पहाड़ी भाषा दी नौई चेतना .

Tuesday, June 2, 2015

पहाड़ी भाषा के सन्दर्भ में भाषावैज्ञानिक एवं व्यावहारिक अवलोकन


अज दयारे पर राजीव त्रिगर्ती होरां दा लेख पहाड़ी भाषा के सन्‍दर्भ में भाषा वैज्ञानिक एवं व्‍यावहारिक अवलोकन’ पेश है। इस लेखे च पहाड़ी भाषा दे बारे च खुल्‍ली डुल्‍ली कनै भाषा विज्ञानी तरीके नै गल्‍ल होई है। एह लेख हिंदिया च है। दयारे पर असां कोसस करदे जे हिंदिया च कोई रचना होऐ तो तिसा दा पहाड़िया च अनुवाद भी दित्‍ता जाऐ। पर इस लेखे दा अनुवाद असां नी दित्‍ता। कैंह् जे इक ता मूल लेख हिंदिया च है कनै इक्‍की किस्‍मा दा तकनीकी लेख है। जे इह्दा अनुवाद होया भी तां भी सैह् हिंदिया दा ही लेख बझोणा है। पहाड़ी भासा हाली कुरने दिया अवस्‍था च है। इसा दे मते कम्‍म हिंदिया दे मार्फत ई होणे हन। इस करी इस लेखे जो हिंदिया च ही पढ़ा। जे भासा दे बारे च गलबात गांह् बधै तां तसवीर कुछ साफ होणी है। नौजवान पीढ़िया ते असां जो बड़ी उम्‍मीद है। 




