता हिन्दिया च भी लिक्खा। कवि अप्पू दूं: भासां च लिखदा ता सैह् अनुवाद नीं हुंदा कवि अपणे स्हाबे नै दुबरा ई लिखदा। हिन्दिया ते कुशल कुमार होरां अनुवाद कीता। सैह् भी कवि हन। मतलब एह् भई इन्हां तिन्नां ई रूपां च थोड़ा बौह्त फर्क है। सिरजणे दा एही ता मजा है। तार जुड़ी भी रैह्ंदे कनै जुदे जुदे भी रैह्ंदे। तुसां पढ़ी नै दिक्खा।


वागड़ी बोलिया दे बारे जादा जानकारी नीं मिलदी। मजेदार गल्ल है कनै । असां इनां बब्एयां च बड़े भंगळोई रैंह्दे। जित्थी लगणा, तित्थी लांदे कनै जित्थी लगणा तिम्थी लांदे। आळी वागड़ी राजस्थन च गुजरात आळे पासें है कनैं इक्क बोली होर है तिसा दा नां है बागड़ी। सैह् राजस्थान ते हरियाणे आळे पासें है। खास करी नै सिरसा जिले बह्ल। 

डूंगरपुरे दिया हवेलिया दिया दुआला पर बणेया चित्तर 
यह हेमंत भट्ट की मूल वागड़ी बोली की कविता है। वागड़ी डूंगरपुर और बांसवाड़ा जिले की बोली। हेमंत भट्ट के बचपन की बोली – मादरी ज़ुबान। वे अपने बचपन को अपनी बोली में तलाश करते हैं। जैसे संगी-साथी, माता-पिता चले गए, रोजी रोटी की तलाश में पुश्तैनी घर पीछे छूट गए, गलियां गुम हो गईं, उन्हें फिर से जीने की ललक कवि को अपनी बोली की शरण में ले जाती है। बोली जो खुद परिवर्तन के थपेड़ों को सहन नहीं कर पा रही है। हमें लगा वागड़ी और हिमाचली की जुगलबंदी जमेगी। छीजती हुई बोलियों की संगत कराने के इरादे से हेमंत जी को अनुरोध किया कि इसे हिन्दी में भी लिखें। हिन्दी से कशल कुमार जी ने इसे हिमाचली बाना पहनाया। मजेदार बात है कि तीनों आपस में जुड़ी हुई हैं, इनकी गर्भनाल एक ही है, पर तीनों स्वतंत्र हैं। हेमंत और कुशल दोनों ने अपने हिसाब से रचनात्मक छूट ली है। अब आप देखिए यह उपक्रम कैसा है।  
मंदरेे दिया दुआलां पर सीसे दा जड़ाऊ कम्म   

