पहाड़ी भाषा दी नौई चेतना .

Saturday, October 17, 2015

अवतार सिंह संधू 'पाश'

अवतार सिंह संधू 'पाश' दिया
इक्की कविता दा प्हाड़ीअनुवाद


सबते खतरनाक

मिह्णती दी लुट्ट सबते खतरनाक नीं हुन्दी
पुळसा दी मार सबते खतरनाक नीं हुन्दी
गद्दारी - लाळ्चे दी मार सबते खतरनाक नीं हुन्दी
बैह्ठ्ठयाँ बठोह्याँ पकड़ोई जाणाँ बुरा ता हुन्दा
डरियाँ देह्यिआ चुप्पा च जकड़ोई जाणाँ बुरा ता हुन्दा
अपण सबते खतरनाक नीं हुन्दा
कपटे दे रौळे च
ठीक होई ने भी दबोई जाणा बुरा ता हुन्दा
कुसी जुगनुएँ दिया लोई च पढ़ना बुरा ता हुन्दा
मुट्ठीं जिक्की नै टैम कढणा बुरा ता हुन्दा
सबते खतरनाक नीं हुन्दा ।

सबते खतरनाक हुन्दा मुड़दा सान्तिया ने भरोई जाणा
तड़छ नी होणा सब जरी लैणा
घरे ते जाणाँ कम्मे पर
कने कम्मे ते घरे जो हटणा
सबते खतरनाक हुन्दा
असाँ देयाँ सुपनेया दा मरना।

सबते खतरनाक सैह घड़ी हुन्दी
जेह्ड़ी तुसाँ दे मून्ने पर चलियो भी
तुसाँ दियाँ हाक्खीं च रुकियो हुन्दी
सबते खतरनाक सैह हाख हुन्दी
जेह्ड़ी सब किछ दिक्खी ने भी जम्मियो बर्फ हुन्दी
जिसदी नजर दुनिया जो प्यारे ने चुमणा भुली जान्दी
जेह्ड़ी चीज्जाँ ते उठदिया अह्न्नेपणे दिया भाफ्फा पर ढळी जान्दी
जेह्ड़ी रोज्जे दे बह्ड्डे जो पीन्दी पीन्दी
इक बेनसाणे दोहराव दे पुठफेरे च गुआच्ची जान्दी
सबते खतरनाक सैह रात हुंदी
जेह्ड़ी रूह्ई दे गास्साँ पर ढळ्दी
जिसा च सिर्फ उल्लू बोलदे कने हू हू कर्दे गिद्दड़
म्हेसा दे बंद दरुआज्जेआँअ-चगाट्ठाँ   ने सच्ची जांदे

सबते खतरनाक सैह गीत हुंदा
तुसाँ देयाँ कन्नां तिकर पुजणे ताएँ
जेहड़ा  सोग गीत पढ़दा
डरेयाँ लोक्काँ देआँ दरुआज्जेआँ पर
जेहड़ा गुंडेआँ साह्यीं अकड़दा।

सबते खतरनाक सैह दिसा हुंदी
जिसा च रूह्यी दा सूर्ज घरोई जाएँ
कने जिसदिया मरिया धुप्पा दा कोई टुकड़ा
तुसाँ दे जिस्मे दे पूर्बे च खुह्बी जाएँ।

सबते खतरनाक सैह चंदर्मा हुंदा
जेहड़ा हर इक ह्त्या कांड ते बाद
सुन्नेयाँ अँगणा पर चढ़दा
अपण तुसाँ दियाँ हाक्खीं च मिरचाँ साह्यीं नी चुभदा।
मिह्णती दी लुट्ट सबते खतरनाक नीं हुन्दी
पुळसा दी मार सबते खतरनाक नीं हुन्दी
गद्दारी - लाळ्चे दी मार सबते खतरनाक नीं हुन्दी
बैह्ठ्ठयाँ बठोह्याँ पकड़ोई जाणाँ बुरा ता हुन्दा
डरियाँ देह्यिआ चुप्पा च जकड़ोई जाणाँ बुरा ता हुन्दा
अपण सबते खतरनाक नीं हुन्दा
कपटे दे रौळे च
ठीक होई ने भी दबोई जाणा बुरा ता हुन्दा
कुसी जुगनुएँ दिया लोई च पढ़ना बुरा ता हुन्दा
मुट्ठीं जिक्की नै टैम कढणा बुरा ता हुन्दा
सबते खतरनाक नीं हुन्दा

सबते खतरनाक हुन्दा मुड़दा सान्तिया ने भरोई जाणा
तड़छ नी होणा सब जरी लैणा
घरे ते जाणाँ कम्मे पर
कने कम्मे ते घरे जो हटणा
सबते खतरनाक हुन्दा
असाँ देयाँ सुपनेया दा मरना।


मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती


मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
जुगनुओं की लौ में पढ़ना
मुट्ठियां भींचकर बस वक़्हत निकाल लेना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता

सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना

सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नज़र में रुकी होती है
सबसे ख़तरनाक वो आंख होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्बैत से चूमना भूल जाती है
और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है
सबसे ख़तरनाक वो गीत होता है
जो मरसिए की तरह पढ़ा जाता है
आतंकित लोगों के दरवाज़ों पर
गुंडों की तरह अकड़ता है
सबसे ख़तरनाक वो चांद होता है
जो हर हत्याककांड के बाद
वीरान हुए आंगन में चढ़ता है
लेकिन आपकी आंखों में
मिर्चों की तरह नहीं पड़ता

सबसे ख़तरनाक वो दिशा होती है
जिसमें आत्मा  का सूरज डूब जाए
और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्मु के पूरब में चुभ जाए

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती ।

अवतार सिंह संधू 'पाश'
साभार: कविता कोष

पहाड़ी अनुवाद : द्विजेंद्र ‘द्विज’


2 comments:

  1. सुन्दर व सार्थक रचना ..
    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...

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