पहाड़ी भाषा दे पितामाह लालचंद प्रार्थी 
 भाषा की उत्पत्ति के विषय में भले ही अब तक किसी सर्वमान्य निष्कर्ष तक नहीं पहुंचा जा सका हो परन्तु जीवन में भाषा के महत्त्व पर तो किसी प्रकार का कोई प्रश्‍न ही नहीं उठता। मानव सभ्यता के चहुँमुखी विकास के साथ-साथ भाषा का महत्त्व भी दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। भाषा मात्र विचारों के आदान-प्रदान का साधन ही न होकर मानव जीवन के लिए तो आधार स्तम्भ ही है। भाषा राष्ट्रीय चेतना की संवर्धक होने के साथ-साथ जातीय संगठन को भी दृढ करती है। इसके माध्यम से मनुष्य के सांस्कृतिक और सामाजिक विकास तथा ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के बारे में भी सरलता से जाना जा सकता है। इन्हीं समस्त कारणों से भाषा न केवल बोलचाल के माध्यम के रूप में ही अपितु सभ्यता विकासक्रम के अनेक पहलुओं और आधुनिक जीवन के प्रत्येक विषय के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध बनाए हुए है।
पूरे संसार में लगभग चार हजार भाषाओं के प्रयोग को देखते हुए भाषाविदों ने इनके अनेक प्रकार के वर्गीकरण प्रस्तुत किए, जिनमें सबसे महत्त्वपूर्ण वर्गीकरण पारिवारिक वर्गीकरण है। इस पारिवारिक वर्गीकरण में सांस्कृतिक, सामाजिक, साहित्यिक तथा ऐतिहासिक इन समस्त दृष्टियों से भारोपीय परिवार बड़ा महत्त्वपूर्ण है। भारोपीय परिवार की ग्रीक,  लैटिन और संस्कृत जैसी तीन भाषाओं का अपना विशिष्ट महत्त्व है। इनमें से भारतीय भाषाओं के सम्बन्ध में संस्कृत की भूमिका बड़ी ही महत्त्वपूर्ण है। भारोपीय परिवार से सम्बधित समस्त आधुनिक भारतीय भाषाएं संस्कृत निसृत हैं। संस्कृत से आधुनिक भारतीय भाषाओं तक पहुंचने में इस श्रृंखला को प्राकृत और अपभ्रंश से होकर गुजरना पड़ा है। इसी कड़ी में कुछ भाषाएं मागधी से निकलीं, कुछ अर्धमागधी से, कुछ महाराष्ट्री से, कुछ शौरसेनी से तो कुछ पैशाची से निकलीं।
भारत की भाषाओं के सन्दर्भ में सर्वप्रथम जो सफल सर्वेक्षणात्मक कार्य हुआ, वह जार्ज़ अब्राहम ग्रियर्सन द्वारा भारत का भाषा-सर्वेक्षणनाम से किया गया। इस बात को साफ तौर पर स्वीकारने में किसी प्रकार की हिचक नहीं होनी चाहिए कि यह कार्य एक नींव मात्र है और इसमें दिए गए निष्कर्षों को अन्तिम नहीं मानना चाहिए परन्तु यह एक ऐसा कार्य है जिसके परिणामस्वरूप हम भारत में प्रयुक्त न केवल आर्य परिवार की भाषाओं के सन्दर्भ में ही जानकारी प्राप्त करने में सफल
होते हैं अपितु हमें अन्य परिवारों की भारत में प्रयुक्त भाषाओं के विषय में भी एक हद तक पर्याप्त जानकारी मिलती है।
हिमाचल में भाषाओं के सन्दर्भ में जार्ज़ अब्राहम ग्रियर्सन द्वारा लिखित भारत का भाषा-सर्वेक्षण, खण्ड-1, भाग-1’ में पहाड़ी भाषाओं के अन्तर्गत पहाड़ी को तीन श्रेणियों में विभक्त किया- पूर्वी पहाड़ी, मध्य पहाड़ी तथा पश्चिमी पहाड़ी। पूर्वी पहाड़ी को नेपाली नाम दिया गया और अपनी कुछ बोलियों के साथ एक परिनिष्ठित रूप में यह नेपाल के साथ-साथ भारत के भी नेपाली बहुल क्षेत्रों में व्यवहृत होती है। मध्य पहाड़ी के रूप में नैनीताल के पहाड़ी क्षेत्र में बोली जाने वाली कुमायुंनी तथा गढ़वाल और मसूरी के पहाड़ी प्रदेश के निकटवर्ती क्षेत्र में प्रयुक्त होने वाली गढ़वाली ये दो रूप हैं। पश्चिमी पहाड़ी के क्षेत्र के सम्बन्ध में बताते हुए ग्रियर्सन लिखते हैं - उत्तर प्रदेश के जौनसार बावर प्रदेश से लेकर पंजाब की सिरमौर रियासत, शिमला की पहाड़ियों, कुल्लू तथा मंडी एवं चम्बा की रियासतों और काश्‍मीर की भद्रवाह जागीर तक प्रसरित है। इस भाषा की बहुसंख्यक बोलियां हैं। ये सब एक दूसरी से काफी भिन्न हैं, किन्तु इतने पर भी इनमें अनेक समानताएं हैं।
सुविधानुसार इन्हें नौ शीर्षकों के अन्तर्गत विभक्त किया गया है -
 1.जौनसारी, 2. सिरमौरी, 3. बघाटी, 4.क्योंथली, 5.सतलुज वर्ग (शिमला की बोलियॉं), 6.कुल्लू वर्ग, 7.मंडी वर्ग, 8.चम्बावर्ग (चमेयाळी,गादी, पंगवाळी), 9.भद्रवाह वर्ग(भद्रवाही, भळेसी, पाडरी)।
यहॉं पर जिला कांगड़ा ((कांगड़ा, हमीरपुर और ऊना) तथा कहलूरी ((बिलासपुरी) का उल्लेख नहीं है। भारत का भाषा सर्वेक्षण, भाग 9-पंजाबीमें ग्रियर्सन ने डोगरी को पंजाबी की बोली माना है तथा कांगड़ी और भटेआली का उल्लेख डोगरी की उपबोलियों के रूप में किया गया है। भटेआली के सम्बन्ध में लिखा है कि चम्बा रियासत के पष्चिम में जम्मू की ओर भटेआली बोली जाती है। यह डोगरी का एक भेद है, किन्तु कांगड़ी की तरह एक मिश्रित प्रकार की भाषा है। कांगड़ी के विषय में लिखा है कि यह बोली अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बातों में डोगरी के समान है। साथ ही कांगड़ी की पाण्डुलिपि भी मुद्रित की गयी है जिसके सम्बन्ध में पृष्ठ 190 पर स्पष्ट उल्लेख है कि यह पाण्डुलिपि कांगड़ा के निवासी द्वारा नहीं लिखी गयी।
भारत का भाषा सर्वेक्षणके इसी भाग में पृष्ठ 105 पर कहलूरी((बिलासपुरी) के बारे में उल्लेख है कि कहलूर होशियारपुर जिले के तुरन्त पूर्व में पड़ता है। उस जिले के संलग्न पहाड़ी भाग में एक बोली बोली जाती है जिसका स्थानीय नाम मात्र पहाड़ी है। यह कहलूरी ही है। कहलूरी को अब तक पश्चिम पहाड़ी का एक रूप कहा जाता रहा है किन्तु नमूने का परीक्षण करने से लगता है कि ऐसा नहीं है। यह केवल अनगढ़ पंजाबी ही है, होषियारपुर में बोली जाने वाली भाषा के समान।
इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि आधुनिक हिमाचल में भारोपीय परिवार की बोलियॉं ग्रियर्सन के सर्वेक्षण के अनुसार अलग-अलग श्रेणियों में विभक्त प्राप्त होती हैं। कुछ को पहाड़ी की पश्चिमी शाखा में परिगणित किया है और कुछ को पंजाबी की बोलियों के रूप में रखा है। ग्रियर्सन का वर्गीकरण कितना सही है और कितने ठोस प्रमाणों पर आधारित है, इस विषय में पहले तो इतना ही कहा जा सकता है कि यदि डोगरी पंजाबी की बोली है तो कांगड़ी का उल्लेख डोगरी की बोली के रूप में किस आधार पर किया गया। उसे स्वतन्त्र रूप से पंजाबी की बोली स्वीकार करने में ग्रियर्सन को कहां कठिनाई आयी होगी। दोनों पंजाबी से समान रूप से दूर हैं और कॉंगड़ी के विकास को डोगरी के माध्यम से प्रद्रशित करना इस सर्वेक्षण की एक बहुत बड़ी भूल है। व्यापक और वास्तविक विवरणों की कमी के कारण ही ऐसी स्थिति हुई जिससे हर बोली और भाषा को न तो उचित स्थान प्राप्त हुआ और न ही सही  मूल्यांकन ही सामने आ सका। इतना होने पर भी डा0 ग्रियर्सन का प्रयास स्तुत्य है और व्यापक स्तर पर भाषा सर्वेक्षण में अपनी तरह का प्रथम प्रयास होने से इस तरह की कमी का रह जाना मायने नहीं रखता।
इस बात को और अधिक स्पष्टरूप से जानने के लिए डा0 मौलूराम ठाकुर के मत को देखना अत्यावश्‍यक है। उनके द्वारा स्थिति को और भी स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। पहाड़ी रचनासारनामक पुस्तक की भूमिका में ये स्पष्ट करते हैं-कांगड़ी की अपेक्षा चम्बयाली न केवल डोगरी के अधिक निकट है, अपितु जब ग्रियर्सन कांगड़ी को डोगरी की बोली मान चुके होते तो पंजाबी से अधिक घिरी हुई भी होती। अतः कांगड़ा की अपेक्षा चम्बयाली को डोगरी-पंजाबी की बोली होना चाहिए था। परन्तु डा0 ग्रियर्सन ने चम्बयाली को डोगरी की बोली नहीं कहा क्योंकि चम्बयाली का उनके पास न कोई ठीक अनुवाद उपलब्ध था, बल्कि साथ ही डा0 ग्राह्म बैली की पर्याप्त सामग्री भी अध्ययनार्थ प्राप्त थी। स्पष्ट है यदि डा0 ग्रियर्सन को कांगड़ी का वास्तविक नमूना मिलता तो वे संदिग्ध निर्णय देने के लिए मजबूर न होते। कांगड़ी बोली डोगरी की अपेक्षा चम्बयाली और मंडियाली के समीप है गठन के आधार पर ही नहीं अपितु भौगोलिक स्थिति के बिना पर भी कांगड़ी बोली चम्बयाली और मंडियाली के समीप है और उपर्युक्त दोनों बोलियॉं डा0 ग्रियर्सन के अनुसार और वस्तुस्थिति के मुताबिक पहाड़ी की विशुद्ध बोलियॉं हैं।