00   गुआची गिया कुथू मेरा ग्रां 

शैैह्रे दिया इसा दौड़-धुप्पा च
गुआची गिया कुत्‍थु मेरा ग्रां,
तोपी तोपी थकी ईया मन मेरा,
पर मिला नीं मिंजो मेरा ग्रां।
कुत्थी ता  मिलगी कोई ठंडी छां।
सैह ठंडियां ठंडियां हौआं
सैह दिआळिया दे जगमग दिए
सैह होळिया जो मस्तेयो छोह्रू;
त्हारां पर बह्रदे
बुजुर्गों दे शीर्वाद,
अज औआ दे मिंजो खूब याद।
बाणे दियां रस्सियां दे गीत,
माऊ साही गाई लोरीयां सुआंदी थी मिंजो मंजी,
पणिहारिया च वाट मेरी झूरदा,
धरयाह्या देह्या बैठया घड़ा,
कतांह गै सैह सब, कुसजो पुछें?
परलोक सिधारयो अम्मा-बापुए जो!
शैह्रे दिया दौड़-धुप्पा च
गुआची गिया कुत्‍थु मेरा ग्रां !!
वाट दिखी दिखी
रोई रोई थकी गइयाँ
गळियां मेरे ग्रांये दियां
कोई ता औऐ शैह्रे ते हुण!
मन बचारा रंडुआ,
यादां बचपने दियां छातिया पिट्टा दियां,
घरे तिकर औंदी सड़क चुपचाप,
देखी मिंजो झूंडे च लुकणा लगी,
अड़ेसे-पड़ेसे दियां नशाणीयां,
खड्डा दिया रेता  साही मने ते मटोणा लगियां;
घरे दिया ड्योडिया दे टुटदे दुराजे,
लह्गन जियां छड़कोया कारंगा,
किल्‍ह्णां लगा देखी नें मिंजो।
कदी होंदे थे खुशियां नैं भरोयो अंगण,
वारां-तुहारां च गोहा-गारा लिपदी,
थकी़ नैं भी कद़ी नीं थकी मेरी मा,
भ्‍यागा पैह्र सबेला ही निकळी जांदी थी,
गोटुआं-लकड़ुआं  चुगणा
कन्‍नै देखी नें तिसां जो
हासी पौंदा था इक अध म्याळू,
तां भी सैह बड़े प्यारे नें
असां जो खुआंदी छल्लियां दी रोटी-खौह्रू
पच्छैण मेरी गुआची गई
हाँ! भुली देह्या गिया मिंजो मेरा घर,
शैह्रे दिया दौड़-धुपा च
गुआची गिया कुथु मेरा ग्रां।
ओढी ने धूड़ा दी चादर,
मग्न सुतया  घरैं लगया जंदरा
जगाया ता,
घरे दे दरवाजे जागी गै;
अंदर चूहेयां-कनाकडि़यां दा
चला दा था लुक-लकाईया दा खेल।
जित्‍थु कदी मेरी माँ,
रामे दा नां जपदी थी,
दूएं पासें चूल्हे च,
लकड़ुआं गोटुंआ दी अग्गी च तपदी थी।
सूरजे दिया पैह्लिया किरणां कन्‍नै,
अंगणे च नचदी,
हसदी, कूकदी, गांदी 
मिठड़े गीत,
चिड़ियां-घटारियां, तोता, मैना;
पूंछा लेह्ळी करदे सुआगत,
दरेह्ळी पर बैठी,
मेरे घरे टबरे साही बचारी कुत्‍ती,
बड़े चाये नें खांदी इक अध रोटी;
सुआड़ुए च खड़ोतया,
हरया-भरया नीमे दा रुख,
कोई भी ता नीं है, कतांह गै सारे !!
शैह्रे दिया दौड़-धुप्पा च
गुआची गिया कुत्‍थु मेरा ग्रां !!

पैह्नी नाड़े वाळे कच्‍छे
खेलदे थे असां मितरां कन्‍ने कबड्डी,
गुल्ली-डंडा होऐ या नाटक,
मता खेलदे थे!
हुण ता मिंजो भुली देह्या गिया मेरा ग्रां,
शैह्रे दिया दौड़-धुप्‍पा च
गुआची गिया कुथु मेरा ग्रां !!
सैह् तारयां दी गिण्‍ती,
हुंदी थी बाळां दिया गिणतिया साही,
माऊ दे हत्‍थां ने बणाईया खिंदा च,
भाउआं कन्‍नै ओंदी थी निंदर मजेदार।
कुत्‍थु गै सैह भाऊ,
घुळी पौंदे थे काह्लकी
चणोई नीं जान दुआंला प्‍यारे बिच,
इस ताईं हन अज चुप,
टुटियां भज्जियां फिरी भी खड़ोतियां। 
सैह जश्न, सैह तारा मंडळ रातां,
बैलगडिया च बही नें चलदियां थियां जन्‍नेतीं,
ढ़ोल-ढमाके, गाजे-बाजे,
लाड़े वाळे इकी दिने दे राजे-महाराजे,
कुत्‍थी गई सैह आन कन्‍ने शान,
शैह्रे दिया दौड़-धुप्‍पा च
गुआची गिया कुत्‍थु मेरा ग्रां !!
ए शैह्र तू ओंदा कैंह् नीं मेरे ग्रां
मिंजो दस ता सही, कुथु गुआची गिया मेरा ग्रां।

