पहाड़ी भाषा दी नौई चेतना .

Saturday, June 20, 2015

डल्‍हौजिया दी भ्‍याग




अरुंधती सेठी दी एह् कवता अंग्रेजिया च है। तेज सेठी होरां इसा दा प्‍हाड़ी कनै हिंदी अनुवाद कीत्‍तेया। एत्‍थी तुसां तिन्‍नो ई रूप पढ़ी सकदे। 



डल्‍हौजिया दी भ्‍याग 

तड़कैं 
जाल्हू हतियें सूरजैं हयी नी ही दित्तीयो इस टिल्लुये आळैं सैह्रे पंधाकड़ी
मैं भी जाग्गी गई पहाड़ां सौग्गी सौग्गी
जेह्ड़े लग्गन नरम पि:र्घळेयो नील जे:

(इंञ्यां ) नी थे सै: बटण्क सप्पड़ खरिंग्गड़
पैनीयां चूण्डीयां आळे किता क:ण्ढेयां आळे
सूह्ये सोह्ल सकलीं ते
कनै ढिल्ले द्राव्वे सा:हींयें (परल-पाणी)
लगैंभगैं सान्त लैह्रां जणतां
बणी बणी पौआ दीयां दयालुये समुंद्रैं प्राह्लैं

वर्फा देयां टोप्पूआं चक्की नै गासों गास
चढ़दे ज्वारे दे झग्गे दे मुण्डां सा:ह्यी
जां जे छुट्क्ड़ैह्दीयां पहाड़ियां
मूंह्दैं मुंहैं टेक्का दीयां मत्थेयां

मैं तिन्हां दियां लीह्कां खिन्जी तीयां खिड़किया दे इस पास्से ते
अपणीयां आउंगळीयां फेरी नै ठण्ड्ड़े सीस्से प्राह्लैं ही

कोहां दूरा ते
क्या मैं दिक्खेया नी हूंन्गा
भई पहाड़ कम्बी पैये
मेरे छूणे ते?
नाजक लैह्रां सौग्गी जीञ्यां मैं तरदी गई?

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डलहौजी की भोर 

तड़कें
जब सूरज ने अभी दी भी न थी दस्तक इस पहाड़ी कस्‍बे पर
जब मैं उठ गई पर्वतों के साथ ही

वे तब थे केवल नर्म पिघले नीलम
नहीं थे वे तेज़ धारदार चट्टानी शिखर या किनारे 
अपितु सह्ज तरल द्रव से
लगभग शांत लहरों से, करुण समुद्र की सतह पे

तुषार शीशों को उठाये हुये ज्यों आते हुये ज्वार की झाग हों
जबकि लघु उपत्यकायें झुक गईं हों सम्मान से

मैंने उनकी लकीरें खींच कर रख लीं अपनी खिड़की से
अपनी ऊंगलियों को फिराते हुये ठंण्डे शीशे पे

मीलों दूर 
नहीं देख पाई 
पर्वतों की सिहरन कोई?
मेरी छुअन से
नाजुक लहरियों के संग मैं तैरती सी?

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Dalhousie Dawn

In the early morning
When not even the sun had paid this hill town a visit
I woke up to mountains
That were a soft molten blue.

Not rock solid with sharp peaks or edges
But gentle in form
and fluid in stance
Almost like calm waves formed on the surface of a benevolent sea.

The tips of snow rising above the rest like the foaming heads of the incoming tide.
While the smaller hills
Bowed low in reverence.

I traced their lines from this side of the window
Running my finger across the cold glass.

Miles away
Did I not just see
The mountains shiver at my touch?
Rippling delicately as I floated along?   

7 comments:

  1. कुछ देर तक असमंजस में रहा हूं कि एक ही कविता को अलग-अलग भाषायी धरातल पर खड़ा हो कर पढ़ा हूं या फिर एक कविता की तीन कविताएं देख रहा हूं। कविता जिस सरल और साधरण बयान से शुरू होती है उससे कथारस जैसा कौतूहल भी जगा और अंत में आते-आते जो खूबसूरती बनी वह लूट कर ले गई। कई स्‍तरों पर एक साथ चलने वाली यह कविता अंत में पाठक को यह महसूस करवा देती है कि वह भी अपनी अंगुलियों से शीशे पर पहाड़ी की प्रति आकृति खींच रहा है और तैर भी रहा है। उनके लिए भी जिनके पहाड़ नेमत हैं और उनके लिए भी जिनके लिए यह कभी कभार ज़हमत बन जाते हैं...बतौरेखा़स सर्दियों में। क्‍या दृश्‍य जीवंत किए। स्‍पर्श मिला मन को। अरुंधती जी को हार्दिक बधाई।

    बहुत उम्‍दा कविता।
    अब अनुवादक जी की बात।
    बहुत उम्‍दा और गहरे पैठ कर और फिर तैर कर ...यानी हर आयाम को महसूस कर किया गया अनुवाद।
    अंग्रेजी में ट्रेस करना हिंदी में लकीर खींचना कने प्‍हाडि़या च तिसदा लीक बणना...इक छोटा जेह़्या उदाहरण अपर बहुत खूब। भाई तेज सेठी जी जो बधाई।
    बड़ी विनम्रता से एक बात रखना चाहूंगा। Early morning को सुबह तड़के के बजाय केवल भाेर या सुबह और पहाड़ी में तड़के लिख कर भी काम चल सकता था।
    तेज सेठी साहब का पहाड़ी और हिंदी पर प्रभुत्‍व ईर्ष्‍या पैदा करता है। और अंग्रेजी पर भी।
    दयार का आभार।

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  2. नवनीत जी दा गलाणा बिल्‍कुल ठीक है तेज भाई जी दी पहाड़ी कनै हिन्दी ता पता थी पर अंगरेजी भी। भाई जी प्रणाम!
    अरुंधती जो इक मुकम्म्ल कवता ताईं बधाई कनै शुभकामनां।

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  3. बहुत उम्‍दा कविता और उसका अनुवाद :)

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  6. Wah wah kya baat hai !! maja aa gaya!!

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  7. वाह वाह!!! बधाई हो आप तीनों को. अब बिटिया भी उसी लाइन में जा रही है. अनेक-अनेक शुभकामनाएं.

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