अतः पहाड़ी के नौ वर्ग डा0 ग्रियर्सन के अनुसार प्रस्तुत किए गए और डा0 ग्रियर्सन तथा आधुनिक समय में पहाड़ी भाषा की बोलियों पर किए गए शोध-कार्यों तथा उनके प्रयोग क्षेत्रों के आधार पर डा0 मौलूराम ठाकुर ने भी पहाड़ी रचनासारकी भूमिका में पहाड़ी भाषा को नौ वर्गों में ही विभाजित किया परन्तु उनके विभाजन में कांगड़ी और कहलूरी भी सम्मिलित हैं। इनके अनुसार ये वर्ग इस प्रकार हैं-  1.जौनसारी, 2. सिरमौरी, 3. बघाटी, 4.महासूई , 5.कुलुई, 6. मंडियाली-बिलासपुरी, 7. कांगड़ी , 8.चम्बयाली(चमेयाळी, गादी, चुराही, (पंगवाळी), 9.भद्रवाही( भद्रवाही, भळेसी, पाडरी)।
                इन समस्त वर्गों की अपनी-अपनी विशेषताएं हैं और ये विशेषताएं ही इन्हें एक दूसरे से अलग करती हैं। इस सन्दर्भ में भौगोलिक संरचना भी एक मुख्य आधार है। डा0 मौलूराम ठाकुर इस आधार को विस्तार के साथ प्रस्तुत करते हुए पहाड़ी की स्पष्टतः दो उपशाखाएं स्वीकारते हैं। हिमाचल प्रदेश के मानचित्र पर जरा ध्यान दिया जाए तो इसकी स्थलाकृति के मुख्यतः दो भाग हैं - एक भाग मध्य हिमालय में पड़ता है जिस में पूर्व-दक्षिण से उत्तर-पष्चिम की ओर क्रमश: किन्नौर जिला, लाहुल-स्पिति जिला के पूर्ण क्षेत्र और चम्बा जिला का चम्बा-लाहुल इलाका शामिल है। भाषाशास्त्रियों ने इस क्षेत्र की भाषा को तिब्बती-बर्मी नाम दिया है और यह भारतीय आर्यभाषा परिवार में नहीं आती। इस क्षेत्र से आगे बाह्य हिमालय पड़ता है। बाह्य हिमालय क्षेत्र के भी ठीक इसी दिशा में अर्थात् पूर्व-दक्षिण से उत्तर-पश्चिम की ओर दो भूभाग हैं भीतरी भाग और बाहरी भाग। भीतरी भाग में हिमाचल के सिरमौर-सोलन-शिमला-कुल्लू जिले, कांगड़ा का उत्तरी पर्वतीय गादी भाषी क्षेत्र तथा चम्बा का चुराही और पंगवाली क्षेत्र पड़ते हैं। षेष समस्त क्षेत्र बाहरी भाग में पड़ता है। भीतरी भाग पहाड़ी भाषा की भीतरी उपषाखा का क्षेत्र है जिसमें भाषायी दृष्टि से देहरादून का जौनसारी बाबर और जम्मू-कष्मीर का भद्रवाही क्षेत्र भी पड़ता है। बाहरी उपशाखा में मुख्यतः बिलासपुर, मंडी, हमीरपुर, ऊना, कांगड़ा और चम्बा जिले पड़ते हैं। मूलरूप से दोनों उपशाखाओं में वे सभी गुण विद्यमान हैं जो पहाड़ी की मुख्य विषेषताएं हैं तथा जिनके आधार पर पहाड़ी भाषा भाषावैज्ञानिक दृष्टि से पड़ोसी भाषाओं से भिन्न और स्वतंत्र है।
यहां यह स्पष्ट है कि डा0 मौलूराम ठाकुर भी हिमाचल में प्रयोग होने वाली भारतीय आर्यभाषा परिवार की बोलियों के क्षेत्र को बाह्य हिमालय के दो विभिन्न भौगोलिक भागों में बांटते है। इसमें भीतरी भाग में पहाड़ी की भीतरी उपषाखा का प्रयोग देखा जाता है और इसमें सिरमौर-सोलन-षिमला-कुल्लू जिले, कांगड़ा का उत्तरी पर्वतीय गादी भाषी क्षेत्र तथा चम्बा का चुराही और पंगवाली क्षेत्र के साथ-साथ जम्मू-काष्मीर और उत्तरांचल के कुछ क्षेत्र भी सम्मिलित है। बाहरी भाग में पहाड़ी की बाहरी उपशाखा का ही प्रयोग होता है जिसमें मुख्यतः बिलासपुर, मंडी, हमीरपुर, ऊना, कांगड़ा और चम्बा जिले के अधिकांश क्षेत्र को सम्मिलित किया गया है। अतः यह स्वीकार करने में किसी भी प्रकार की शंका नहीं है कि पश्चिमी पहाड़ी भीतरी और बाहरी नामक दो श्रेणियों में विभक्त है। यह अलग बात है कि इन दोनों श्रेणियों में विभक्त क्षेत्र का सीमांकन काफी हद तक आगे-पीछे भी हो सकता है और इन दोनों श्रेणियों के विभाजन की रेखा को बड़ी स्पष्टता से अंकित नहीं किया जा सकता। समभाषांष सीमारेखा मूलतःकिस श्रेणी की ओर झुकी है इसका निर्णय सहजता से नहीं किया जा सकता। किसी भी समभाषांश सीमारेखा क्षेत्र के साथ ऐसा होना स्वाभाविक ही है क्योंकि ऐसे स्थलों पर दोनों भाषाओं/बोलियों का संमिश्रण होता है और यदि कोई एक बोली किसी एक स्थान पर अधिक प्रभावी है तो दूसरे स्थान पर दूसरी का प्रभाव हो इस बात को नकारा नहीं जा सकता।
स्वतंत्रता के उपरान्त भौगोलिकता के आधार पर कुछ क्षेत्र इकट्ठे होते-होते राजनीतिक रूप से हिमाचल के नाम से संगठित हुए और धीरे-धीरे डा0 ग्रियर्सन द्वारा प्रदर्शित पश्चिमी पहाड़ी और पंजाबी के अन्तर्गत प्रदर्शित कॉंगड़ी, कहलूरी तथा चंबयाली आदि को पहाड़ी नाम के साथ एक सांचे में प्रदर्शित करने के प्रयत्न जोरों पर हो गए। डा0 मौलूराम ठाकुर के अनुसार पश्विमी पहाड़ी के ही बाह्य हिमालय क्षेत्र के श्रेणी-विभाजन के उपरान्त भीतरी उपषाखा और बाहरी उपषाखा नाम से दो भाग हैं। विगत कुछ वर्षौं  से पहाड़ी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने हेतु निरन्तर प्रयास किए जा रहे हैं। इस कार्य में न केवल साहित्य-संस्कृति से जुड़ा बुद्धिजीवीवर्ग प्रयासरत है अपितु प्रशासनिक और राजनीतिक भागीदारी के साथ-साथ हिमाचल का जनसमुदाय भी अपनी भाषायी पहचान को बनाए रखने हेतु प्रयासरत है।
सामान्य तौर पर यह विचार या आम धारणा सामने आती है कि भाषा का दर्जा दिया जाना सर्वप्रथम बोलने वालों की संख्या पर निर्भर करता है परन्तु भाषा-वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संख्या का कोई अधिक महत्त्व नहीं है। कम बोलने वाले हों परन्तु बोली सुगठित तथा साहित्यिक दृष्टि से समृद्ध हो तो भाषा का दर्जा दिया जा सकता है। इसके लिए एक अच्छे शब्दकोष तथा सर्वांगीण समृद्ध व्याकरण की आवश्‍यकता होती है।
शब्दकोष के सम्बन्ध में हिमाचल कला संस्कृति एवं भाषा अकादमी द्वारा सन् 1989 में एक प्रयास किया गया था जिसके अन्तर्गत पहाड़ी हिन्दी शब्‍दकोषका निर्माण किया गया उसमें भारतीय आर्यभाषा परिवार की बोलियों के शब्दों को एकत्रित किया गया और उन शब्दों के साथ उन जिलों के नाम भी दिए गए जिनमें इन शब्दों का प्रयोग सामान्यतःकिया जाता है। परिशिष्ट भाग में लाहुल-स्पिति तथा किन्नौर की बोलियों पर आधारित शब्दकोष को भी जोड़ा गया है परन्तु यह प्रयास इतना उच्चकोटि का नहीं है जितना कि पहाड़ी भाषा हेतु अपेक्षित है। एक तो इसमें बहुत से शब्दों का उल्लेख नहीं है और दूसरा शब्दों के साथ जिलों का उल्लेख होने से भाषा के प्रति समर्पण की कमी झलकती है। शब्दों के साथ जिलों का उल्लेख होने से बोलियों का महत्त्व झलकता है तथा उनके आपस में भेदों की ओर ध्यान जाता है न कि पहाड़ी भाषा की एकरूपता के प्रति। वर्तनीगत साम्यता होने पर भी ऐसे शव्दों की संख्या कम ही है जो भीतरी और बाहरी उपशाखा के जिलों में बिना किसी उच्चारण भेद के प्रयुक्त होते हों। और तो और एक उपशाखा की बोलियों में भी उच्चारण साम्य नहीं मिलता।
जहॉं तक व्याकरण का प्रश्‍न है, यह कार्य शब्दकोष की अपेक्षा अधिक जटिल है। व्याकरण में ध्वनिगत, शब्दगत, पदगत और वाक्यगत विविधताएं कदम-कदम पर सामने आती हैं। व्याकरणिक कोटियों को भी एकरूपता में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता क्योंकि भीतरी उपशाखा और बाहरी उपशाखा में साम्य कहीं भी उस पराकाष्ठा तक नहीं दिखता जहॉं दोनों को एक भाषा के अन्तर्गत स्वीकार किया जाए। और तो और भीतरी उपशाखा और बाहरी उपशाखा की महासुवी और कॉंगड़ी जैसी बोलियों में काफी अन्तर दिखता है। इसके पीछे दो कारणों की संभावना पर विचार किया जा सकता है। एक तो यह कि ये बोलियॉं इतनी विकसित हो चुकी हैं कि अब अपने आप को भाषा के रूप में स्थापित करने का सामर्थ्य रखती हैं और दूसरा कि भीतरी उपशाखा की पहाड़ी मध्य पहाड़ी से निकट रही हो और बाहरी उपशाखा की बोलियों पर सीमावर्ती पंजाबी का प्रभाव हो। यही नहीं कहीं-कहीं तो एक उपशाखा की दो बोलियॉं भी एक दूसरे से काफी पृथक् प्रतीत होती हैं। अब कोई एक दूसरी बोली को समझने की हामी भरे तो बिना ज्ञान के उसे एक हद तक ही समझा जा सकता है और एक हद तक तो भोजपुरी, राजस्थानी भी समझ आ जाती है और डोगरी जैसी पड़ोसी भाषा तो हिमाचल की बोलियों से कहीं ज़्यादा अच्छी तरह समझी-बोली जा सकती है यदि वक्ता कांगड़ी या चंबयाळी का वास्तविक वक्ता या जानने वाला हो।