मंदरे च बणयो चित्तर 


 00   कै खोवाई ग्यु मारू गाम

आ शेर नी दौड़ धाम मी
कै खोवाई ग्यु मारू गाम
हुदी हुदी ने थाकयु मन मारू
पण नी मलयु गाम मारू ।
ई मिटा मिटा वायराओ
ई दिवाली ना अजवारिया मेरिया
ई होली ना खुमारी भरया गेरिया;
डूआ डूइयो ना आशीर्वाद,
आवया मने घणा याद।
नवार ना संगीत मी
आखी रातर गातु हाला मारू खाटलु
पणियारा मी मारी वाट जोतु
तरसयु ए माटलु,
कै ग्या, कैने पूसू ?
बाई ने बापुजी तो ग्या परलोक जात्रा,
शेर नी दौड़धाम मी
कै खोवाई ग्यु मारू गाम।
गरियो ए गाम नी,
रूई रूई ने थाकी,
कोई तो आवे शेर थकी
वाट ए जूती हती ।
मन बापडु लागे के रंडायु,
नानपण नी अरु आवी साती कूटवा,
रसताओ घर हुदी ना सूमसाम,
लास काढ़ी ने हंताया मने जोई,
आड़ोसी पाड़ोसी नी तो कोई निशानी,
नदी नी रेत जेम मन थकी सरकवा लागी;
खड़की ना भागेला टूटेला बाण्णाओ
जाणे हुकाई ने थई ग्या लाकड़ू,
हंसी-खुशी थी भरेला आंगणाओ,
थाकी ने पण कारे भी न थाकी बाई मारी,
वार तेवारे गार-साण थकी लीपती,
हवार पड़ी ने साणा-लाकड़ा वीणती
तण तण गुणिया माते मिली पाणी लावती,
एने जोई दाँत काड्तु उंबाडीयू
तोय  खवडावती खाटू ने मकीना रोटला
बाई मारी।
कोई तो उरके मने
हौवे, विसरी ग्यु मने मारू घर
शेर नी दौड़-धाम मी
कै खोवाई ग्यु मारू गाम।
उडी ने धुरा नी सादर
भर नीदर मी हुतु घर नु तारु
जगाड्यू इनी तो
घर नां बाण्णा जागी उठया
हंता कूकड़ी खेलतू ,
उंदरा-गरोड़ियों नो टूरु,
जे जगाए
पूजा-पाठ करती थी बाई मारी;
पिली एडी सूला मीं,
लाकड़ा-साणा नी लाय मीं हींकाती।

सूरज दादा ने आवाता नी हाते
आंगणा मी नासती
दाँत काढ़ी ने गाती सकलिए
पोपट ने काबेरे,
वाडा मी अडिग उबो
आशीर्वाद आलतो लीमड़ो
रोटला नी वाट जोती
पूंसड़ी हलावी डेरी पर बेठी
मारा घर-परिवार नी
बापड़ी ए कूतरी
कोई तो नती, कै ग्या सब
शेर नी दौड़-धाम मी
कै खोवाई ग्यु मारू गाम।
पेरी ने बटन वगर नी सड्डी
सूरा रमे कबड्डी;
गिल्ली-डंडा ने भवई,
संता हती नी कईं।
बाई ने हाते हीवेली सूतरा नी गुदड़ी मी,
तारा गणता गणता कारे,
भाइयो हाती आवती मिटी मिटी नींदर,
ए भाई कारे रसतो भूली ग्या,
जे लड़ी पड़ता हामरी ने घर मी पाड़वा भागला,
आजे ए हगपण नी भीते,
भागेली पण मौन अड़ेखम उबी हती। 
ए वर राजा नो लैट वारो तोर्रों
इक दाडा नो राजो,
टासा पुंगी
बरद गाड़ा मी जती जान
कै खोवाई गई आ शान ने आन
आ शेर नी दौड़ धाम मी
कै खोवाई ग्यु मारू गाम।
ए शेर तू आवतू केम नती हाते मारे,
                                   हुदी ने आल रे मुआ मारू ए गाम रे। 