पहाड़ी को भाषा के रूप में स्थापित करने के पीछे तर्क यह भी दिया जाता है कि बंगला, मराठी, नेपाली और हिन्दी आदि ही क्या, अनेक अन्य भाषाएं भी तो विविध बोलियों के बीच से ही निकलकर सामने आयी हैं तो पहाड़ी क्यों नहीं। वास्तव में इस तरह का विचार को गम्भीर तर्कपूर्ण नहीं कहा जा सकता। पहाड़ी इसलिए नहीं क्योंकि बोलियों और भाषाओं को एक दूसरे से पृथक् करने वाले जो तत्त्व होते हैं उनमें महत्त्वपूर्ण भूमिका में क्रियापद और कारक चिह्न होते हैं। क्रियापदों और कारक चिह्नों में एकरूपता आने में कितना समय लगता है या इसके लिए कितना साहित्य अपेक्षित है कुछ भी निश्चितरूप से नहीं कहा जा सकता क्योंकि भाषायी परिवर्तन किसी प्रकार की बौद्धिक या समयगत सीमाओं में बद्ध नहीं हैं। उस समय की परिस्थितियों को न समझते हुए उन आधारों पर इस समय किसी भाषा का राग आलापना उचित नहीं है फिर एक जैसे क्रियापदों और कारक चिह्नों के होने पर भी हिन्दी और उर्दू को दो भाषाओं के रूप में स्थापित करने के पीछे भी तो निजी स्वार्थों के अलावा और कोई कारण कहॉं है।
निजी स्वार्थों से ऊपर उठकर पहाड़ी के लिए वही किया जाना चाहिए जो पहाड़ी के लिए उपयुक्त है। ऐसी स्थिति में एकाधिक भाषाओं पर विचार करना चाहिए जिस प्रकार से मध्य पहाड़ी की कुमायुंनी तथा गढ़वाली दो भाषाएं विकसित हो गयीं। वैसे भी भाषा कोई जोड़-तोड़कर बनाई नहीं जाती, बोलचाल और साहित्य का सतत् प्रवाह ही भाषा का निर्माण करता है। पर्याप्त साहित्य लेखन से समस्त बोलियॉं एक मानकरूप धारण कर लें उसके लिए पचास साल भी लग सकते हैं, उससे ज़्यादा भी। आज के विकसित समय में एक क्षण के लिए इस बात को स्वीकार कर भी लिया जाए कि वैष्वीकरण आदि कुछ कारणों से बोलियॉं एक दूसरे में विलीन हो रही हैं तो यह भी इतनी शीघ्रता से संभव नहीं। वैसे भाषाविज्ञान का सर्वमान्य सिद्धान्त है कि बोलियॉं ही विकास के साथ-साथ भाषा का रूप धारण करती हैं। अधिक प्रभावी बोली अपनी पड़ोस की बोलियों से ऊपर उठकर भाषा का लवादा ओढ़ लेती है। हिमाचल की समस्त बोलियों में कोई एक बोली उठकर भाषा के मानकरूप में अपना स्थान सुनिष्चित कर पाएगी अब तक की परिस्थितियों को देखकर ऐसा नहीं लगता क्योंकि अधिकांश बोलियॉं लगभग समान रूप से आगे बढ़ रही हैं। 
इसके अतिरिक्त एक दूसरा पक्ष भी पहाड़ी के विषय में विचारणीय है। भारोपीय परिवार भाषाभाषी ऊपरी हिमाचल और निचले हिमाचल में भी या हिमाचल-मित्रके अक्तूबर 2006 के अंक में मधुकर भारती द्वारा ग्राम्यदेवता प्रथाप्रधान तथा ग्राम्यदेवता प्रथाविहीन क्षेत्रों में {उल्लिखित सीमांकन लगभग पश्चिमी पहाड़ी के बाह्य हिमालय क्षेत्र के भीतरी भाग और बाहरी भाग नामक दो श्रेणियों में विभाजन के अनुरूप ही है } दो भाषाओं के रूप में विकसित करने के पक्ष में तर्क देना भी पहाड़ी के दो रूपों के विकास को सार्वजनिक रूप से निःसंकोच स्वीकार करने के प्रति आग्रह को प्रकट करता है।
व्यावहारिक रूप में भले ही अनेक बोलियों को सामूहिक रूप से एक ही नाम से संबोधित किया जा रहा हो परन्तु स्वरूपगत विविधताएं संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान प्राप्त करने के मार्ग में बाधाएं हैं। राजनीतिक या अन्य दृष्टिकोणों से हटकर भाषा-वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विचार करना ही पहाड़ी के हित में है। कुछ पहाड़ी बोलियॉं भाषा-वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इतनी समृद्ध हैं कि उन्हें भाषा का दर्ज़ा दिया ही जाना चाहिए परन्तु जिस रूप में चाहा जा रहा है उस रूप में किसी कारण से संभव हो जाने पर भी यह लाभप्रद नहीं है। इस प्रश्‍न  को सुलझाने के लिए निष्पक्ष भाव से समस्त पहलुओं पर बात करना, गूढ विचार करते हुए हर तर्क को कसौटी पर कसना भी अनिवार्य है। कोई भी भाषा अपने स्वरूप के चलते वैज्ञानिक पद्धति पर आश्रित होने के कारण उस पर विचार एक विशुद्ध शास्त्रीय विषय है और इसे नितान्त भावुकता से जोड़कर देखना कदापि युक्तिसंगत नहीं।
भाषा का स्वरूप किसी कार्यषाला या विद्वदगोष्ठी में निर्धारित नहीं किया जा सकता। अनर्थक नियमों में आबद्ध भाषा जीवित नहीं रह सकती। भाषा के व्यक्तिगत रूप के आधार पर तो भाषाएं अनन्त हैं। क्षेत्रीय बोलियॉं अपने प्रभाव के कारण भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त करती हैं। कुछ बोलियॉं अपने आस-पड़ोस की बोलियों को दबाकर अपने भाषायी अस्तित्व को प्रकट करती हैं। इनके परिणामस्वरूप कुछ बोलियॉं कालान्तर में अपने स्वरूप को या तो उस बोली में विलीन कर देती हैं या बोली के रूप में अपने अस्तित्व को बचाए रखने की सफलता के साथ स्वयं को भाषा के रूप में स्थापित करने हेतु प्रयत्नशील हो जाती हैं। इस प्रकार से मध्य पहाड़ी की कुमायुंनी तथा गढ़वाली की तरह ही पष्चिमी पहाड़ी की अनेक बोलियॉं भी बोली के स्थान से उठकर भाषा के रूप में स्थापित होने के निकट हैं। निजी तौर पर यदि ये बोलियॉं भाषा के मानकों को यदि पूरा कर लें तो इन्हें भाषा के रूप में स्वीकारने में किसी को भी किसी प्रकार की कोई हिचक नहीं होगी। किसी भी बोली के उत्कृष्ट साहित्य के साथ-साथ यदि अपना मौलिक व्याकरण तथा शब्दकोष हो तो उसे भाषा के रूप में स्वीकारने में कोई संकोच दिखायी नहीं देता।
अतः हिमाचल की बोलियों को मिलाकर एक मानक भाषा तैयार करना या हिमाचल के आर्यभाषी दो भौगोलिक वर्गों के आधार पर दो भाषाओं को विकसित करना या किसी एक या कुछ महत्त्वपूर्ण बोलियों को मानक भाषा का दर्जा देना यदि कहीं संभव है तो यह असंभव उससे भी अधिक है। दूसरे और तीसरे रूप में कहीं न कहीं एक दूसरे से बढ़ते क्रम में संभावनाएं नजर भी आती हैं परन्तु पहले रूप को साकार करना जटिल है। पहले रूप के लिए जो सबसे पहली आवश्‍यकता है वह है बोलियों का आपसी मिलन, एक-दूसरी में निस्वार्थ गुंफन। यह एक लम्बी प्रक्रिया है। परिणामस्वरूप कुछ खोना भी पड़ सकता है। जो इस स्वप्न को जल्दी से जल्दी साकार होता देखना चाहते है, ऐसा लगता नहीं कि उनके पास भावनात्मकता के अतिरिक्त कोई ठोस तर्क मौजूद है। इन बोलियों को मिलाकर एक मानक भाषा बनाना यदि इतना ही सरल होता तो शायद यह आज तक हो भी गया होता क्योंकि भाषा स्वतः अपना रूप ग्रहण करती है और भाषा का मानक स्वरूप होने के उपरान्त ही आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मॉंग करना उचित है।
यदि पूरे हिमाचल की सारी भारोपीय बोलियों को एक झंड़े के नीचे खड़ा करना है तब तो भाषा को अपना एक मानक रूप पाने में लम्बा समय लगेगा और यदि हम पहाड़ी को दो भाषाओं के रूप में देखते हैं तो यह शीघ्र संभव हो भी सकता है। वैसे तो पहाड़ी भाषा के किसी मानक स्वरूप की स्वीकृति तक इतनी सहजता से नहीं पहुंचा जा सकता परन्तु निरन्तर चल रहे नवीन अध्ययनों के फलस्वरूप किस तरह के परिणाम सामने आएंगे, उन पर अभी से कुछ भी निष्चित रूप से कहा नहीं जा सकता। जहां तक भूमण्डलीकरण या बाज़ारवाद की बात है तो इससे किसी भी भाषा को खतरा तब तक नहीं है जब तक पारंपरिक जीवन-षैली के प्रति लगाव में कमी नहीं आती और आधुनिक आर्थिक संरचना को संस्कृति और भाषा से बढ़कर महत्त्व नहीं दिया जाता। 
कहा जा सकता है कि पहाड़ी को राष्ट्रीय-स्तर की संस्थाएं एक स्थान प्रदान करवाती हुईं पहाड़ी के कविता-कहानी संग्रहों को छापने में उत्सुकता दिखा रही हैं। पहाड़ी में योगदान हेतु राष्ट्रीय-स्तर पर पुरस्कृत भी किया जाने लगा है। ऐसी स्थिति में पहाड़ी के मानक रूप पर किसी प्रकार के संदेह का प्रश्‍न  ही नहीं उठता। वास्तव में यह स्थिति और भी भयावह है और पहाड़ी के विकास को और भी जटिल बना देगी क्योंकि सामान्य रूप से तो एक भाषा के साहित्य को दूसरी भाषा का वास्तविक वक्ता तभी पढ़ता है जब वह उसको जानता हो। दूसरी स्थिति में उस भाषा से लगाव होने पर ही व्यक्ति उसे जानने की इच्छा रखता है। तीसरी स्थिति में महत्त्वपूर्ण लेखन भी भाषा को सीखने के प्रति ललक पैदा करने वाला होता है। कुछ हद तक अनुवाद के निमित्त भी दूसरी भाषा का अध्ययन किया जाता है ताकि अच्छी रचनाओं को अनूदित करके अन्य भाषाभाषियों तक उन्हें पहुंचाया जा सके। बिना किसी प्रकार के रोजगार की संभावना से मात्र अनुवाद के निमित्त कोई नई भाषा सीखे यह तो उस भाषा की रचनाओं की श्रेष्ठता पर ही निर्भर करता है। हॉं, भाषाषास्त्रीय अध्ययन हेतु किसी भी भाषा या बोली को लिया जा सकता है। ऐसी स्थिति में जब पहाड़ी को लिया जाएगा तब एक ही भाषा के अन्तर्गत अनेक रूप सामने आएंगे। एक ही पद के प्रयोग में क्षेत्रीय विविधता पाए जाने पर या क्रियागत वैविध्य के कारण, किसी भी मानक स्वरूप के उपस्थित न हो पाने की स्थिति में भाषा का किस तरह का अध्ययन सामने आएगा। कालक्रम से भाषा के स्वरूप में परिवर्तन होना स्वाभाविक है। इसे भाषा का गुण ही कहा जाता है क्योंकि भाषा सतत प्रवाह से युक्त होती है। इसके विपरीत एक ही समय में भाषा के एक ही अर्थ के लिए प्रयुक्त होने वाले एक ही पद के अलग-अलग उच्चरित और लिखित रूपों का होना भी भाषा की विशेषता ही होती है परन्तु यदि यह स्थिति अनेक स्थलों पर {एक ही अर्थ के लिए प्रयुक्त होने वाले एक ही पद के अलग-अलग उच्चारण के लिए} दोइरायी जाए तब इसमें एक भाषा के नहीं अपितु अनेक भाषाओं के लक्षण कहे जाएंगे। पदगत विविधताओं के चलते अध्येता द्वारा उसे एक भाषा कह देना इतना आसान नहीं होगा। ऐसी स्थिति में भाषा का जो रूप सामने आएगा वह साहित्य, लेखक और सामान्य वक्ता में से किसी के लिए भी सम्मानजनक नहीं होगा। भाषा सीखने वालों के लिए भी यह जटिल होगा। आने वाले समय में भी यह हिमाचल के भाषार्थ आन्दोलन को तहस-नहस कर देगा।
विगत कुछ सालों से पहाड़ी के भाषिक स्वरूप पर विचार के साथ-साथ इसके नामकरण को लेकर एक नया ही विमर्ष खड़ा हो गया है और उसके लिए तथाकथित बुद्धिजीवीवर्ग को ही जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। पहाड़ी शब्द के होते हुए, पहाड़ी के लिए हिमाचली शब्द का प्रयोग करना या हिमाचली-पहाड़ी कहना कहॉं तक तर्कसंगत है? हिमाचल शब्द इस प्रदेश को हिमालयी गौरव से जोड़ता है। हिमालय शब्द न केवल भारत अपितु वैश्विक अस्मिता का प्रतीक है। उसी के इतर रूप हिमाचल को भाषा के साथ जोड़कर संकीर्ण बनाना कहीं से भी बौद्धिक सोच का प्रतीक नहीं है जबकि इसके लिए पहाड़ी शब्द है जो भाषाशास्त्र के इतिहास में अपनी गौरवपूर्ण उपस्थिति के उपरान्त भी स्वरूपगत प्रयोग से अछूता है।
बंगाल के दार्जलिंग हिल्ज़ में, पूर्वोत्तर के छोटे-छोटे प्रान्तों में भाषायी अस्तित्व को लेकर प्रान्तीय विघटन की मांगें, इसी तरह लगभग प्रत्येक प्रान्त में किसी न किसी रूप में भाषायी झगड़े देश की शान्ति और विकास के मार्ग पर अवरोध खड़े कर रहे हैं। इनसे यदि किसी तरह की सीख ली जाए तो हिमाचली शब्द किसी भी प्रकार से सहमति के योग्य नहीं हैं। इस शब्द के प्रयोग से यदि हिमाचल प्रदेश के एक भी नागरिक की अवहेलना हो जाती है तो यह प्रयोग अनर्थक सिद्ध होगा। हिमाचल केवल आर्य भाषाभाषियों का ही नहीं है जो भाषा के नाम के लिए प्रषासनिक इकाई का प्रयोग किया जाए। ऐसा अव्यवहारिक प्रयोग करके क्यों लाहुल-स्पिति और किन्नौर के लोगों को अपनी बोलियों की अस्मिता हेतु एक आन्दोलन के लिए उकसाया जाए। इन सब से हटकर इस चिन्ता पर विचार करना भी अनिवार्य है। सर्वप्रथम वे बोलियॉं जो भारोपीय परिवार में नहीं आतीं उन्हें मात्र पहाड़ में बोली जाने के कारण पहाड़ी संज्ञा से संबोधित नहीं किया जा सकता। लाहौल-स्पिति और किन्नौर में अनेकानेक बोलियॉं आज भी व्यवहृत होती हैं। ये बोलियॉं अधिकांशतः तिब्बती-बर्मी परिवार से तथा आंषिक रूप से में आस्ट्रिक परिवार से सम्बद्ध हैं। इन्हें स्वयं में पनपने और विकसित होने का अवसर मिलना चाहिए। इनके साथ किसी भी प्रकार का छल करने से इनकी प्राचीनता और अस्मिता और खतरे में पड़ जाएगी। विश्‍व  में अपनी भाषागत श्रेष्ठता और विकास के कारण अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखने वाले भारत में इन सब को पहाड़ी में शामिल कर लेना या हिमाचली-पहाड़ी का नाम लपेटकर उथली अतार्किक बातों को रखना कहीं से भी उचित नहीं हैं। भले ही कुछ लोग कहें कि उन्होंने सर्वसम्मत निर्णय के तहत ऐसा किया है।
 हिमाचली शब्द के फलस्वरूप इस बात की आहट स्पष्ट सुनी जा सकती है कि हम हिमाचली के वास्तविक वक्ता नहीं हैं अतः हिमाचल की प्रशासनिक इकाई से हमें किसी प्रकार का कोई संबन्ध मान्य नहीं। हिमाचल को हिमाचल रखने के लिहाज से भी यह आवश्‍यक है कि पहाड़ी को पहाड़ी रहने दिया जाए। लाहुल-स्पिति और किन्नौर के बिना न केवल हिमाचल अधूरा है अपितु दूर-दराज के इन विशुद्ध हिमालयी क्षेत्रों की सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक विरासत के बिना हिमाचल के अस्तित्व को ही स्वीकारा नहीं जा सकता। वैसे भी भाषा के आधार पर प्रान्त की बात तो काफी हद तक स्वतंत्रता के बाद अनेक भारतीय प्रान्तों के गठन को सामने रखकर स्वीकारी जा सकती है परन्तु प्रान्त को आधार मान कर भाषा का नामकरण हो, यह उसी स्थिति में संभव है जब भाषा का एक मानक रूप हो और वह सबको स्वीकार्य हो।
आज भारत में भाषाओं के जितने भी नाम हैं वे डा0 ग्रियर्सन के भाषा-सर्वेक्षण के समय से ही यथावत् हैं। पंजाबी, बंगला, गुजराती, असमिया, डोगरी, मराठी, राजस्थानी आदि नाम आज भी उसी रूप में व्यवहृत हैं। महाराष्ट्र में मराठी का नाम प्रान्त के नाम के आधार पर महाराष्ट्री तो नहीं किया गया जबकि महाराष्ट्री शब्द भारोपीय भाषाओं के मध्यकाल में प्राकृत के एक भेद के रूप में विद्यमान है और इस तरह का प्रयोग को पूर्णतः निरस्त भी नहीं किया जा सकता। राजस्थानी अनेक बोलियों के होने पर भी राजस्थानी नाम के साथ ग्रियर्सन के भाषा-सर्वेक्षण के समय से ही प्रयुक्त है। अतःपहाड़ी के लिए हिमाचली शब्द का प्रयोग एक तो अव्याप्ति दोश से ग्रस्त है और यदि हिमाचली-पहाड़ी के रूप में होता है तो राजनीतिक स्वरूप से प्रेरित ही माना जाएगा जिसमें कृत्रिमता साफ झलकती है। 
सबको एक साथ लेकर चलना है तो पहाड़ी को पहाड़ी ही रहने दिया जाए। ऐसी स्थिति में किसी भी कीमत पर तथाकथित हिमाचली शब्द का त्याग करना ही होगा जिसका वैसे भी पहाड़ी शब्द के आगे कोई महत्त्व नहीं। पहाड़ी के यदि दो मानकरूप भी सामने आते हैं तो पहाड़ी के साथ शब्द विशेष लगाकर दोनों को व्यक्त किया जा सकता है। पहाडी़ को पहाडी़ ही रहने दिया जाए, हिमाचली पहाडी़ बनाकर उसे तथाकथित जो संकीर्ण रूप देने की कोशिश की जा रही है उससे तो अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने वाली बात ही हो रही है। वैसे भी भाषा से प्रान्त बनते हैं प्रान्तों के नामों पर भाषा का निर्माण या नामकरण नहीं होता। कहीं एक-आध हो तो वह आधार नहीं होता। भाषा चोंचलेपूर्ण नामों की मोहताज नहीं होती बल्कि उसकी पहचान उसकी विषिष्टताओं से होती है। उत्कृष्ट साहित्य लिखा जाना चाहिए न कि नाम का अड़ंगा लगाना चाहिए। पहाड़ी को दो भाषाओं के रूप में देखने की स्थिति में पहाड़ी के साथ ही उनके नामों के लिए कुछ जोड़ा जा सकता है। उत्कृष्ट साहित्य ही शैक्षणिक वातावरण के लिए भी सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्‍यकता है।