सारियां तस्वीरां इसा कताबा ते
                                   00     खो गया कहाँ मेरा गाँव
इस  शहर की दौड़-धूप में
खो गया कहाँ मेरा गाँव,
थकित मन मेरा ढूँढता,
कहीं तो मिलेगी कोई शीतल छांव।
वे भीगी भीगी हवाएँ
दीवाली के जयोतिमय मेरिए
होली के झूमते मदमस्त गेरिए;
त्योहारों पर बरसते
बुजुर्गों के आशीर्वाद,
आज आ रहे मुझे खूब याद।
जूट की रस्सियों में तनी,
लोरी गुनगुनाती सुलाती मुझे माँ सी  खटिया,
राह मेरी तकता,
पनियारे में प्यासे सा बैठा मटका,
कहाँ गए ये सब, किसे पूछू?
परलोक सिधारे माँ-पिताजी को!
कि  शहर की दौड़ धूप में,
खो गया कहाँ मेरा गाँव!!
रो रो कर थकी अब
गलियाँ वे गाँव की,
राह तकती,
कोई तो आए शहर से अब!
मन बेचारा विधुर,
यादें बचपन की छाती पीटने लगी,
घर तक की सड़कें चुपचाप,
देख मुझे घूँघट में छिपने लगी,
पड़ौसियों की तो कोई निशानी,
नदी की रेत सी मन से मिटने लगी;
घर के मुख्य द्वार के भग्न होते दरवाजे,
जैसे उखड़े हुये कंकाल,
कराहने लगे देख कर मुझे।
कभी होते थे खुशहाली से भरे आँगन,
कभी कभी या त्योहारों में,
थक कर भी ना थकी कभी मेरी माँ,
गोबर-गारे से लीपती थी। 
सूरज की प्रथम किरण के पहले ही,
कंडे-लकड़ी बीनने निकल पड़ती थी
और उसे देख हंस पड़ता था एकाध मुराड़ा,
तो भी खिलाती हमें प्यार से कढ़ी-मक्का की रोटी,
मेरी माँ!!
पहचान मेरी खो गई,
हाँ! भूल सा गया मुझे मेरा घर,
शहर की दौड़-धूप में
खो गया कहाँ मेरा गाँव।
ओढ़ कर धूल की चादर,
शयनमग्न घर पर लगा ताला,
जगाया उसे तो,
घर के किंवाड़ जग उठे;
भीतर चूहे-छिपकलियों के जमे थे लुका छिपी के खेले।
जहां कभी मेरी माँ,
हरि नाम जपती थी,
दूसरी ओर चूल्हे में,
लकड़ी कंडे की आग में तपती थी।
सूरज की प्रथम किरण के संग,
आँगन में नाचती,
हँसती, किलकारती, गाती
मधुर गीत,
गौरैया, तोते और मैना;
पूछ हिला कर करती अभिवादन,
दहलीज पर बैठी,
मेरे घर परिवार सी बेचारी कुतिया,
बड़े चाव से खाती एकाध रोटी;
बाड़े में खड़ा,
हरा-भरा नीम का पेड़,
कोई तो नहीं, कहाँ गए सब !!
शहर की दौड़ धूप में,
खो गया कहाँ मेरा गाँव!!