रही बात भाषा की आवश्‍यकता की तो भाषा कोई थोपी जाने वाली चीज़ नहीं है यह तो एक सतत् प्रवाह है और इससे स्वयं को अलग करने की सोचना अपनी ही जड़ों को काटना है। तीज-त्यौहार, मेले-उत्सव, विवाह-अन्त्येष्ठि आदि समस्त संस्कारों में सुख-दुःख, उत्थान-पतन में कहॉं पहाड़ी नहीं है। शताब्दियों से जीवन के ताप को इसके सिवा किसने वहन किया। साहित्य, संस्कृति और कला से विहीन जीवन जीवन नहीं। अतीत की जड़ें पुरातत्त्व के बाद भाषा में ही तलाशी जाती हैं और हर सभ्य और सम्पन्न समाज में भाषा के प्रति ललक का होना एक अनिवार्य विषेषता है। आधुनिक सुख-सुविधाओं से तथा आर्थिक सम्पन्नता से प्रेम-भाईचारा नहीं बढ़ता परन्तु भाषा से बढ़ता है। भाषा का मतलब जन-सामान्य से ही होता है न कि सरकारी कार्यालयों से। सरकारी कार्यालयों में तो राजभाषा का दर्जा प्राप्त हिन्दी ही कहॉं पहुंची है और इतने वर्षों में पहाड़ी को ही कहॉं पहुंचाया गया है, यह कोई बताने की बात नहीं है। जहॉं तक राष्ट्रीय स्तर पर महत्त्व ही बात है, वह पहाड़ी का हक है और न केवल पहाड़ी का अपितु उन बोलियों का भी जो दूर-दराज की क्षेत्रीय संस्कृति, साहित्य को निरन्तर पोस रही हैं। इसके लिए कुछ तो है जो मन से करना अभी बाकी है।

राजीव कुमार त्रिगर्ती
गॉवःलंघू, डा0: गॉंधीग्राम,
वायाःबैजनाथ, जिलाःकॉंगड़ा,
हि0प्र0 176125
094181श्93024


सहायक पुस्तकें सूची-
     1.भारत का भाषा-सर्वेक्षण ( खण्ड-1, भाग-1) 0प्र0हिन्दी संस्थान (हिन्दी समिति प्रभाग) लखनऊ (तृ0सं01979)
     2.भारत का भाषा सर्वेक्षण (भाग 9-पंजाबी) हिन्दी समिति, सूचना विभाग, 0प्र0, लखनऊ (प्र0सं01970)
     3.पहाड़ी रचनासार, हिमाचल कला संस्कृति और भाषा अकादमी, शिमला (प्र0सं01982)
     4.भाषाश्विज्ञान एवं भाषा-शास्त्र (डा0 कपिलदेव द्विवेदी) विश्‍वविद्यालय प्रकाशन, चौक, वाराणसी (पांचवां सं01998)
     5.हिमाचल-मित्र, अंकः 5-13



4 comments:

  1. राजीव जी मत्था टेकदा...
    बहुत बदिया जीनकारी दित्ती तुसां पर कुछ गलां हन जेड़ीयां फिरी ते विचार विमर्श करने वाळीयां है.......
    १. हाली तकर असां शुद्ध रूप तोपणे च असमर्थ हैन.
    २. भाषा दे आधार पर 3 डिवाज़न होई गए a. लाहोल कने किन्नोर b. चम्बीयळी मंडीयाळी कांगड़ी कलुई शिमला सोलन रे बकिखे री c. हमीरपुर ऊना बिलसपुर.....
    भाषा दे आधार पर हिमाचल दा विभाजन