पहनकर बटन बिना की चड्डी
खेलते थे हम दोस्तों के साथ कबड्डी,
गुल्ली-डंडा हो या नाटक,
खेलते थे खूब!
अब तो मुझे भूल सा गया मेरा गाँव,
शहर की दौड़-धूप में,
खो गया कहाँ मेरा गाँव!!
वो तारों की गिनती,
हुआ करती थी बालों की गिनती सी,
माँ की हाथ से बनाई गुदड़ी में,
भाइयों के संग नींद खूब आ जाती थी।
कहाँ गए वे भाई,
झगड़ पड़ते थे कभी,
न बनाने के लिए स्नेह के बीच दीवारें,
आज मौन,
वे भग्न फिर भी खड़ी थी।
वो जश्न, वो तारों से सजी रातें,
बैलगाड़ी में बैठ चलती थी बारातें,
ढ़ोल-तासे, गाजे-बाजे,
दूल्हे वाले एक दिन के राजे-महाराजे ,
कहाँ गयी वो आन और शान,
इस शहर की दौड़-धूप में,
कहाँ खो गया मेरा गाँव!!
ए शहर चलता क्यों नहीं मेरे गाँव,

मुझे बता तो सही, कहाँ खो गया मेरा गाँव!!




हेमंत भट्ट का गाँव खड़गदा दक्षिणी राजस्थान का एक न केवल शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी बल्कि अपनी समृद्ध  सांस्कृतिक विरासत और सुदृढ़ धार्मिक और सामाजिक परम्पराओं, निष्ठावान आध्यात्मिक विचारधाराओं और मानवतावादी दृष्टिकोण के कारण सम्पूर्ण राजस्थान में ख्यातिप्राप्त गाँव है। यह गाँव मोरन नदी की गोद में एक शिशु की तरह इस प्रकार से बैठा हुआ है कि इसके मस्तक के दाएँ भाग से बहती हुई यह नदी दाएँ हाथ को स्पर्श करती हुई चरण-स्पर्श करके आगे निकल जाती है। अर्थात् इस गाँव के तीन तरफ़ नदी है। 70 प्रतिशत आबादी ब्राह्मणों की है, 10 प्रतिशत परिवार बनिए, नाई, दर्ज़ी, सुथार और राजपूतों के हैं और 20 प्रतिशत आदिवासी हैं जो अधिकतर नदी के पार खेतों के आसपास रहते हैं।  हेमंत भट्ट ने हायर सेकंडरी तक अपने गाँव खड़गदा में शिक्षा प्राप्त करने के बाद उच्च शिक्षा अहमदाबाद में प्राप्त की। गुजराती स्कूल में हिंदी अंग्रेज़ी अध्यापक की सेवा देने के बादन्यू इंडिया एश्योरेंस कम्पनी में सहायक के पद पर कुछ समय रहे और यूनियन बैंक ऑफ इंडिया से सेवानिवृत्त हुए।         

6 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 22 मार्च 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. बड़ी जबरजस्स कवता।
    गुआच्ची यै यो ग्रांएँ दीया पीड़ा नै धाड़ां पायी नै रोआ क' दी।
    नुवाद तां अक्खर प्रति अक्खर देह्या बद्धिया कीह्तेया भई इन्ह्यां लग्गा करदा भई असली कवता प्हाड़ीया च ही लिखियो हुँगी | कुशल होरां दी प्हाड़ीया पर पकड़ इतड़ी पिड्डी परेळी है भई ग्रांयें दीयां तस्वीरां छाक्‌छात घड़ी तींह्यां । इस रूपान्तरे यो पढ़ने ते बाद बागड़ीय्या च पढ़ने दा भी उन्नां ही मजा लग्गा करदा जिन्ना क जे प्हाड़ीया च पढ़ने दा। हिन्दीया च कीह्त्तेया नुवाद भी कविता दीयां रगांS दींयां पीड़ां जो खरी कीतै ऊकरी नै रखी त्तेय्या।
    आस है देह् देह्यीयां कोस्तां गांह् भी जारी रैह्ण ।

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    1. धन्यवाद सेठी भाई साहब। आपकी कविहृदयी टिप्पणी से मन में प्रोत्साहन की नयी तरंग उमड़ रही है। यह सब अनूप जी के सान्निध्य और उत्साह वर्धन से सम्भव हुआ है। इसमें कुशलजी के आशीर्वाद की अहम भूमिका रही है।

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