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    1. इक काम होइ सकदा कि जिस टैम भाषा बणियो थी.. जिह्यां डोगरी अशोका ने बणाई थी बुद्धिज़म अपणाणे ते बाद. तां से भाषा जेड़ी उस टैम बणियो तिस जो तोपी करी शुद्ध भाषा बणाया जाई सकदा.... उदे फाईदे ये होणे कि असां जो मूल शब्द मिली जाणे ..... ये गल तां मैं पहले भी गलांदा आया कि केई शब्द तां गलती ने कने टोन दे आधार पर ही बणी गए होणे...तां असां जो मूल शब्द मिली सकदे.....


      २. इक उपए होर है कि टांकरी ए दे पोत्थू मिली जाण तां पता लगाई सकदे कि कुस टोन सा बोलीयां च सारा व्यापार होंदा था... कने से पूर्ण रूप था भाषा रा तां तित्थी भी इक शुद्ध रूप तां तोपया ही होणा लिखणे च...
      शुद्ध रूप मिली जाए तां असांं व्याकरण निर्धारित करी सकदे कने अगर कोई लिपी प्रयोग विच लाणी है तां सै भी लाई सकदे....


      पर जितना मिंदो मेद है सारे देवनागरी जो ही लिपी बणाणा चाहंदे कने टांकरी दे पक्ष विच कम ही हन .

      तां असां जो हिंदी विच ही नोए अक/खर बणाणा पोणे ताकी ध्वनी पूर्ण रूप के समझ आई जाए

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  2. राजीव जी बधाई के पात्र हैं, उन्‍होंने बड़ी मेहनत से यह लेख लिखा है।
    मैं भी भाषा के नाम के लिए पहाड़ी को ही उचित पाता हूं लेकिन प्रशासनिक विभाजन को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इसलिए यह नाम तो अब हमारे गले पड़ ही गया लगता है। खैर नामकरण अंतत: इतना महत्‍वपूर्ण नहीं है, महत्‍व बोलियों के भाषा के रूप में विकसित होने का है, सामान्‍य जन वह भी बहुसंख्‍यक वर्ग के भाषा को सवीकार करने, प्रयोग करने का है। उसी से भाषा समृद्ध भी होगी, उसका मानक रूप भी उभरेगा।

    भाई अनिरुद्ध राजा लोग भाषा नहीं बनाते, बोली भाषा जनता की टकसाल में ही घिस घिस कर बनती है। राजा भाषा संस्‍कृति को प्रश्रय देते रहे हैं। भाषाएं पीछे नहीं लौटतीं, आगे ही बढ़ती हैं। पुराने शब्‍द अपने आप आ जाएं तो आ जाएं, जबरदस्‍ती नहीं ढूंसे जा सकते। हो नए शब्‍द, दूसरी भाषाओं के शब्‍द आते जाते हैं, उन्‍हें आप रोक नहीं सकते।

    आज हम बहुभाषी समाज का हिस्‍सा हैं। पारंपरिक ग्रामीण लोक (कृषि और सामंतवादी दौर का) का रूप तेजी से बदल रहा है। आद्योगिकी और प्रौद्योगिकी प्रधान नागर समाज लोक के नए रूपों को गढ़ रहा है। बहुत तेज गति से चल रहे इस समय में हमारी बोली केसे और कितना चलती है, भाषा का चोला पहन पाती है या नहीं यह देखना है।

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  3. राजीव त्रिगर्ती जी बधाई। पहाड़ी भासा पर इतणा गंभीर विमर्श पेश करने ताईं। एह ठीक है कि नां पहाड़ी ही होणा चाही दा पर नांए जो जादा तूल देणे दी जरुरत नी है। एह देही गलां च उलझी ने गलां भिंगळी जांदीयां। हिन्दीया कनै भी ऐही होया हाली शुरुआत होई नी थी की मतीयां सारीयां भांसा मकाबले च खडेरी तियां। मते पासे रूडना लगी पै पर होया क्या। हिन्दी अज पिछलयां पैरां पर है कनै सैह पासे सच च रुड़ा दे। कनै सैह अंगरेजी जिम्मे‍दार है जिसा जो गांह करी ने तिना हिन्दीया पर वार कीते थे।
    भांसा नदिया दे पाणीये साही होंदीयां। जै वगदीयां रैहन ता संस्‍कृति दी थळियां भी सगदी रैंहदियां। मेरा एह मनणा है कि वैसे है ता अज के दौर च मुश्करल। पर असां जो अपणी भासा दे इस्तेंमाल जो हर रूप च बढ़ावा देणा चाही दा।

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